साख का सवाल: आम नागरिक का भरोसा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 17 Jan, 2018 12:43 PM

question of credit common citizen trust

अदालत में लड़ूंगा, सुप्रीम कोर्ट तक जाऊंगा - देश की अदालतों पर भरोसा कर ही देश का नागरिक न्याय की उम्मीद में ये कहता है। जब सुप्रीम कोर्ट के एक नहीं बल्कि चार वरिष्ठ न्यायधीशों ने बाकायदा प्रैस कॉन्फ़्रैंस कर देश की प्रधान अदालत की कार्यप्रणाली और...

अदालत में लड़ूंगा, सुप्रीम कोर्ट तक जाऊंगा - देश की अदालतों पर भरोसा कर ही देश का नागरिक न्याय की उम्मीद में ये कहता है। जब सुप्रीम कोर्ट के एक नहीं बल्कि चार वरिष्ठ न्यायधीशों ने बाकायदा प्रैस कॉन्फ़्रैंस कर देश की प्रधान अदालत की कार्यप्रणाली और प्रधान न्यायाधीश के तौर तरीके पर सवाल उठाए, उस समय आम नागरिक के मन में शक के कैसे कैसे सवाल उठे होंगे। उसके मन में सवाल उठा होगा - गंगा अगर गंगोत्री पर ही मैली हो जाए तो इसका पानी पवित्र् कैसे रह सकता है और फिर हरिद्वार में उस पानी में डूबकी लगाने के क्या मायने होंगे।

 

देश की शीर्ष अदालत के जजों द्वारा प्रैस कॉन्फ़्रैंस करना उचित था या कानून के दायरे से बाहर था या उन्हें ऐसा करने से पहले इस विषय में राष्ट्रपति से बात करनी चाहिए थी, ये कानून के पेचोखम को समझने वाले विशेषज्ञ ही बता सकते हैं। ज़ाहिर है इस विषय में इन कानूनवेताओं की राय अलग अलग ही होगी, परन्तु हिंदोस्तान के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब सुप्रीम कोर्ट के ही चार न्यायधीशों ने खुले तौर पर देश की सबसे बड़ी अदालत पर प्रश्न खड़े किए हैं। इन न्यायधीशों ने सात पन्नों के पत्र में आरोपों की जो इमारत खड़ी की है, उसने देश को हिलाया ज़रूर है। 

 

निसंदेह न्यायापालिका लोकतंत्र का महत्वपूर्ण स्तंभ होती है जो संविधान का संरक्षण करती है और नागरिकों के अधिकारों के हनन पर लगाम लगाती है। जब देश की सर्वोच्च अदालत के न्यायधीश ही ये कह दें कि यहां जो कुछ हो रहा है उससे लोकतंत्र को खतरा है, तो मुझ जैसे आम नागरिक के ज़हन में सवाल उठना तो सहज बात है। जब न्यायधीशों को भी न्याय की तलाश में न्यायालय की चौखट ने निकल कर मीडिया के माध्यम से जनता के सामने आना पड़े, तो आम नागरिक इंसाफ़ के लिए कहां जाएगा? मीडिया में जाने की बात तो दूर, आम आदमी तो कोर्ट के फैसले पर हखुल कर नहीं बोल सकता क्योंकि कोर्ट की अवमानना होती है। आम लोग तो बस न्याय व्यवस्था के बारे में फ़ुसफ़ुसा सकते हैं, और उनके सवाल व संदेह केवल फ़ुफ़ुसाहट तक ही सीमित रहता है। बस वो अपील कर सकता है। 

 

अपील का अंतिम दर होता है सुप्रीम कोर्ट, इंसाफ़ प्राप्त करने की अंतिम उम्मीद। वहां भी....? क्या मीडिया में आ कर सर्वोच्च नयायालय और प्रधान न्यायधीश पर सवाल उठाने वाले चार न्य्याधीशों के खुलासे से स्वायत न्यायपालिका की गरिमा को धब्बा लगा है या फ़िर यह उस न्याय व्यवस्था की पोल खोलता है जिसके चलते वे मीडिया के सामने आने के लिए मज़बूर हुए? वैसे दोनों ही परिस्थितियां गंभीर, चिंतनीय है, जिसका हल जल्द ही करना होगा। सुप्रीम कोर्ट के कार्य प्रणाली पर उठाए गए सवालों से संदेह ये भी पैदा होता है कि सत्र, ज़िला और उच्च न्यायालयों के गलियारों व चैंबरों में क्या-क्या चलता होगा और क्या-क्या नहीं चलता होगा। यह न्याय की पवित्र इमारतों की दीवारों में पड़ती दरारों की ओर संकेत करता है। ऐसे में आम नागरिक का भरोसा तो डोलेगा ही। 

 

देश के सर्वोच्च नयायालय के एक भूतपूर्व जज व पी सी आई के भूतपूर्व चैयरमन मार्कण्डेय काट्जू ने न्यायपालिका के संबंध में तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा था - ‘मेरा अंदाजा है कि उच्च स्तर पर 50% न्यायपालिका भ्रष्ट है।‘ उनके द्वारा कही गई ये बात भले ही पूरी तरह से सत्य न हो और हो सकता है यह पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, परन्तु आज एक नहीं बल्कि चार जज ये बात कह रहे हैं।खेद का विषय यह भी है कि इस घटनाक्रम  के बाद जो बहस हो रही है, उसमें नयायपालिका के जजों को भी रजानैतिक खेमों में बांटा जा रहा है, जो न्यायपालिका व लोकतंत्र के लिए कम घातक नहीं। ऐसा कर न्यायपालिका की स्वतंत्रता व पवित्रता को दागदार बनाने का ये प्रयास कतई भी शोभनीय नहीं है। 

 

बचपन में मुंशी प्रेमचंद की ’पंच परमेश्वर’ नामक एक कहानी पढ़ी थी जिसने मेरे मन एक गहरी छाप छोड़ी। मैं सोचा करता कि न्याय की कुर्सी पर बैठा फ़ैसला सुनाने वाला जज भगवान का ही रूप होता होगा और जो फ़ैसला उसके मुंह से आता होगा वो खुदा के ही बोल होते होंगे। उसका फ़ैसला निष्पक्ष और न्यायसंगत ही होगा। परन्तु जब-जब भी न्याय के मंदिरों के संबंध में इस तरह की बातें होती है, तब-तब हर बार विश्वास टूटता है और मै अपने आप से फ़िर फ़िर पूछता हूं - वो परमेश्वर की तरह पंच क्या कहानियों में ही होते है? क्या मेरा वो विश्वास सही है या फ़िर ये जो अब घटित हो रहा है? लेकिन हर बार अपने विश्वास को समेटते हुए अपने आप को तसल्ली देता हूं - अब ऐसा नहीं होगा क्यॊकि यही न्यायपालिका है जिसने बड़े बड़े नेताओं, मंत्रियों, अभिनेताओं, लालुओं, आसा रामों, राम रहीमों को सलाखों के पीछे भेजा है।

 

देश के लोकतंत्र को जजों के मीडिया के सामने आ कर प्रैस कॉन्फ़्रैंस करने से खतरा है या उस न्यायव्यस्था से जो जजों को मीडिया में जाने के लिए विवश करती है, यह यक्ष प्रश्न है। फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट में उठे इस विवाद को प्रधान न्यायधीश सहित सभी जजों को साथ बैठ कर सुलझाना होगा क्योंकि चार जजों के अलावा भी वहां बहुत से जज है। उनसे भी बात की जानी चाहिए। खैर जो हुआ सो हुआ, अब प्रयास होना चाहिए कि न्यायपालिका में लोगों का विशवास बरकरार रहे। इसी दिशा में बार काऊंसिल ने अहम कदम उठाया है। आशा है काउंसिल का सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल न्यायपालिका पर उठते सवालों और विवाद को जजों के साथ मिल कर जल्द सुलझा लेगा। यही देश के लोकतंत्र के लिए बेहतर होगा। संविधान द्वारा नागरिक को प्रदान किये गए अधिकार व सुरक्षा तब तक पानी के बुलबुले की तरह है जब तक न्यायपालिका की स्वायतता और पवित्रता पुख्ता हो। आम बागरिक के मन में अदालतों पर अगाध भरोसा होना आवश्यक है। जज साहब! अगर आप भी न्याय मांगने खुले मैदान में आएंगे तो आम नागरिक तो यही कहेगा:

 

इस दौरे मुंसिफ़ि में ज़रूरी नहीं वसीम
जिसकी खता हो उसी को सज़ा मिले।

 

इस उम्मीद पर अपना भरोसा पुन: समेट रहा हूं कि फ़िर ऐसा नहीं होगा और हम पुरे विश्वास के साथ कह पाएंगे - ’अदालत में लड़ूंगा, सुप्रीम कोर्ट तक जाऊंगा।’

 

जगदीश बाली


 

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