इश्वर प्राप्ति का मार्ग संगीत और साधन : दादाजी महाराज

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Feb, 2018 11:02 AM

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संगीत और साधन ये दोनों ही ईश्वर प्राप्ति के दो रास्ते हैं | इन दोनों में से किसी एक को अपना लिया जाए तो भी ईश्वर दर्शन अवश्य ही संभव हैं |सुर ही ब्रह्म हैं जैसे देव-ऋषि नारद के साथ बात करते हुए भगवान नारायण ने संगीत...

संगीत और साधन ये दोनों ही ईश्वर प्राप्ति के दो रास्ते हैं | इन दोनों में से
किसी एक को अपना लिया जाए तो भी ईश्वर दर्शन अवश्य ही संभव हैं |सुर
ही ब्रह्म हैं जैसे देव-ऋषि नारद के साथ बात करते हुए भगवान नारायण ने
संगीत का महत्व एक बार बताया, उन्होंने देवर्षि को एक स्तोत्र के माध्यम से
संगीत का महत्व बताया, ये स्तोत्र है –

 

जपत कोटि गुणं ध्यानम्
ध्यानत कोटि गुणं लयम्
लयत कोटि गुणं गानम्
गानत परतरं ना ही.

 

अर्थात जप से कोटि गुणा महत्व ध्यान में होता हैं, ध्यान से कोटि गुणा महत्व
लय में अर्थात लय योग में होता हैं, और लय योग से कोटि गुणा फल प्रदान करते
हैं गान या संगीत | एक स्तोत्र में भगवान नारायण जी ने देवर्षि नारद को बताया
कि ..

 

ना हं वसामि वैकुंठे
ना हं योगीनां हृदयांच
मद् भक्ता यत्र गायंति
तत्र तिष्टामि नारद.

 

दादाजी महाराज ने बताया की ये स्तोत्र का अर्थ है की न मैं वैकुंठ में बसता हूँ,
ना ही योगी जनो के हृदय मैं , मैं उसी स्थान में बस्ता हूँ जहा मेरे भक्त प्रियजन
संगीत साधना करते हैं, मुझे संगीत सुनाते हैं |
“गानत परतरं ना ही” का मतलब संगीत के बाद और कुछ नहीं हैं | संगीत ही
ब्रह्म हैं, संगीत ही भगवान हैं, संगीत ही ईश्वर स्वरुप हैं, इसी के कारण योगिजन

 

संगीत को सर्वोच्च मर्यादा प्रदान करते हैं | पृथ्वीलोक वासी हम लोग, अगर थोड़ा
सा ध्यान लगा कर देखे तो पायेंगे की भगवान नारायण, भगवान महेश्वर, देवी
सरस्वती, महर्षि नारद, देवी कौशिकी, सिद्धिदाता गणेश जी, इन सब के हाथ में
कोई न कोई वाद्य यन्त्र है; अर्थात ये देव देवी भी संगीत के महत्व को अच्छी
तरह से जानते भी हैं, और चर्चा भी करते है | भगवान शिव ने जैसे योग साधन
के लिए चौरासी लाख आसन प्राणायाम आविष्कार किये; वैसे संगीत की, राग
रागिनी, ताल, लय, नृत्य की स्रष्टा भी उन ही की हैं | सृष्टि की आदि काल से
संगीत और साधन एक साथ जुड़े हुए थे | भगवान को पाने का सब से आसान
रास्ता है संगीत साधन | इसी के कारण भगवान शिव जी, नारायण जी, गणेश
जी (पखवाज), देवी सरस्वती, कौशिकी, नारद जी, माँ कामख्या, सभी देव, देवी
का आसन पाते हुए भी संगीत की चर्चा में निरंतर खोये हुए रहते हैं, इन देव और
देवियों की इशारा पृथ्वी वासिओ को समझना चाहिए की, “संगीतम् परतरं ना
ही”. अर्थात संगीत के बाद और कुछ नहीं हैं | संगीत ही सर्वश्रेष्ठ हैं, सुर रूपी
परमब्रह्म हैं , परम ईश्वर हैं | संगीत का योगीजनों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा
वो भी दादाजी महाराज ने बताया की जैसे युग अवतार श्री श्री रामकृष्णदेव ने
एक बार युग नायक विवेकानंद जी का गान सुनने के बाद समाधि में चले गए थे
और समाधि से लौट आने के बाद श्री श्रीरामकृष्णदेव जी ने उनके सामने बैठे हुए
सभी शिष्यों को बताया “कि जिन लोगो ने संसार को त्याग करते हुए, ईश्वर
दर्शन के लिए साधन किया हैं, उनकी तो एक कठिन जिम्मेदारी है की, जब सब
कुछ छोड़ के तुम ईश्वर प्राप्ति के लिए साधन पथ में आये हो तो तुम को ये पथ में
ही चलना होगा, कब ईश्वर की कृपा तुम पर बरसेगी वो तो ऊपर वाला ही
जाने, कितने ही दिन, कितने ही वर्ष लग जाये, तुम उस रास्ते से वापस नहीं आ
पाओगे, जितनी ही कठिनाई की सामना कियूं न तुम को करना पड़े, लेकिन जो
लोग संगीत का साधन करते हैं, और वो भी शास्त्रीय संगीत की चर्चा, उन लोगों
ने हम लोगो से पहले ही ईश्वर के दर्शन कर लिए हैं | संगीत ऐसा ही एक
अनमोल साधन हैं”| महायोगी बनने के बाद भी श्री श्री रामकृष्ण जी ने हर
समय अपने मन मैं भजन करते थे, जब जब स्वामी विवेकानंद जी इनके पास आ
जाते थे, तब तुरंत रामकृष्ण जी ने उनको संगीत सुनाने के लिए अनुरोध करते थे,
और घंटो घंटो भर स्वामी जी के संगीत के भाव में डूब जाते थे, समाधि में चले
जाते थे | संगीत के शक्ति इतनी ही शक्तिशाली है और प्रभावी है की योगी लोगों

 

सुर को अपने प्राण के साथ जोड़ते हुए समाधि में चले जाते है | इसी के कारण
संगीत और साधन, साधन और संगीत में कोई फर्क नहीं | पहाड़ी बाबा कह के
एक महा योगी सितार बजाते थे अयोद्धा पहाड़ी के ऊपर वो योगी जैसे साधन में
सिद्धि को पा लिए वैसे ही सितार वादन में भी सिद्ध हस्त थे |वो जब सितार
बजाते थे तब बड़े बड़े सब महात्मा उनका सितार वादन सुनने के लिए आकाश
मार्ग से उस स्थान पर पहुँच जाते थे |योगिओ में संगीत का ऐसा ही महत्व हैं |

 

*सुर ब्रह्म या नाद ब्रह्म -

नाद ब्रह्म की बारे मैं दादाजी महाराज ने मुझे कई बार बताया की ,सुर, संगीत
अथवा नाद को ब्रह्म स्वरूप माना जाता हैं. ऐसा क्यों? सृष्टि की मूल आधार जो
है वो हैं ॐ-कार,अर्थात नाद,और ये ॐ-कर रूपी नाद विश्व सृष्टि की मूल आधार
हैं | ॐ-कार रूपी ये नाद शक्ति को भारतीय महयोगियो ने ध्यान के माध्यम से
कई हज़ार वर्ष से पहले जान लिए थे | आज से लगभग २०-२५ साल पहले एक
बार अमेरिका महादेश की “NASA” रिसर्च सेंटर से कई वैज्ञानिक महाकाश
भ्रमण के लिए गए थे,वो विज्ञानि जब पृथ्वी लोक पर वापस आये तब उन लोगों
ने एक press conference में ये बताया की “हम लोगो जब महाकाश में भ्रमण
कर रहे थे तब सारे महाकाश में सिर्फ एक विचित्र अवाज सुनाई दी , जो
भारतीय योगी लोगों ने हज़ार हज़ार साल पूर्व में ही बता दी थी वो थी ॐकार
रुपी नाद वैसे ही एकदम ॐ-कार की आवाज़ हमको यंहाँ सुनाई दी | हम लोग
आश्चर्य हो गए थे की भारतीय योगिओं ने इतने हज़ार साल पहले कैसे ये ॐ-कार
की बारे में जान लिया था ?”

 

लेकिन ये ॐ-कार की उत्पत्ति स्थल कहा हैं? कैसे ये नाद रूपी ॐ-कार ध्वनि
निकलती है? इसका कारण है महाकाश में जो लाखों करोड़ो में “ग्रह”, एक दुसरे
की बलये में घूमते रहते हैं, ये घूर्णन की कारण ही ये नाद रूपी ॐ-कार ध्वनि की
सृष्टि होते हैं | और ये घूर्णन के कारण जो तेज शक्ति उत्पन्न होती है, वो तेज शक्ति
ही सृष्टि की मूल कारण हैं | अर्थात ॐ-कार रूपी नाद आवाज़ और तेज ये दोनों
मिल के सृष्टि की मूल कारण बना | ॐ-कार रूपी सुर या नाद से जगत की सृष्टि
हुई हैं , इसके कारण ही नाद को ब्रहम स्वरुप माना गया, और इसी के कारण ॐ-

 

कार रूप नाद को शास्त्र में “सुर ब्रहम अथवा नाद ब्रहम के रूप में माना गया
|जैसे ॐ-कार को जगत सृष्टि का मूल कारण माना गया वैसे ही ॐ-कार को मन्त्र
के रूप में भी सर्व श्रेष्ठ माना गया, शास्त्र में कहा गया ‘एक अक्षरी महा मंत्र’. ॐ-
कार जैसे सृष्टि की मूल कारण है, ब्रह्म स्वरुप है, वैसे ईश्वर प्राप्ति और सिद्धि के
मूल कारण के रूप में ॐ-कार सामान मर्यादा में हैं | और ये ॐ-कार रूपी शब्द
को संगीत का पहला सुर या स्वर कहा जाता हैं | तो ये समझने में देर नहीं लगती
की संगीत और साधन एक ही स्थान से शुरू होते हैं अर्थात ॐ-कार से | ॐ-कार
ही संगीत और साधन का मूल केंद्र बना हैं | कोई भी मंत्र जप करे तो ॐ-कार ही
उसमे छुपा हुआ रहता हैं | जितने ही अक्षर आज तक सृष्टि हुए, सभी में ॐ-कार
छुपा हुआ हैं | जितने ही शब्द प्रकाश होते हैं सभी ॐ-कार से संबंध रखते हैं |
इसी के कारण सभी सिद्ध मंत्र ॐ-कार स्वरुप हैं | ये ही हैं ॐ-कार का साधन |
दूसरी तरफ जितना संगीत तैयार होता हैं | वो सब 7 स्वरों को ले कर तैयार
होते हैं, और ये सांत स्वरों की सृष्ठी का मूल कारण ॐ-कार ही हैं,अर्थात साधन
या संगीत, ये दोनों ही ॐ-कार रूपी “नाद” ब्रह्म से जनम लेने की कारण
योगीगणों का ईश्वर साधन और संगीतकारों का संगीत साधन एक ही ब्रहम के
दोनों रूप हैं, कोई फरक नहीं हैं | अब ये समझने में देर नहीं लगती की सुर ब्रह्म
और नाद ब्रह्म, संगीत और साधन, योगी और संगीत साधको में कोई विभेद नहीं
हैं | इसी के कारण ही सब देव देवियों ने हाथ में वाद्य यंत्र ले कर पृथ्वी लोग
वासिओ को ये बताया हे की “सुर में रहो” तो हम जैसा तुम लोग भी बन सकते
हो |योगिओ ने देह यंत्र के अन्दर के सात सुरों की चर्चा की हैं जैसे “मूलाधार”,
स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, और आज्ञा चक्र”, इन चक्रों मैं लगातार
“जप” जैसी सुरों की चर्चा वे करते हैं | जैसे संगीत साधक “स र ग म प ध नी ”
ये सांत सुरों की चर्चा करते हैं | दोनों में कोई फरक नहीं | एक अक्षर से बत्तीस
अक्षर तक जितने ही मंत्र हो और सांत सुरों की भीतर जितने ही स्वर और सुर
हो, सभी की उत्पत्ति स्थल है वो ॐ-कार रूप अनादी शक्ति,इसलिए संगीत और
अध्यात्मिक साधन एक दुसरे के साथ जुड़ा हुआ हैं | संगीत साधक और
अध्यात्मिक साधक दोनों का लक्ष्य है ईश्वर को पाना | इसी कारण ॐ-कार से जो
शब्द उत्पत्ति होती हैं वो ही शब्द एक के पास संगीत के स्वर की रूप में और
दुसरे के पास जप की मंत्र के रूप में प्रकाशित हुए होते हैं | इस लिए दोनों साधक
अलग अलग तरीके से साधन करते हुए भी भगवत साधक ही हैं, दोनों ही ईश्वर

 

उपासक हैं | संगीत में भाव और आनंद और रस की प्रभाव ज्यादा होने की कारण
ईश्वर दर्शन जल्दी मिल सकते हैं क्योंकि ईश्वर, रस आनंद और भाव से ज्यादा
प्रभावित होते हैं,इसी के कारण भगवान नारायण की वो उक्ति एकदम सच हैं
की –

 

“मद् भक्ता यत्र गायंति
तत्र तिष्टामि नारद.”

 

*संगीत और साधन मैं “सात” का महत्व –

एक इंसान जब जनम लेता हैं, तब उसको पता नहीं होता हैं की वह ब्रह्माण्ड की
महा शक्ति के साथ जनम लिया हैं | अध्यात्मिक चर्चा के दौरान दादाजी
महाराज ने कई बार बताया की ,अध्यात्मिक जगत में जैसे सात स्वर्ग को मानते
है, सात ब्रह्माण्ड को मानते हैं, सप्त पाताल को मानते हैं, सप्त सागर को मानते हैं,
सात वर्षो को मानते हैं, जैसे भारतवर्ष, इलावर्ष, इलातीवर्ष, जम्बुवर्ष, ऐसे सात
महा देश या सात वर्षो को लेके ये पृथ्वी मंडल तैयार हुए हैं | सात वर्ष अर्थात
महादेश को सात सात भागो में बाट कर 49 देशो में बाट दिए हैं | ऐसे ही सूरज
के सात रंग होते हैं, जो अलग अलग शक्ति के सात पृथ्वी लोक और जीव जीवन
में काम करते हैं, मानव शरीर में भी ऐसे ही सात का महत्व अकल्पनीय हैं | जैसे
मानव शरीर के पिछले भाग में जो मेरुदंड है, उसमे सात चक्र का अवस्थान हैं,
जैसे मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धा चक्र,
आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र,ये सात चक्र गायत्री मंत्र के सात ब्रह्माण्ड की साथ
जुड़ा हुआ हैं | जैसे भू: भुव: स्वः, मह:, जन:, तप:, सत. ये सात ब्रह्माण्ड के साथ
संगीत के सात स्वर जुड़े हुए हैं | भू – के साथ ‘स’, भुव: - के साथ ‘र’, स्व: - के
साथ ‘ग’, मह: - के साथ ‘म’, जन: - के साथ ‘प’, तप: - के साथ ‘ध’, सत -के
साथ ‘न’ | अध्यात्मिक साधक जप और साधन के ज़रिये एक एक चक्र को भेद
करते हुए मूलाधार से सहस्रार चक्र तक पहुँच जाते हैं और सिद्धि को प्राप्त कर
लेते हैं |वैसे ही संगीत साधक ये सात चक्र को, सात स्वरों के साधन के रूप में
साधन कर, सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं | एक साधक शरीर के सांतो चक्र भेद करते है
– साधन और गुरु दीक्षा प्राप्त मंत्र के द्वारा, दूसरा संगीत साधक अपने संगीत गुरु

 

से प्राप्त तालीम के माध्यम से ये सात स्वर के ऊपर सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं | दोनों
साधक ही अपना उद्देश्य लेकर चल पड़े हैं ईश्वर प्राप्ति के रास्ते पर, एक सश्वब्द
नाद के साथ और एक निशब्ध नाद के साथ, एक आहत ध्वनि को सुनते हैं और
दुसरे अनाहत ध्वनि को अपने अन्दर ही सुनते हैं , लेकिन दोनों ही अलग अलग
रास्ता अपनाते हुए एक ही नाद की चर्चा करते हैं, और एक ही ईश्वर को मानते
हुए आखिर एक ही जगह में पहुँच जाते हैं | शरीर मैं जैसे सप्त चक्र को जगाते हुए
साधक इंसान से भगवान बन जाते हैं, वैसे ही सप्त सुर को साधते हुए एक संगीत
साधक ईश्वर साधन कर लेते हैं |भगवान महादेव ने तंत्र की चर्चा करते हुए
बताया की ये जो संगीत के सात स्वर है, ये सात स्वरों की उत्पत्ति स्थल हमारे
शरीर के अन्दर ही हैं. सर से ले कर पाँव तक ये सात स्वर शरीर के एक एक
कोण में अपना स्थान बना लिए, सिर्फ यही नहीं ये 49 वर्ण में भी हैं,जो माँ
काली के गले मैं 49 मुंडमाला की रूप में लटकते हैं, वो 49 वर्ण की उत्पत्ति
स्थल भी इंसानों के शरीर में ही हैं – ये मुंडमाला असल में 49 वर्ण अक्षर ही हैं
| वैसे ही इंसान की शरीर में जो सप्त चक्र है, वो भी सात सात भागो मैं बंट कर
49 चक्र का रूप ले लिए, “शब्द” अनादी, अनंत हैं, इसके कारण ये वर्नादी अक्षर
को, अक्षर ब्रह की नाम से भी जाना जाता हैं |सप्त स्तर जैसे ये 49 “वर्ण” अक्षर
से ही उत्पन्न हुआ, वैसे एक से लेकर 32 अक्षर की मंत्र भी ये 49 अक्षर से चुन
कर ही बनाए गए ,और वैसे ही स्वरग्राम और मंत्र की उत्पत्ति स्थल भी एक ही
स्थान अर्थात ॐ-कार रूप महा शक्ति से उत्पन्न हुए | इसी के कारण संगीत और
साधन समानार्थ हो गया,अर्थात जो सुर के साधक, संगीत की चर्चा करते हैं वो
असल में भगवत साधन ही करते हैं और जो साधक मंत्र जप के माध्यम से ईश्वर
को पाना चाहते है, वे संगीत की चर्चा ही करते हैं. जैसे सरगम को साधते हुए
बार बार आरोहन अवोरोहण को माध्यम बना लिया जाता हैं, perfection के
लिए, वैसे ही शरीर में छुपी हुए कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए अनुलोम
विलोम प्राणायाम के perfection की ज़रूरत पड़ती हैं | अगर देखा जाए तो
एक साधक ने वाद्ययंत्र को अपना सिद्धि का माध्यम बना लिया और दुसरे साधक
ने अपने शरीर को ही वाद्य यंत्र की रूप में प्रयोग कर लिया सिद्धि प्राप्त करने के
लिए | रागों में जैसे अलग अलग सरगम के प्रयोग होते हैं, एक एक राग को
पहचानने के लिए, वैसे ही सिद्धि प्राप्ति के लिए अलग अलग मंत्र का प्रयोग
मिलता हैं सद्गुरु से | संगीत साधक हो या भगवत साधक हो, सब को ही

 

आखिर में मिलना है ॐ-कार रूपी परम ब्रह्म में | ॐ-कार रूपी महाशक्ति से
शक्ति प्राप्त होते हुए संगीत साधक या भगवत साधक दोनों को ही अपनी उत्पत्ति
स्थल में जाना होगा ये निश्चित हैं |


जय गुरुदेव जय दादाजी महाराज

 

मधुर आचार्य

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