एक भूली-बिसरी याद

Edited By Punjab Kesari,Updated: 11 Aug, 2017 10:53 PM

a forgettable memo

राज्यसभा के सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष होता है और हर 2 वर्ष में इसके एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त हो जाते...

राज्यसभा के सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष होता है और हर 2 वर्ष में इसके एक-तिहाई सदस्य सेवानिवृत्त हो जाते हैं अत: यह कभी भंग नहीं होती। इसके सदस्य के चुनाव के लिए विधायक तरजीह (वरीयता) के आधार पर वोट देते हैं। 

हाल ही में सम्पन्न गुजरात से राज्यसभा के चुनावों में कांग्रेस प्रत्याशी अहमद पटेल द्वारा जीत के लिए जरूरी 43.5 वोटों की तुलना में 44 वोट लेकर अप्रत्याशित विजय ने मुझे पूज्य पिता अमर शहीद लाला जगत नारायण जी की मार्च 1964 में कांग्रेस तथा इसके दिग्गज नेताओं के अत्यधिक विरोध के बावजूद हुई भारी विजय की याद दिला दी। 1952 से 1956 तक पंजाब के सच्चर मंत्रिमंडल में शिक्षा, स्वास्थ्य एवं परिवहन मंत्री रहने के बाद स. प्रताप सिंह कैरों से वैचारिक मतभेदों के चलते लाला जी ने 26 अक्तूबर, 1956 को कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया।

तभी स. प्रताप सिंह कैरों के विरोधियों ने लाला जी से राज्यसभा का चुनाव लडऩे का आग्रह किया और कहा कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान की गई उनकी जेल यात्राओं और बाद में अपने मंत्रीकाल के दौरान की गई जनसेवा के दृष्टिगत इसमें विरोधी दल भी उनकी सहायता करेंगे। मित्रों और शुभचिंतकों की इसी सलाह पर जब लाला जी ने चुनाव लडऩे का निर्णय किया तो कांग्रेस में खलबली मच गई। यह स. कैरों और लाला जी के बीच खुली राजनीतिक लड़ाई थी। स. कैरों की कार्यशैली से क्षुब्ध स. गुरदयाल सिंह ढिल्लों तथा कुछ अन्य कांग्रेसी विधायक जो कांग्रेस छोड़ कर निर्दलीय विधायक बने हुए थे, उनका लाला जी को समर्थन मिला। 

लाला जी को हराने के लिए कांगे्रस पं. नेहरू तक को आगे लाई जिससे लोगों में यह चर्चा शुरू हो गई कि लाला जी को हराने के लिए कांग्रेस ने पंडित नेहरू के पूरे प्रभाव का इस्तेमाल किया परंतु लाला जी के विरुद्ध प्रचार किसी काम न आया तथा 26 मार्च, 1964 को हुए मतदान में लाला जी विजयी घोषित किए गए। तरजीही वोटों की गिनती से लाला जी को 3035 वोट मिले। इन्हें चौधरी देवी लाल के ‘प्रोग्रैसिव इंडीपैंडैंट ग्रुप’, जनसंघ और अकाली दल के मास्टर तारा सिंह ग्रुप का समर्थन हासिल था। चुनाव के बाद लाला जी ने एक लेख में लिखा था कि चौधरी देवी लाल, मास्टर तारा सिंह, श्री यज्ञदत्त शर्मा, सरदार गुरदयाल सिंह ढिल्लों और उनके साथियों तथा कुछ अन्य विधायकों के समर्थन की बदौलत ही वह राज्यसभा के सदस्य चुने जा सके। 

राज्यसभा के चुनाव पर स. प्रताप सिंह कैरों ने प्रैस कांफ्रैंस में कहा,‘‘मुझे ऐसा लगता है कि जो लोग लाला जगत नारायण के लिए कोशिश कर रहे थे कांग्रेसियों के कुछ वोट उन्हें जरूर पड़े हैं।’’ लाला जी की विजय स. कैरों की राजनीतिक प्रतिष्ठा के लिए बहुत बड़ा आघात थी। वैसे तो लाला जी हर चुनौती स्वीकार करते थे परंतु संकटकाल में उनके व्यक्तित्व का सर्वश्रेष्ठï भाग स्वयं ही प्रकट हो जाता था। पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ भले ही लाला जी के नीतिगत मतभेद रहे हों परंतु नेहरू जी भी लाला जी की क्षमता, प्रतिभा तथा प्रभाव को भली-भांति समझते थे और राज्यसभा के सदस्य निर्वाचित होने के बाद लाला जी ने नेहरू जी की प्रशंसा करते हुए लिखा था कि: 

‘‘राज्यसभा का सदस्य चुने जाने के बाद मैं शपथ लेकर जब लॉबी में पहुंचा तो पं. नेहरू वहां आ गए। विरोधी दलों के सदस्य मुझे बधाई दे रहे थे और उस समय उन्होंने मुझसे कहा, ‘लाला जी हमने तो भरसक कोशिश की कि आप यहां तक न पहुंच सकें  परंतु आप जीत कर यहां आ ही गए। यह महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसके लिए मैं आपको बधाई देता हूं। हमारी नीति के अनुरूप कोई भी कार्य हो तो मुझे बताएं’।’’ पंडित नेहरू ने यह बात 40 सांसदों के सामने कही थी। उनके इन्हीं गुणों से लाला जी प्रभावित थे। उन्होंने जब कभी भी पंडित नेहरू को पत्र लिखा पंडित जी ने लाला जी को उत्तर अवश्य दिया। 

लाला जी 1964 से 1970 तक संसद सदस्य के रूप में सिद्धांतपूर्ण राजनीति के ध्वजारोही रहे जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है और उनकी विजय इस बात का प्रमाण है कि बेशक किसी भी दल से जुड़ाव का अपना लाभ होता है परंतु व्यक्ति की प्रतिष्ठा और उसके सिद्धांत भी उसकी मदद करते हैं। इसी कारण वह पंडित नेहरू जैसे अपने प्रखर आलोचक को भी अपना प्रशंसक बनाने में सफल हुए। —विजय कुमार  

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