अदालती केसों के जल्द निपटारे के लिए न्यायमूर्ति ठाकुर के सही सुझाव

Edited By ,Updated: 26 Apr, 2016 01:21 AM

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आज जबकि भारतीय लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका लगभग निष्क्रिय हैं, मात्र न्यायपालिका और मीडिया ही आम जनता की आवाज सरकार तक पहुंचा रहे हैं

आज जबकि भारतीय लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भों में से कार्यपालिका और विधायिका लगभग निष्क्रिय हैं, मात्र न्यायपालिका और मीडिया ही आम जनता की आवाज सरकार तक पहुंचा रहे हैं परंतु बढ़ रहे लम्बित मामलों से आम आदमी को न्याय मिलने में विलम्ब हो रहा है। कई बार तो संबंधित व्यक्ति फैसले के इंतजार में ही संसार से विदा हो जाता है। 

 
जजों की नियुक्ति में देरी व बड़ी संख्या में रिक्तियों के कारण अदालतें भारी कठिनाई की शिकार हैं। देश में 1987 में प्रति 10 लाख पर 10 जज थे। आज भी इनकी संख्या यही है जबकि आस्ट्रेलिया में प्रति 10 लाख पर 41, इंगलैंड में 50,  कनाडा में 75 और अमरीका में 107 जज हैं।
 
सुप्रीमकोर्ट में 31 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या के मुकाबले में 25, हाईकोर्टों में 1016 के मुकाबले में 582 और निचली अदालतों में 20,495 के स्थान पर 15,500 न्यायाधीश ही हैं। सुप्रीमकोर्ट में इस समय 59,900, हाईकोर्टों में 38.68 लाख तथा निचली अदालतों में 3 करोड़ केस लंबित हैं।   
 
सुप्रीमकोर्ट के 2001 के एक फैसले के अनुसार ‘‘हाईकोर्ट किसी मामले में अपना फैसला 3 महीनों से अधिक तक सुरक्षित नहीं रख सकते और इससे अधिक अवधि तक फैसला रोकने पर आवेदक अपना केस किसी नई पीठ के सुपुर्द करने संबंधी अपील करने के लिए स्वतंत्र है।’’ 
 
इसी कारण न्यायालयों में लम्बित मामलों को शीघ्र निपटाने की आवश्यकता है लेकिन ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक रिक्त पड़े न्यायाधीशों के स्थान न भरे जाएं और मान्य न्यायाधीश फैसला लटकाने की प्रवृत्ति छोड़ न देें। 
 
अभी तो स्थिति ऐसी है कि यदि अदालतें सातों दिन 24 घंटे चलें तब भी इस बोझ से मुक्ति पाना कठिन है। इसी लिए सुप्रीमकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री टी.एस. ठाकुर ने 22 अप्रैल को एक समारोह में लम्बित अदालती केसों के निपटारे के लिए सांध्य अदालतों का सिलसिला बहाल करने की आवश्यकता जताते हुए कहा था कि ‘‘बकाया केसों के बोझ से अदालतों को मुक्त करना आवश्यक है। सांध्य अदालतें इस दिशा में एक कदम सिद्ध हो सकती हैं।’’
 
और अब 24 अप्रैल को नई दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों के संयुक्त सम्मेलन में बोलते हुए न्यायमूर्ति ठाकुर अत्यंत भावुक हो गए और उन्होंने अदालतों में जजों की संख्या बढ़ाने की मांग पर बल देते हुए रुंधे स्वर में कहा :
 
‘‘मुकद्दमों की भारी संख्या संभालने के लिए जजों की संख्या मौजूदा 21,000 से 40,000 करने की दिशा में कार्यकारिणी कोई कार्रवाई नहीं कर रही जबकि देश के विकास के लिए जजों की संख्या बढ़ाना आवश्यक है। न्यायपालिका का बोझ कम किए बिना ‘प्रधानमंत्री का मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता।’’
 
उन्होंने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री इस स्थिति को समझें व महसूस करें कि कुछ भी नहीं हिल रहा.... (जजों की संख्या में वृद्धि बारे) सरकार की निष्क्रियता आड़े आती है... (3.8 करोड़ लंबित मुकद्दमों के संबंध में) केवल आलोचना करना ही काफी नहीं है क्योंकि सारा बोझ न्यायपालिका पर नहीं डाला जा सकता।’’ 
 
श्री मोदी ने श्री ठाकुर को पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया और इसी अवसर पर लंबित मामलों की बढ़ती संख्या से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों को तदर्थ न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त करने का संवैधानिक प्रावधान लागू करने का प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया जिसकी हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों को अनुमति देने के लिए अनुच्छेद 224 ए लागू किया जाएगा।
 
उक्त सम्मेलन में न्यायमूर्ति श्री ठाकुर के व्यक्तित्व का भावनात्मक पहलू देखने को मिला जिसके बारे में स्वयं उनका कहना है कि ‘‘यह मेरी कमजोरी है’’ परंतु संवेदनशीलता व्यक्ति की चिंता को भी दर्शाती है। जब कोई व्यक्ति अपने जीवन को व्यावसायिक दृष्टि से देखे और महसूस करे कि वह अपनी इच्छानुरूप अपेक्षित बदलाव नहीं ला पा रहा तो स्वयं को निराश महसूस करता है। 
 
परंतु श्री ठाकुर ने अपना संवेदनशील मन ही नहीं बल्कि जन कल्याण और देश के विकास के प्रति अपनी चिंता की भावना दर्शा कर न्यायपालिका को दरपेश समस्याओं से पैदा होने वाली समस्याओं की ओर इंगित किया है कि देश में सांध्यकालीन अदालतों की बहाली, न्यायपालिका में न्यायाधीशों की कमी पूरी करने के लिए अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा नियमित न्यायाधीशों की भर्ती प्रक्रिया तेज करने की दिशा में सरकार को तुरंत पग उठाने की कितनी अधिक आवश्यकता है!

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