Edited By ,Updated: 21 Apr, 2017 10:22 PM
हमारे देश में बुजुर्गों के प्रति उनकी अपनीे ही संतानों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ा है और आज बुजुर्गों की बड़ी संख्या अपनी ही ...
हमारे देश में बुजुर्गों के प्रति उनकी अपनीे ही संतानों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार पिछले कुछ दशकों में तेजी से बढ़ा है और आज बुजुर्गों की बड़ी संख्या अपनी ही संतानों के हाथों तिरस्कार और प्रताडऩा झेल रही है। बुजुर्गों से उनकी जमीन-जायदाद ‘छीन’ लेने के बाद तो बच्चों और अन्य नाते-रिश्तेदारों का उनके साथ दुव्र्यवहार अधिक बढ़ जाता है तथा इनकी आॢथक और सेहत संबंधी हालत पहले से भी दयनीय हो जाती है।
कुछ समय पूर्व देश भर से 5000 बुजुर्गों की आपबीती सुन कर ‘ह्यूमन राइट्स आफ एल्डरली इन इंडिया-ए क्रिटिकल रिफ्लैक्शन आन सोशल डिवैल्पमैंट’ शीर्षक से रिपोर्ट में बताया गया कि ‘‘हमारे यहां 90 प्रतिशत बुजुर्गों को अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए भी परिवार के सदस्यों से पैसे मांगने पर दुव्र्यवहार और अपमान का शिकार होना पड़ता है।’’
इसी को देख कर पूज्य पिता लाला जगत नारायण जी ने ‘जीवन की संध्या’ शीर्षक से एक लम्बी लेखमाला में संतानों द्वारा उत्पीड़ित बुजुर्गों की दयनीय स्थिति की तस्वीर पेश की थी तथा उनकी प्रेरणा से देश में विभिन्न संस्थाओं ने अनेक वृद्धाश्रम खोले जहां आज भी बड़ी संख्या में संतानों द्वारा उपेक्षित बुजुर्गों को आश्रय मिला हुआ है।
अक्सर मेरे पास भी संतानों द्वारा उपेक्षित और दुखी बुजुर्ग माता-पिता आते रहते हैं। मैंने ऐसी ही दो दुखी बहनों की व्यथा कथा 31 मार्च को इन कालमों में पेश की थी और आज मैं 73 वर्षीय बुजुर्ग श्री नंद लाल (बदला हुआ नाम) की गाथा से पाठकों को रू-ब-रू करवा रहा हूं।
अपनी एक बेटी और तीन बेटों को इन्होंने बड़े अरमानों के साथ पाल-पोसकर और पढ़ा-लिखा कर योग्य बनाया। सब सुविधाएं दिलवाईं। कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने दी लेकिन बुढ़ापे में जब इन्हें अपनी संतान के सहारे की जरूरत पड़ी तो सबने इनसे मुंह फेर लिया। इनकी हंसती-खेलती जिंदगी में दुखों का पहला झोंका उस समय आया जब आतंकवाद के काले दौर में इनका सब कुछ लुट गया और फिर अपनी पत्नी के भी देहांत के बाद ये पूर्णत: अकेले और बच्चों पर आश्रित हो गए।
नंद लाल जी को जीवन में तीसरा घाव उस समय मिला जब इनकी संतानों ने इनकी सम्पत्ति और जमीन-जायदाद आदि अपने नाम करवा लेने के बाद इन्हें इनके हाल पर बेसहारा छोड़ दिया। अब इनके बेटे न इन्हें खर्च देते हैं और न ही इज्जत से रोटी। उन्हें मात्र 20-25 रुपए के दैनिक जेब खर्च के लिए भी अपने बच्चों के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं और उसमें भी कई बार निराशा ही हाथ लगती है।
कहने को तो इनके छोटे बेटे ने इन्हें अपने साथ रखा हुआ है परंतु वह भी रोज किसी न किसी बात पर इनकी बेइज्जती करता है। नंद लाल जी ने बताया कि बेटे, बहू और पोते-पोतियों से उन्हें रोटी कम और गालियां ज्यादा खाने को मिलती हैं और रोटी भी उन्हें किसी निश्चित समय पर नहीं, जब बहू के मन में रहम आ जाए तब मिलती है।
आज भी जब उन्होंने बहू से नाश्ता मांगा तो बहू ने सबसे पहले उन्हें अपशब्द कहे और उसके बाद ही खाने को कुछ दिया। यह कोई एक दिन की बात नहीं रोज का किस्सा है। लगभग 10 मास पूर्व जालंधर के एक वरिष्ठï भाजपा नेता ने उनसे बुढ़ापा पैंंशन के फार्म भरवाए थे परंतु अभी तक उनकी पैंशन लगी नहीं ।
श्री नंद लाल जी को दिखाई भी कम देता है और उनके पास नजर की ऐनक भी नहीं है। जाते-जाते उन्होंने कहा कि बिना किसी सहारे के चलने-फिरने में उन्हें असुविधा होती है, इसलिए मैं अपने किसी कर्मचारी से कह कर उन्हें घर से बाहर तक छुड़वा दूं। अपनी गाथा सुनाते हुए वह इतने भावुक हो उठे कि उनके हृदय की पीड़ा आंसू बन कर उनकी आंखों के रास्ते बह निकली।
जीवन साथी की अनुपस्थिति में तीन-तीन बेटों और बेटी के होते हुए वह अकेलेपन, अपमान और भूख का संताप झेलने के लिए विवश हैं और यह किसी एक नंद लाल की कहानी नहीं, ऐसे न जाने कितने बुजुर्ग अपनी संतान के हाथों उत्पीडऩ का संताप झेल रहे हैं। जैसा कि मैं पहले भी लिखता रहा हूं कि हमारे लिए यह महसूस करना बहुत जरूरी है कि एक दिन हम भी बूढ़े होंगे और तब हमारे साथ हमारे बच्चे भी वैसा ही व्यवहार करेंगे जो हम अपने बुजुर्गों से कर रहे हैं। अत: जितनी जल्दी हम अपने भीतर बुजुर्गों के सम्मान के संस्कार पैदा कर लेंगे उतना ही अच्छा होगा। —विजय कुमार