‘जीरो असहिष्णुता’ के साथ-साथ पुलिस सुधार को यकीनी बनाने की जरूरत

Edited By ,Updated: 28 Nov, 2015 12:04 AM

zero intolerance as well as the need to ensure the police reform

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं, ‘‘हमें आतंक को मजहब से अलग करना होगा।’’ सैद्धांतिक रूप में उनका यह कहना सही है...

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं, ‘‘हमें आतंक को मजहब से अलग करना होगा।’’ सैद्धांतिक रूप में उनका यह कहना सही है। उनका यह अवलोकन भी पूरी तरह सटीक है कि आतंकवाद ‘‘मानवता के विरुद्ध एक अपराध है।’’ फिर भी उन्होंने कुआलालम्पुर में गत दिनों हुई ‘आसियान’ बैठक में इस विषय पर कोई प्रकाश नहीं डाला कि मजहब की राजनीति को वर्तमान दौर में ‘खलीफा’ अबु बकर अल-बगदादी  के आई.एस.आई.एस. और इससे पूर्व ओसामा बिन लादेन के नेतृत्व वाले तालिबान व अलकायदा एवं इसके विभिन्न सहयोगियों द्वारा निष्पादित हाईटैक आतंकवाद से किस प्रकार अलग किया जाए। 

वर्ष 2000 से लेकर अब तक वैश्विक स्तर पर लगभग 1.7 लाख लोगों ने आतंकी हमलों में अपनी जान गंवाई है। भारत ने भी आई.एस.आई. प्रायोजित आतंकी गुटों के हाथों 90 के दशक में जम्मू-कश्मीर तथा देश के अन्य कई भागों में कष्ट भोगे हैं। पैरिस में 13/11 को हुए आई.एस.आई.एस. के हमले ने पूरी दुनिया को झकझोर कर बिल्कुल सही किया है। क्योंकि इस घटना के बाद दुनिया के सभी देशों में एक बार फिर उस अतामान खिलाफत (तुर्की स्थित खलीफा का साम्राज्य) के बारे में आशंकाएं जाग उठी हैं जो सम्पूर्ण यूरोप पर विजय पताका फहराने के करीब पहुंच गया था। अब सभी देश इस समस्या की गंभीरता को भी समझने लगे हैं। 
 
स्पष्ट है कि आई.एस.आई.एस. इस प्राचीन इस्लामी सल्तनत के बारे में फिर से सपने जगाने की इच्छा रखता है और ऐसा करने के लिए ही वह जघन्य कार्रवाइयां कर रहा है, जिनको अनुचित रूप में इस्लाम के नाम पर जायज ठहराया जा रहा है। इन नृशंस आतंकी कार्रवाइयों के उत्तर में न केवल वैश्विक महाशक्तियों अमरीका और रूस बल्कि फ्रांस ने भी आई.एस. आई.एस. पर लक्ष्य साधकर जवाबी हवाई हमले किए हैं। 
 
जहां पश्चिमी देश अपने ‘युद्ध’ की धार आई.एस.आई.एस. मार्का घातक आतंक के विरुद्ध लक्षित किए हुए हैं, वहीं भारत में हमें अपनी अव्यवस्थित घरेलू स्थिति सुधारने के लिए सभी मोर्चों पर तैयारी कसनी होगी। मैं केवल इसलिए यह सुझाव दे रहा हूं कि आतंकवाद से निपटने में जितना महत्व आंतरिक गवर्नैंस का है, उतना ही देश के अंदर और सीमा के पार आई.एस.आई.एस. के प्रति हमदर्दी रखने वाले और आतंकवाद के प्रति हमदर्दी रखने वाले हमारे पड़ोसी देश की आई.एस.आई. द्वारा प्रायोजित जेहादी आतंकियों को निष्प्रभावी करने का है। 
 
क्योंकि आई.एस.आई. मवाली किस्म के मुस्लिम तत्वों को इस्लाम की गलत व्याख्या के आधार पर शह  व सहायता देने के प्रयासों से बाज नहीं आती। आई.एस.आई. की गतिविधियां भारतीय राजनीतिक तंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा हैं, खास तौर पर इस नवीनतम रिपोर्ट के मद्देनजर कि सऊदी अरब के वहाबी समुदाय की कट्टर विचारधारा से प्रभावित आई.एस.आई.एस. के आतंकियों एवं इसी वहाबी विचारधारा से प्रभावित आई.एस.आई. के अफसरों के बीच घनिष्ठ संबंध हैं और वे आपस में गोपनीय सूचनाएं सांझा करते रहते हैं। भारतीय अधिकारियों को हर हालत में इस रिपोर्ट को गंभीरता से लेना होगा। 
 
वैसे आतंकवाद किसी भौगोलिक सीमा में नहीं बंधा होता और न ही धर्म ग्रंथों की गलत व्याख्या से ही इसकी पुष्टि की जा सकती है। लेकिन इस प्रक्रिया में इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि मुस्लिम मजहबी ग्रंथों की गलत व्याख्या के आधार पर ही आतंकी गुट दूसरे देशों के मामलों में दखल देना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। न्यूयार्क के विश्व व्यापार केन्द्र पर 9/11 को हुआ हमला ऐसा ही एक प्रयास है। जम्मू-कश्मीर में हुई आतंकवादी वारदातें और मुम्बई में 26/11 का आतंकी हमला तथा हाल ही में बैल्जियम में सक्रिय आई.एस.आई.एस. आतंकियों द्वारा पैरिस में किए गए हमले इसी कोटि में आते हैं। 
 
वास्तव में मजहब के आधार पर दूसरे देशों में दखल देते हुए आतंकियों द्वारा जो छद्मयुद्ध लड़ा जा रहा है, इसके बारे में वैश्विक नेताओं ने कभी गंभीरता से चर्चा नहीं की। इसी दौरान उन्होंने आतंकवाद की कार्यशैली पर ही ध्यान केन्द्रित किए रखा है। जिस प्रकार इस्लामाबाद अनेक वर्षों से आतंकवाद को प्रशासकीय नीति के रूप में अपनाए हुए है, सभ्य जगत आतंकवाद को उस रूप में स्वीकार नहीं कर सकता। फिर भी पश्चिमी देशों ने भारत द्वारा बार-बार किए गए इन अनुरोधों के प्रति उदासीनता दिखाई कि पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जाए। 
जब खुद भारत में 12 करोड़ से अधिक मुस्लिम रहते हैं, तो यह देश अपने मामलों में किसी भी इस्लामी मूलवादी संगठन को हस्तक्षेप करने वाली भूमिका की अनुमति नहीं दे सकता  और न ही किसी हालत में ऐसी अनुमति दी जानी चाहिए। वैसे अन्य किसी देश को भी आतंकी संगठनों को ऐसी अनुमति नहीं देनी चाहिए। मेरा मानना है कि वर्तमान विश्व को दरपेश यही वास्तविक मुद्दा है और भावनाओं को एक तरफ फैंकते हुए इस मुद्दे से निपटना होगा। यह भी ध्यान रहे कि आतंक विरोधी लक्ष्य की साधना के लिए कोई छोटा और सरल रास्ता नहीं है। यह एक लम्बी ङ्क्षखचने वाली लड़ाई है, जिसका निर्णय जमीनी लड़ाई द्वारा भी होगा और विचारों की लड़ाई द्वारा भी। 
 
वैसे दुनिया भर के अलग-अलग समुदायों में नई और पुरानी अनेक समस्याओं ने सिर उठा रखा है, जिनके चलते अनगिनत मानसिक एवं मनोवैज्ञानिक अवरोध सृजित हो गए हैं। भारत में यदि हम सचमुच किसी उद्देश्य को हासिल करना चाहते हैं तो हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पैदा हुए इन अवरोधों को तोडऩा होगा। यह भारी-भरकम काम है, जो सभी स्तरों पर वार्तालाप की प्रक्रिया चलाए बिना अंजाम नहीं दिया जा सकता। इस मामले में सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि जिन मुद्दों पर असंतोष पैदा हुआ है और इसके फलस्वरूप जेहादियों का प्रचार महिलाओं और पुरुषों की भारी संख्या को आकर्षक लगने लगा है तथा वर्तमान व्यवस्था के अंदर ‘नफरत को समॢपत शक्तियों’  के दुर्ग स्थापित हो गए हैं, उन मुद्दों की गहरी समझ हासिल की जाए। 
 
हमारा दुर्भाग्य है कि क्या, कहां और क्यों गलत है, इसके बारे में सत्ता के मद में चूर लोगों द्वारा कोई संज्ञान नहीं लिया जाता है। इतनी ही चिन्ता वाली बात यह भी है कि हमारे संगठन भी किसी ‘विचारधारा’ के लिए लड़ाई नहीं लड़ रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मैं जमीनी हकीकतों की उचित समझदारी को रेखांकित करता हूं। साथ ही मेरा यह मानना है कि वक्त की कसौटियों पर खरे उतर चुके हमारे लोकतांत्रिक प्रतिमानों पर आधारित विचारों के बूते दरपेश चुनौती पर जवाबी हल्ला बोलने के लिए तत्काल कदम उठाया जाना महत्वपूर्ण है। यह काम मानवीय संवेदना की भावना से होना चाहिए। हम ऐसा लोकतांत्रिक देश हैं, जिसका व्यापक उदारवादी दृष्टिकोण है, जिसको सहिष्णुता, आपसी समझदारी एवं सभी पंथों व मजहबों के प्रति सम्मान की हमारी परम्परा ने पोषित किया है। 
 
फिर भी भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में गंभीर चिन्ता का विषय यह है-जैसा कि सुल्तान शाहीन जैसे प्रबुद्ध व्यक्ति ने हाल ही में गोवा में आयोजित ‘इंडिया आइडियाज’ नामक मंथन शिविर में प्रतिपादित किया था-कि सऊदी अरब द्वारा किए जा रहे वित्त पोषण के बूते इस्लाम की वहाबी/ सलाफी सम्प्रदायों के अनुसार व्याख्या। हमारे समाज में मुस्लिमों के लिए न्यायोचित एवं शांतिपूर्ण स्थान तथा बराबर के अवसरों को सुनिश्चित करने के साथ-साथ हमें निष्पक्ष और बढिय़ा गवर्नैंस भी यकीनी बनानी होगी। ऐसा करने के लिए हमें भारत को दरपेश वहाबी विचारधारा एवं आई.एस. आई.एस. का विरोध करने वाले अपने विचारों को ठोस रूप देने की जरूरत है। 
 
यहां मैं  ‘‘भारत को जेहादी चुनौती’’ के लेखक तुफैल अहमद के निष्कर्ष प्रस्तुत करना चाहूंगा, जिन्होंने गोवा चिन्तन शिविर में भी कुछ ठोस सुझाव प्रस्तुत किए थे। उन्होंने कहा, ‘‘बच्चे के जीवन में 6 से 14 वर्ष तक की आयु बहुत ही महत्वपूर्ण होती है और इसी दौरान उनके अगले जीवन की धारा तय होती है। मदरसों के संचालक इसी आयु के बच्चों को अपने चंगुल में फंसाते हैं। यही वह आयु है, जिस दौरान बच्चों को ‘शिक्षा का अधिकार’ की बदौलत मदरसों के मूलवादियों से बचाया जाना चाहिए।’’ 
 
उन्होंने कहा, ‘‘कारागृह के वासियों वाली मानसिकता’’ को दूर भगाने के लिए ‘‘भारत को हर हालत में ‘जीरो असहिष्णुता’  सुनिश्चित करने के साथ-साथ पुलिस सुधार भी यकीनी बनाने होंगे।’’ तुफैल अहमद ने यह भी सुझाव दिया था कि ‘‘हमें मजहब और जाति से ऊपर उठकर सभी बी.पी.एल. कार्डधारकों के बच्चों को मुफ्त पुस्तकों, मुफ्त कपड़ों और मुफ्त शिक्षा की राष्ट्रीय नीति विकसित करते हुए हर हालत में कोटा प्रणाली की राजनीति को अप्रासंगिक बनाना होगा।’’ तुफैल अहमद के विचार सचमुच समझदारी भरे हैं। क्या कोई इन विचारों पर अमल करेगा?
 

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