अपने विचारों के लिए मौत को गले लगाने वाले 5 बुद्धिजीवी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 08 Oct, 2017 01:15 AM

5 intellectuals who embrace death for their thoughts

जोन आफ आर्क को खम्बे से बांध कर जला दिया गया, सुकरात को जहर पीने पर मजबूर किया गया। सर टॉमस मोर का सिर कलम ...

जोन आफ आर्क को खम्बे से बांध कर जला दिया गया, सुकरात को जहर पीने पर मजबूर किया गया। सर टॉमस मोर का सिर कलम कर दिया गया। तीनों को ही अपने विचारों की कीमत अपनी जिंदगी से चुकानी पड़ी। 

हाल ही के समय में भारत में हुई इसी प्रकार की 5 बुद्धिजीवियों की हत्याओं ने लोगों की अंतर्रात्मा को झकझोर दिया है। मीडिया इस बात पर फोकस बना रहा है कि हर मामले में हत्यारा कौन था। संबंधित राज्यों की पुलिस हत्यारे (या हत्यारों) की तलाश कर रही है। कुछ गिरफ्तारियां की गई हैं लेकिन कोई भी मामला हल होता दिखाई नहीं दे रहा। मीडिया और पुलिस दोनों ही हत्यारों पर फोकस बनाने के मामले में सही है लेकिन मेरा दृष्टिकोण कुछ अलग है। मेरे विचार अनुसार यह बात महत्वपूर्ण है कि लोग यह सवाल पूछें कि मारा जाने वाला कौन था? हम इन पांचों व्यक्तियों में से प्रत्येक के नाम, जीवन और कृतत्व के बारे में जानते हैं लेकिन उनकी हत्याओं का सही अर्थ केवल तब ही लगाया जा सकता है यदि हम सम्पूर्ण जानकारी को एक निश्चित चौखटे या परिप्रेक्ष्य में रखकर देखें। 

नरेन्द्र दाभोलकर (1945-2013)
नरेन्द्र दाभोलकर एक चिकित्सक थे। उनके बारे में बहुत कम लोग यह जानते हैं कि वह बंगलादेश के विरुद्ध खेलने वाली भारतीय कबड्डी टीम के भी सदस्य रहे थे। उनके निंदकों को सबसे अधिक तंग करने वाला तथ्य यह था कि वह महाराष्ट्र में अंधविश्वास के विरुद्ध संघर्ष करने वाले एक एक्टिविस्ट और सबसे प्रमुख तर्कवादी थे। दाभोलकर ने एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखने के साथ-साथ 16 वर्षों तक एक साप्ताहिक पत्रिका का सम्पादन भी किया था। उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की स्थापना की थी और 10 हजार से अधिक अध्यापकों को यह प्रशिक्षण दिया था कि अंधविश्वास के विरुद्ध कैसे लडऩा है तथा विद्यार्थियों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति का पोषण कैसे करना है? कई वर्ष पूर्व उन्होंने अंधविश्वास एवं काला जादू विरोधी विधेयक का मसौदा तैयार किया था। भाग्य की विडम्बना ही कहिए कि इस मसौदे के आधार पर महाराष्ट्र सरकार ने एक अध्यादेश दाभोलकर की 20 अगस्त 2013 को हत्या के चार दिन बाद ही लागू कर दिया था। 

गोबिंद पंसारे (1933-2015)
गोबिंद पंसारे आजीवन कम्युनिस्ट रहे थे। उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था और वह अखबार विक्रेता एवं नगर पालिका चपड़ासी जैसे बहुत कम वेतन वाले काम करते-करते वकील बन गए और उन्होंने श्रमिक कानून के विशेषज्ञ के रूप में वकालत शुरू कर दी। वह एक जाने-माने लेखक थे जिन्होंने मराठी भाषा में एक पुस्तक लिखी थी ‘‘शिवाजी कौन थे?’’ वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रदेश सचिव थे और उन्होंने श्रमिक नागरी सहकारी  पट संस्था नामक एक सहकारी बैंक की भी स्थापना की थी। वह अंतर-जातीय या अंतर-मजहबी शादियां रचाने वाले दम्पतियों के लिए एक केन्द्र का भी संचालन करते थे और इसके कारण उन्हें जबरदस्त आलोचना का सामना करना पड़ा था। 

एम.एम. कालबुर्गी (1938-2015)
एम.एम. कालबुर्गी एक जाने-माने प्रोफैसर, हांपी स्थित कन्नड़ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति, भारी संख्या में पुस्तकों के लेखक एवं 2006 के साहित्य अकादमी पुरस्कार के विजेता थे। उन्होंने हिंदू धर्म में प्रचलित मूर्ति पूजा तथा अंधश्रद्धा के विरुद्ध न केवल कलम चलाई बल्कि सक्रियता से इसके विरुद्ध बोलते रहे जिस कारण  दक्षिण पंथी समूह उन पर क्रुद्ध हो गए। उनके तथा यू.आर. अनंत मूॢत के विरुद्ध 2015 में ‘‘धार्मिक भावनाएं भड़काने’’ के आरोप में मामला दायर करवाया गया था। उल्लेखनीय है कि जिस पुस्तक पर यह आरोप लगा था वह 18 वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई थी। 

गौरी लंकेश (1962-2017)
गौरी लंकेश अपने खुद के शब्दोंं में एक वामपंथी थीं जो वामपंथी आदशों के समर्थन में धुआंधार ढंग से सक्रिय रहती थीं। यहां तक कि वह नक्सल समर्थक उद्देश्यों के लिए भी कोई कम सक्रियता नहीं दिखाती थीं। उन्होंने मुख्य धारा में लौटने की इच्छा रखने वाले नक्सलवादी काडरों के पुनर्वास में सहायता की थी। गौरी एक ऐसी टेबलॉयड पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन करती थीं जो व्यवस्था की विरोधी और गरीबों व दलितों की समर्थक थी। गौरी दक्षिण पंथियों और हिंदुत्व की नीतियों की कूट आलोचक थीं। अपनी हत्या के पहले से कुछ महीनों दौरान उन्होंने जाली खबरों के विरुद्ध अभियान चलाया हुआ था। हालांकि उन्हें जान से मारने की धमकियां पहले ही मिल रही थीं तो भी उन्होंने इनसे भयभीत होकर दुबकने की बजाय अंतिम सांस तक संघर्ष जारी रखा। 

शांतनु भौमिक (1989-2017) 
शांतनु भौमिक अगरतला से प्रसारण करने वाले एक टी.वी. चैनल के युवा रिपोर्टर थे और उन्हें मात्र 6 हजार रुपए महीना वेतन मिलता था। उन्हें एक दिलेर पत्रकार के रूप में याद किया जाता है जो किसी भी घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचने के लिए प्रयासरत रहता था। ताकि ऐन मौके पर जाकर घटना की सजीव रिपोॄटग कर सके। शांतनु ‘मानविक’ (बंगाली में मानोविक) नामक एक छोटा-सा नर्सरी स्कूल भी अपने घर में ही चलाते थे। उनकी अंतिम असाइनमैंट त्रिपुरा के आदिवासी जनमोर्चा द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन की कवरेज करना था। 

उपरोक्त सभी व्यक्तियों में से कोई भी वैसा धनाढ्य व्यक्ति नहीं था जो सामान्य तौर पर गरीब लोगों का शोषण करता है। किसी का भी कोई राजनीतिक दबदबा नहीं था और न ही उनमें से कोई राजनीतिक शक्ति अर्जित करना चाहता था। हत्या के समय किसी के पास भी कोई महत्वपूर्ण पदाधिकार नहीं था। किसी की भी हिंसा में आस्था नहीं थी। इनमें से तीन लोग तो वृद्ध थे और एक अधेड़ आयु का जबकि पांचवां अभी युवा था। 

पांचों में से हर कोई अच्छा पढ़ा-लिखा था और विचारों और चर्चाओं की दुनिया में उसे अच्छी-खासी निपुणता हासिल थी। विचारों से सामान्यत: किसी को कोई खतरा नहीं होना चाहिए लेकिन इन लोगों के विचारों से स्पष्ट रूप में कुछ लोग भयभीत थे। कुछ लोग ऐेसे होते हैं जो विचारों से डरते हैं, अपने तथा अपने प्रतिद्वंद्वियों के विचारों पर कोई तर्कपूर्ण चर्चा नहीं चाहते। मैं यह सोचकर हैरान होता हूं कि अंधश्रद्धा निर्मूलन, मूर्ति पूजा विरोध एवं वैज्ञानिक प्रवृत्ति जैसे विचारों का कोई इतना कट्टरविरोधी भी हो सकता है कि हत्या करने तक चला जाए! समाज में होने वाली कुछ अंतरजातीय एवं अंतर मजहबी शादियों से भी क्या किसी का गुस्सा भड़क सकता है? एक प्रतिबद्ध वामपंथी के विरुद्ध कौन आपे से बाहर हो सकता है जबकि हजारों लोग छाती ठोंककर खुद को कम्युनिस्ट कहते हैं? आखिर एक आदिवासी समूह के आंदोलन की कवरेज कर रहे युवा और साहसी पत्रकार से किसी का क्या बैर हो सकता है? 

जिस व्यक्ति या जिन व्यक्तियों ने सम्भवत: ये घृणित हत्याएं अंजाम दी होंगी उनकी तस्वीर की परिकल्पना करना कठिन नहीं है। यह लगभग पूरे दावे से कहा जा सकता है कि वे दक्षिण पंथी गुटों से संबंध रखते हैं। वह इतनी गहराई तक परम्परावादी हैं कि प्रतिक्रियावादी बनने की हद तक चले गए हैं। वे उन विचारों पर भड़क उठते हैं जो उनके खुद के विचारों को चुनौती देते हों। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं भारत की विभिन्नता पर सवाल उठाते हैं। वे असहिष्णु हैं और नफरत का प्रसार करते हैं। जब वे अपने जैसे लोगों के बीच होते हैं तो उन्हें और भी दिलेरी मिलती है तथा वह हिंसा करने तथा यहां तक कि हत्या करने की सीमा तक चले जाते हैं। 

जांच एजैंसियों को हत्या करने वाले लोगों के हुलिए के साथ-साथ हत्या के शिकार लोगों की प्रोफाइल से भी मार्गदर्शन लेना चाहिए था। चार मामलों में तो मुख्य संदिग्ध लोगों के नाम लगभग एक जैसे हैं और कुछेक को भगौड़े घोषित किया गया है। इसी बीच घृणा और भय फैलता जा रहा है और हम दुख और शर्म से अपने मुंह छिपा रहे हैं। 

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