पूर्वोत्तर भारत को ‘खोखले वायदों’ नहीं, ‘कार्रवाई की जरूरत’

Edited By ,Updated: 29 Aug, 2015 12:52 AM

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प्रधानमंत्री द्वारा 3 अगस्त को किया गया नागा समझौता इस तथ्य को रेखांकित करता है कि सरकार लंबे समय से लटकी आ रही समस्याओं और देश को दरपेश मुद्दों का शांतिपूर्ण हल करने की इच्छा रखती है

(हरि जय सिंह): प्रधानमंत्री द्वारा 3 अगस्त को किया गया नागा समझौता इस तथ्य को रेखांकित करता है कि सरकार लंबे समय से लटकी आ रही समस्याओं और देश को दरपेश मुद्दों का शांतिपूर्ण हल करने की इच्छा रखती है। ‘ग्रामीण एवं औद्योगिक विकास शोध केन्द्र’ (सी.आर.आर.आई.डी.) पूर्वोत्तर राज्यों को दरपेश बृहत्तर मुद्दों को गत काफी समय से भारत की ‘लुक ईस्ट’ नीति के अन्तर्गत संबोधित कर रहा था। इस शांतिपूर्ण नीति को अब एक नया आयाम हासिल हो गया है क्योंकि अब यह ‘लुक ईस्ट’ से बढ़कर ‘एक्ट ईस्ट’ का रूप ग्रहण कर चुकी है। 
 
इसी दृष्टिकोण को मद्देनजर रखते हुए हाल ही में मणिपुर यूनिवर्सिटी, इम्फाल के शताब्दी हाल में एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया था जिसमें म्यांमार, वियतनाम, नेपाल, भूटान, मालदीव, थाईलैंड सहित भारत भर के अकादमिशन शामिल हुए थे। इस कार्यक्रम को विदेश मामलों के मंत्रालय का समर्थन हासिल था। 
 
इस सम्मेलन में प्रकांड विशेषज्ञ और धुरंधर एकत्रित हुए थे, जिन्होंने दक्षिण-पूर्वी एशिया को प्रभावित करने वाले जल प्रबंधन, ऊर्जा, पारदेशीय नदी जल बंटवारे, सीमा व्यापार, सांस्कृतिक कनैक्टीविटी, सामरिक भागीदारी और भू राजनीति जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचार मंथन किया था। 
 
इस सम्मेलन का श्रीगणेश मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह ने किया और प्रो. ब्रह्म चेलानी ने कुंजीवत भाषण प्रस्तुत किया। मणिपुर गोष्ठी की उल्लेखनीय बात यह थी कि वाजपेयी सरकार में मानव संसाधन मंत्री रह चुके भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रो. मुरली मनोहर जोशी जैसे प्रकांड विद्वान ने अपनी आभापूर्ण उपस्थिति दर्ज करवाई थी। 
 
इस पूरे कार्यक्रम के रूहे-रवां सी.आर.आर.आई.डी. के कार्यकारी उपाध्यक्ष रछपाल मल्होत्रा थे, जिनको चंडीगढ़ में तैनात सी.आर.आर.आई.डी. के महानिदेशक प्रो. सुच्चा सिंह गिल और मणिपुर यूनिवर्सिटी के उपकुलपति प्रो. एच. नंद कुमार सर्मा का सुयोग्य सहयोग हासिल था। अपने समापन संबोधन में मणिपुर के राज्यपाल सैय्यद अहमद ने सम्मेलन की भावना को इन शब्दों में व्यक्त किया :
 
‘‘पूर्वोत्तर राज्यों को ‘एक्ट ईस्ट’ नीति के कार्यान्वयन के परिप्रेक्ष्य में केवल आर्थिक सहयोग और व्यापार एवं वाणिज्य के गलियारे के रूप में ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि इसे भारत व दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच आर्थिक सहयोग में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी चाहिए। जितने भी देशों को इस नीति से लाभ होना है, उनमें से प्रत्येक के लिए पूर्वोत्तर भारत का विकास लाभदायक ही सिद्ध होगा। इस नीति को पाएदार और समतापूर्ण ढंग से किस प्रकार आगे बढ़ाना है, इस पर मंथन करना बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है।’’
 
चुनौतियां निश्चय ही बहुत विकराल हैं। उल्लेखनीय बात तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार द्वारा इस संबंध मेें बहुत अधिक दिलचस्पी ली जा रही है, जिसकी बदौलत ‘एक्ट-ईस्ट पॉलिसी’ की बजाय ‘लुक ईस्ट’ की दिशा में बहुत तेजी से बदलाव आ रहा है। सामरिक महत्व वाली भारत की पूर्वोत्तर पट्टी को अब केवल बड़े-बड़े खोखले वायदों की जरूरत बिल्कुल नहींरह गई, इसे कार्रवाई और केवल कार्रवाई की ही जरूरतहै। 
 
पश्चिम बंगाल के बरनपुर शहर में मोदी ने अपनी ‘एक्ट ईस्ट’ नीति को ठोस दिशा प्रदान करते हुए कहा: ‘‘दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ जुडऩे की भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति का नेतृत्व पश्चिम बंगाल करेगा।’’ यह सचमुच सार्थक और समझ में आने वाली बात है क्योंकि दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र तथा इसके म्यांमार और बंगलादेश जैसे कुछ महत्वपूर्ण घटक देशों के साथ पश्चिम बंगाल की भौगोलिक समीपता के चलते तेज रफ्तार आॢथक वृद्धि के लिए वांछित विभिन्न मदों की परस्पर मार्कीटिंग हेतु बहुत आसान रास्ते सुलभ होंगे। 
 
वास्तव में कोलकाता और ढाका बंदरगाह और उपलब्ध आधुनिक सुविधाओं के परिणामस्वरूप क्षेत्र से वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात को जबरदस्त बढ़ावा मिल सकता है। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि ‘‘दूसरी हरित क्रांति’’ मुख्य रूप में पूर्वी यू.पी., बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, मिजोरम, मेघालय और त्रिपुरा पर लक्षित होगी। मैं इस सूची में पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों को शामिल करता हूं क्योंकि इन राज्यों में आर्गेनिक खेती के लिए न केवल अपार संभावनाएं हैं, बल्कि यहां जैव और वनस्पति विविधता का भी विशाल भंडार है। 
 
नीति परिचालन की गति में परिवर्तन लाने के लिए हमें आधारभूत ढांचे के विकास को बहुत तेजी प्रदान करने की जरूरत है। आधारभूत ढांचे का विकास केवल सड़क सम्पर्क स्थापित करने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि पाएदार रेल और वायु सम्पर्क भी स्थापित किए जाने चाहिएं। इसके साथ ही संचार, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में न केवल पूर्वोत्तर क्षेत्र बल्कि देश की सीमाओं से पार लंबे-चौड़े पड़ोसी क्षेत्र में भी संबंधित समर्थन तंत्र व विद्युत सप्लाई का ढांचा सुनिश्चित करना होगा। इस परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने ‘भारत प्रशांत सहयोग मंडल’ के दूसरे शीर्ष सम्मेलन को संबोधित करते हुए 20 अगस्त को नई दिल्ली में कहा: ‘‘भारत की विस्तृत ‘एक्ट ईस्ट नीति’ में प्रशांत देश एक कुंजीवत भूमिका अदा करेंगे।’’
 
वास्तव में ‘आसियान’ और हमारे ‘विस्तृत पड़ोस’ की सीमाओं से आगे  हर काम जरूरत के आधार पर करना होगा। वर्तमान में पूर्वोत्तर के सातों राज्यों के बहुत ही कमजोर आर्थिक आधार को मजबूती प्रदान करने के लिए यही विश्वसनीय तरीका होगा। इस प्रतिबद्धता को समयबद्ध ढंग से कार्यान्वित करना होगा। इस कठिन काम को आगे बढ़ाने  हेतु हमें आधारभूत ढांचे के लिए निवेश आकर्षित करने के तरीके और संसाधन तलाश करने होंगे। मानवीय गतिविधियों के विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास की संभावनाएं बहुत विशाल हैं। जरूरत केवल राजनीतिक इच्छा शक्ति और प्रतिबद्ध नेतृत्व की है, जो वांछित बदलावों के लिए सही दिशा दर्शन दे सके। 
 
हमें हर हालत में स्थानीय होनहार युवा नेताओं को इस पूरी प्रक्रिया में शामिल करना होगा। उन्हें भारत-आसियान समारोहों में हिस्सा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इसी ढंग से हम अपने पूर्वोत्तर राज्यों की सामाजिक-सांस्कृतिक विभिन्नता का खजाना दुनिया को दिखा सकते हैं और इस क्षेत्र की आधारभूत शक्तियों से उन्हें परिचित करा सकते हैं। वास्तव में तो पूरा पूर्वोत्तर क्षेत्र ही मानव संसाधनों का खजाना है। ‘पूर्वोत्तर दिग्दर्शन दस्तावेज 2020’ को आसियान मास्टर प्लान से जोडऩा एक बहुत अच्छी परिकल्पना है। 
 
इससे परस्पर हितों, सहयोग और भागीदारी के विभिन्न क्षेत्रों को चिन्हित करने में सहायता मिलेगी। फिर भी चिन्ता का विषय यह है कि कारोबार की दुनिया में नई शुरूआत करने वाले लोग पूर्वोत्तर में शेष भारत की तुलना में काफी पिछड़े हुए हैं। उन्हें तकनीकी जानकारी, वित्त पोषण, प्रशासकीय कौशल और अन्य सामाजिक कारकों के मामले में अनेक प्रकार के अवरोधों और कागजी कार्रवाइयों का सामना करना पड़ता है। नए उद्यम शुरू करने वाले लोगों को पर्यावरण की रक्षा के ध्वजवाहकों से वांछित सहयोग नहीं मिल रहा। 
 
इन चुनौतियों के मद्देनजर पूर्वोत्तर के प्रत्येक राज्य को न केवल आसियान देशों के बाजारों बल्कि भारत के अपने महानगरों के बाजारों में आर्गेनिक खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग पूरी करने के लिए स्थानीय खेती पैदावार और इसकी गुणवत्ता को सुधारने के लिए अपनी-अपनी कृषि शोध प्रयोगशाला स्थापित करनी होगी। आर्थिक मोर्चे पर तो इन राज्यों के लिए दसों दिशाएं खुली पड़ी हैं। 
 
यहां तक कि म्यांमार में भी इन राज्यों के उद्यमियों के लिए खाद्य प्रसंस्करण तथा अन्य लघु इकाइयां स्थापित करने की अपार संभावनाएं हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षित करने के लिए वोकेशनल ट्रेङ्क्षनग सैंटर स्थापित किए जाने चाहिएं जहां पर आसियान देशों के युवाओं को भी प्रशिक्षण मिले। 
 
इस इलाके की कबाइली संस्कृति की अमीरी का तो कोई ओर-छोर ही नहीं। उनके रीति-रिवाज, धरोहर, नृत्य, कलाएं और वास्तु शिल्प विशाल विविधता से भरे हुए हैं। जिस भी कोण से देखें ये राज्य एक दिलकश नजारा प्रस्तुत करते हैं। आसियान देशों में इनको सही ढंग से प्रोजैक्ट करने की जरूरत है। यदि इस इलाके में एक  भारत-आसियान सांस्कृतिक केन्द्र स्थापित किया जाए तो यह बहुत ही दूरगामी लाभों से भरा होगा। 
 
अरुणाचल और त्रिपुरा के प्राचीन बौद्ध मठ जापान और अन्य पूर्वी एशियाई देशों से बौद्ध पर्यटकों को भारी संख्या में आकॢषत कर सकते हैं। इससे इन राज्यों की अर्थव्यवस्था को बहुत शक्ति मिलेगी। यहां तक कि चाय बागान को भी व्यावसायिक पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जा सकता है। मैडीकल टूरिज्म की भी बहुत अधिक संभावनाएं हैं। 
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