मोहनदास से महात्मा गांधी बनने तक की कहानी

Edited By ,Updated: 03 Oct, 2015 02:42 AM

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राष्ट्रपिता बापू गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर के बारे में सोचते-सोचते यह विचार मन में कौंधता रहा कि आखिर मोहनदास का परिवर्तन महात्मा गांधी या बापू गांधी से लेकर राष्ट्रपिता तक किस प्रकार हुआ।

(पूरन चंद सरीन): राष्ट्रपिता बापू गांधी के जन्मदिन 2 अक्तूबर के बारे में सोचते-सोचते यह विचार मन में कौंधता रहा कि आखिर मोहनदास का परिवर्तन महात्मा गांधी या बापू गांधी से लेकर राष्ट्रपिता तक किस प्रकार हुआ। एक कमजोर कद-काठी, सामान्य शिक्षा, साधारण गृहस्थ आखिर क्योंकर भारतवासियों के दिलों पर हमेशा के लिए राज करने वाला महापुरुष बन गया? देश में और भी राष्ट्रभक्त, बलिदानी और लोकप्रिय नेता हुए हैं लेकिन मोहनदास जैसा सम्मान किसी व्यक्ति को अपने जीवन में समस्त ऊंचाइयां छू लेने के बाद भी नहीं प्राप्त हुआ, इसका कुछ तो कारण होगा? इसे केवल ईश्वर की इच्छा या भाग्यवादियों के अनुसार किस्मत का लेखा मात्र नहीं कहा जा सकता। युवक मोहनदास के कुछ तो मूलमंत्र होंगे जिनकी साधना से वह देश की शान, बान और आन बन गए।

मोहनदास का पहला मंत्र था कि ‘जो भी काम हो, सोच-समझ कर करो।’ उसके बाद तो जो परिणाम होगा वह अच्छा हो या बुरा, उसकी चिन्ता किए बिना अगले काम में लग जाओ। इसी  लहर में वो डूबते उतराते हुए पार लगने की उम्मीद में इस सोच के साथ आगे बढ़ जाया करते थे कि ‘बिना लड़े हारना एक सिपाही को ज्यादा चोट पहुंचाता है।’ जिन्दगी में कदम-कदम पर लडऩा पड़ता है तब विजय का मार्ग प्रशस्त होता है।
 
‘अगर लड़ाई जीतनी है और इज्जत पानी है तो उसके लिए पहले रास्ता बनाना पड़ता है।’ इसी के साथ यह भी ध्यान रखना होता है कि अन्याय सहते जाने से रास्ता बनना मुश्किल हो जाता है।
 
एक घटना है, दक्षिण अफ्रीका पहुंचने पर जब वह पहली बार मुकद्दमे के सिलसिले में कोर्ट गए तो मैजिस्ट्रेट ने पगड़ी उतारने को कहा। मोहनदास ने पगड़ी उतारने के बजाय कोर्ट से चले आना बेहतर समझा। अंग्रेज शासकों के व्यवहार का प्रतिरोध करने के लिए अखबार में छपने के लिए पत्र लिख दिया, जिसमें कहा कि उनके व्यवहार को गलत न  समझकर राष्ट्रीय सम्मान समझा जाए। यहीं से उनके महात्मा बनने की शुरूआत हुई। वह जीवन को बिना किसी लाग-लपेट के देखने में माहिर थे।
 
धैर्य होना चाहिए
एक साधारण-सी हकीकत लेकिन कितनी महत्वपूर्ण और वह यह कि ‘जिन्दगी हो या शतरंज की बाजी, यदि जीतना है तो धैर्य होना चाहिए। धैर्य न होने से ही हार का डर होने लगता है और डर ही सबसे बड़ी मौत होती है। जो सामने है, उसे स्वीकार करो और बस मैदान में डट जाओ।’
 
उनका जीवन इसी मंत्र की साधना है, इसीलिए हार हो या जीत, उसका असर उन पर कभी नहीं हुआ। वह समय और परिस्थिति के अनुसार बड़ी आसानी से अपना व्यवहार बदल लिया करते थे। उनके जीवन में व्यक्तिगत मान-अपमान का कोई अर्थ नहीं था बल्कि दूसरों के हितों का सरोकार सबसे अधिक था।
 
उनके अनुसार अधिकारों की बात तो सब ही करते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं कि उसे पाने के लिए त्याग और कष्ट पहली शर्त है। दक्षिण अफ्रीका में 21 वर्ष तक संघर्ष की दास्तान इसी शर्त को पूरा करने की कहानी है।
 
वह प्रोफैशनल चीजों को भी इंसानियत से सुलझाने में यकीन रखते थे। दो सेठों के बीच मुकद्दमेबाजी में मदद के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे। अब्दुल्ला सेठ और तैयब सेठ के बीच कारोबारी ताल्लुकात में एक गलतफहमी की वजह से पड़ गई दरार को पाटने का काम उन्होंने जिस खूबी से किया, उससे उनकी कार्यशैली की झलक मिलती है। सभी कागजातों का अध्ययन करने के बाद वह समझ गए थे कि दोनों पक्षों ने एक-दूसरे की मजबूरी को न समझने के आलम में अपने-अपने मन में गलतफहमी पाल ली थी जो जाने-अनजाने बढ़ती ही चली गई। मोहनदास ने दोनों के बीच की गुत्थी को इतनी समझदारी से सुलझा दिया कि दोनों ही पक्षों का उन पर विश्वास बढ़ गया और सच के सामने आते ही सच्चाई की जीत हुई जो दोनों को मंजूर थी। लगा कि उनमें से कोई हारा नहीं बल्कि दोनों ही जीत गए हैं।
 
शायद यही नींव थी जो स्वतंत्रता के समय अंग्रेजों द्वारा बिना ङ्क्षहसा के भारत छोड़कर चले जाने का आधार बनी वरना कौन जानता है कि सशस्त्र संघर्ष होने पर कितना रक्तपात हुआ होता। अंग्रेज समझते रहे कि भारत को दो हिस्सों में बांटकर उनकी जीत हुई जबकि वास्तविक जीत हमारी हुई जो उनकी गुलामी से मुक्त हुए।
 
एक बात पर उनका जोर रहता था और वह यह कि यदि ‘‘अनुशासन नहीं है तो फिर आजादी का कोई मतलब नहीं है।’’ दक्षिण अफ्रीका में आंदोलन की सफलता के बाद भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभालने के लिए उनमें अनुशासन की भावना कूट-कूट कर भर चुकी थी।
 
मोहनदास के महात्मा गांधी बनने की शुरूआत हो चुकी थी। वह मानते थे कि सेवा के लिए पहले संकल्प जरूरी है, उसके बाद उस काम का अनुभव आता है और तब कहीं जाकर काबिलियत पैदा होती है। आज हो यह रहा है कि पहले योग्यता देखी जाती है और फिर अनुभव को परखा जाता है, उसके बाद कहीं जाकर संकल्प की बात भी चलते-फिरते कर ली जाती है, यही कारण है कि असफल होने पर हम अपने बजाय दूसरों पर दोषारोपण अधिक करने लगते हैं।
 
मोहनदास से महात्मा गांधी बनने के शुरूआती दौर की एक घटना का जिक्र करना ठीक होगा। दक्षिण अफ्रीका में रह रहे भारतीयों के अधिकारों के लिए कलकत्ता में हुए अधिवेशन में भाग लेने के लिए पहुंचे तो वहां की स्थिति देखकर सोचने लगे कि क्या यही कांग्रेस देश को स्वतंत्र कराने का स्वप्न देख रही है। हालांकि उस अधिवेशन में सर फिरोजशाह मेहता, दिनशा वाचा, सीतलवाड़, लोकमान्य तिलक जैसे व्यक्ति भाग ले रहे थे, लेकिन महात्मा गांधी वहां फैली अव्यवस्था से परेशान हो गए। 
 
इन्होंने अपनी आदत के मुताबिक स्वयं ही सफाई का काम अपने हाथ में ले लिया। एक झाड़ू और बाल्टी का इंतजाम किया और शौचालय साफ करने में जुट गए। मुंह पर कपड़ा बांधे, सफाई करने लगे तो लोगों ने कहा कि ‘यह तुम्हारा काम थोड़े ही है जो कर रहे हो। इसके जवाब में उन्होंने कहा कि यह शौचालय मैंने अपने लिए साफ किया है। 
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