नहीं थम रहा कीटनाशकों का दुरुपयोग

Edited By ,Updated: 05 Oct, 2015 01:10 AM

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वैज्ञानिक काफी समय से चेतावनी देते आ रहे हैं कि कृषि में प्रयोग होने वाले खतरनाक कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग इंसानों और पशु-पक्षियों के लिए समान रूप से बहुत खतरनाक है।

वैज्ञानिक काफी समय से चेतावनी देते आ रहे हैं कि कृषि में प्रयोग होने वाले खतरनाक कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग इंसानों और पशु-पक्षियों के लिए समान रूप से बहुत खतरनाक है। अब हाल ही में हुए एक अध्ययन ने साबित कर दिया है कि कीटनाशकों के इंसानों के भोजन चक्र तक पहुंचने की स्थिति कितनी गम्भीर हो चुकी है।
 
इस अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि जिन खाद्यों को उगाने में जैविक खाद का इस्तेमाल होता है यानी उनकी पैदावार में किसी प्रकार के रसायनों या कीटनाशकों का प्रयोग न किए जाने का दावा किया जाता है, उनमें भी खतरनाक स्तर तक कीटनाशक पाए गए हैं। 
 
वित्त वर्ष 2014-15 के दौरान जमा इन नमूनों की जांच देश भर की 25 प्रयोगशालाओं में की गई। इनमें एसीफेट, बाइफेंथ्रीन, एसीटामिप्रिड, ट्राइजोफोस, मैटलैक्जिल, मेलैथियन, काबरेसल्फान, प्रोफेनोफोस और हैक्साकोनाजोल आदि शरीर के लिए हानिकारक पदार्थों के अंश पाए गए। 
 
मंत्रालय के अधिकारियों ने खुदरा बाजारों से सब्जियों के 8342 नमूने जमा किए थे। इनमें बैंगन, टमाटर, बंदगोभी, फूलगोभी, हरे मटर, शिमला मिर्च, खीरा, लौकी, हरा धनिया आदि शामिल थे।
 
इनमें से 2.7 प्रतिशत नमूनों में कीटनाशकों के अंश अधिकतम निर्धारित अवशिष्ट सीमा से अधिक मिले। इतना ही नहीं, खेतों से एकत्रित  3.7 प्रतिशत तथा जैविक खाद्य बेचने वाली दुकानों के 2 प्रतिशत नमूनों में भी रसायनों का स्तर अधिकतम निर्धारित अवशिष्ट सीमा से अधिक पाया गया।
 
इसी प्रकार सेब, केले, आड़ू, अंगूर, संतरे, अनार, आम आदि फलों के कुल 2239 नमूनों में 18.8 प्रतिशत में रसायनों के अंश पाए गए जबकि 1.8 प्रतिशत नमूनों में इनका स्तर निर्धारित अधिकतम अवशिष्ट सीमा से अधिक था। इसी प्रकार गेहूं, चावल, मसालों से लेकर चाय तक के कई नमूनों में रसायनों व कीटनाशकों का स्तर काफी अधिक पाया गया। 
 
कीटनाशकों के सेहत पर होने वाले प्रभाव संबंधी अध्ययनों में पाया गया है कि इनसे मस्तिष्क का विकास प्रभावित होता है और दिमागी संरचना में विकार आ सकता है। यह कैंसर उत्पन्न करने, मस्तिष्क की कोशिकाओं की संख्या में गिरावट, तंत्रिका तंत्र में व्याधियां पैदा करने, हार्मोन संबंधी विकारों और बच्चों की सीखने, ध्यान केंद्रित करने से लेकर व्यवहार तक पर बहुत खराब असर डालते हैं। गर्भस्थ शिशु तक इनसे प्रभावित हो सकते हैं।
 
यही कारण है कि कीटनाशकों के बचे अवशेषों की अधिकतम अवशिष्ट सीमा यानी एम.आर.एल. तय की जाती है। यह कीटनाशकों की उस मात्रा को कहा जाता है जो उनके पैदा होने के बाद भी दूध, फल-सब्जियों, अनाज और मांस में बची रहती है जबकि इनमें यह मात्रा उतनी ही होनी चाहिए जितनी से इंसानों की सेहत पर प्रतिकूल असर न पड़े। 
 
इसके लिए उपयोग की एक समय सीमा तय होती है। जब तक यह समय सीमा यानी एम.आर.एल. की अवधि बीत नहीं जाती, तब तक किसी भी उत्पाद को इस्तेमाल में लाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए लेकिन पैदावार को बाजार में ले जाने की जल्दबाजी में देश में कोई इस अवधि का ध्यान  रखता होगा, यह नामुमकिन-सा ही लगता है।
 
इस रिपोर्ट में खतरनाक स्तर तक कीटनाशकों के अवशेष पाए जाने के रहस्योद्घाटन के बाद मंत्रालय ने किसानों के लिए जागरूकता अभियान शुरू किया है। इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट के प्रोजैक्ट कोऑॢडनेटिंग सैल के डा. के.के. शर्मा के अनुसार, ‘‘हम कीटनाशकों का समझदारी से प्रयोग करने को प्रोत्साहित करते हैं। इस संबंध में किसानों में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है ताकि वे कीटनाशकों के जरूरत से ज्यादा प्रयोग के पर्यावरण एवं इंसानों पर होने वाले दुष्प्रभावों को समझ सकें। जब हम जैविक उत्पादों की बात करते हैं तो इसका मतलब यह है कि उनमें कीटनाशक बिल्कुल भी नहीं होने चाहिएं क्योंकि उन्हें ‘जैविक खाद्य’ होने का दावा करके बेचा जाता है।’’
 
चंद लोग अपने निजी स्वार्थ या अज्ञानतावश फसलों पर कीटनाशकों का अंधाधुंध इस्तेमाल करके पूरे समाज के स्वास्थ्य को संकट में डाल रहे व्यक्ति भूल रहे हैं कि अधिक मुनाफा कमाने के लिए जो जाल वे फैला रहे हैं उसी जाल में वे स्वयं भी फंस सकते हैं।
 

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