क्या बैजल को भी जारी रखनी पड़ेगी ‘जंग’

Edited By ,Updated: 31 Dec, 2016 12:20 AM

baijal will have to continue on jung

पहली बार इस्तीफे की पेशकश उन्होंने नैतिकतावश की होगी। जाहिर भी है कि जब कांग्रेस सरकार ने आपको उपराज्यपाल बनाया हो और उसके बाद केंद्र में ...

दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के अचानक इस्तीफे के बाद अब अनिल बैजल साल के आखिरी दिन दिल्ली के 21वें उपराज्यपाल बन रहे हैं। नजीब जंग के इस्तीफे से सभी चौंक गए थे। यह स्वाभाविक भी था। इसलिए नहीं कि नजीब जंग किसी खास लॉबी से जुड़े हुए थे या उनका इस्तीफा केंद्र में बैठी भाजपा सरकार के लिए झटका था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने न तो कभी ऐसी इच्छा जाहिर की थी और न ही उनके कामों से ऐसा लग रहा था कि वह पद त्याग करने वाले हैं।

वह कुछ दिन पहले ही गृह मंत्री से मिले थे और सिर्फ  2 दिन पहले ही उन्होंने छुट्टी के लिए अप्लाई किया था। फिर अचानक उनका इस्तीफा आ जाता है तो जाहिर है कि उनके सबसे बड़े आलोचक कहे जाने वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत सभी हैरान रह गए।

नजीब जंग ने माना है कि वह 2 बार पहले भी इस्तीफे की पेशकश कर चुके थे-एक बार तब जब कांग्रेस हारी और केंद्र में भाजपा ने सत्ता संभाली। दूसरी बार तब जब इस साल जुलाई में उन्होंने अपने कार्यकाल के 3 साल पूरे किए।

पहली बार इस्तीफे की पेशकश उन्होंने नैतिकतावश की होगी। जाहिर भी है कि जब कांग्रेस सरकार ने आपको उपराज्यपाल बनाया हो और उसके बाद केंद्र में मोदी सरकार आ गई हो तो आप खुद ही अपने पद से हटना चाहेंगे क्योंकि ऐसे में आशंका होती है कि आपको हटा दिया जाएगा। मोदी सरकार ने कई राज्यपालों को बदला भी था जिनमें दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी शामिल हैं। मगर मोदी सरकार ने नजीब जंग को बनाए रखा।

इस साल जुलाई में उनकी पेशकश ठुकराने का मतलब साफ  था कि केंद्र सरकार को दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार से उनकी जंग रास आ रही है। जंग में उनका पूरा विश्वास है  इसीलिए उन्हें अपने पद पर बने रहने के लिए ही कहा गया। अब लगता है कि बार-बार इस्तीफे की पेशकश और वापस पढ़ाई-लिखाई की ओर लौटने की उनकी इच्छा का आदर किया गया।

अभी वक्त बताएगा कि यह अंदाजा कितना सही है लेकिन इतना साफ  है कि नजीब जंग ने जितना विश्वास कांग्रेस का जीता था, उतनी ही खूबसूरती से उन्होंने भाजपा का भी मन मोह लिया था। इसीलिएमोदी सरकार के केंद्र में अढ़ाई साल पूरे होने के दौरान उन्हें एक बार भी अपने कमजोर होने का एहसास नहींहुआ

दरअसल नजीब जंग राजनीतिक पद पर न बैठे हुए भी जाने-अनजाने दिल्ली की राजनीति का एक अहम हिस्सा बन गए थे।  पिछले 2 सालों में अगर किसी ने ‘आप’ सरकार पर अंकुश लगाया है तो वह नजीब जंग ही हैं। इसलिए अब एकाएक उनके इस्तीफे से यह सवाल उठेगा ही कि अब ‘आप’ सरकार को कौन रोक पाएगा? 

‘आप’ सरकार जिस तरह खुलेआम नजीब जंग को केंद्र का पिट्ठू बता चुकी है, अमित शाह का कारिंदा बता चुकी है और यहां तक कह चुकी है कि वह उपराष्ट्रपति बनने के लिए सारे पापड़ बेल रहे हैं उसे देखते हुए ‘आप’ नेताओं को तो यह लग रहा होगा कि वह एक बड़ी जंग जीत गए हैं। केवल राजनीति में ही नहीं, बल्कि अदालतों में भी अब तक नजीब जंग उनकेलिए बहुत बड़ी चुनौती बने हुए थे। अब एकाएक यहचुनौती हट गई है तो उन्हें राहत भी महसूस हो रही होगी।

नजीब जंग दिल्ली के 20वें उपराज्यपाल रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि इतनी चर्चा या इतने विवाद किसी के नाम नहीं रहे। इसके 2 कारण रहे। पहला तो यह कि 1993 के बाद दिल्ली में जितनी भी सरकारें आई, उन्हें अपनी लक्ष्मण रेखाओं का एहसास था। उन्हें मालूम था कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है और यहां की सरकार की शक्तियां व अधिकार सीमित हैं।

मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा तो दिल्ली की राजनीति में ही पनपे और नगर निगम से लेकर महानगर परिषद तक उन्हें दिल्ली के तख्त-ओ-ताज की रस्मों और रिवायतों की पूरी जानकारी थी। शीला दीक्षित दिल्ली की राजनीति को शुरू में ज्यादा नहीं समझती थीं लेकिन बाद में वह पूरी तरह वाकिफ  हो गईं। यूं भी इन सभी नेताओं का रवैया इतना लचीला था कि वे किसी टकराव को इस सीमा तक नहीं ले जा सकते थे कि धरना देने की नौबत आ जाए।

दूसरा कारण यह रहा कि उनके शासन के दौरान उपराज्यपालों का रवैया भी कभी टकराव का नहीं रहा। भले ही केंद्र में अलग और दिल्ली में अलग पाॢटयों की सरकार रही लेकिन एक मर्यादा का पालन हमेशा ही किया गया। उस दौरान भी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के प्रस्ताव पास हुए, दिल्ली में सी.एन.जी. लाने पर टकराव हुआ या फिर दिल्ली के उद्योगों को हटाने के मामले में तल्खियां पैदा हुईं लेकिन वे सब आसानी से सुलझ गईं।

अब दिल्ली में जो सरकार है, उसका रवैया सबसे अलग है। सबसे पहली बात तो यह है कि यह सरकार यही सच्चाई मानने के लिए तैयार नहीं है कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। ‘आप’ सरकार उन सभी अधिकारों को एंज्वाय करना चाहती है जो पूर्ण राज्यों को हासिल होते हैं। यही वजह है कि उपराज्यपाल के साथ उनका हर मोड़ पर टकराव हुआ।

जब 49 दिन की सरकार थी तो जन लोकपाल विधेयक पेश करने के जिस मुद्दे पर केजरीवाल ने इस्तीफा दिया था वह भी नजीब जंग के साथ जंग का ही एक हिस्सा था। इसके बाद जब केजरीवाल दोबारा मुख्यमंत्री बने तब भी वह और उनकी सरकार इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि दिल्ली में लॉ एंड ऑर्डर, पुलिस, जमीन और सॢवसिज ये चार अधिकार दिल्ली सरकार के पास नहीं हैं।

दिल्ली में विधानसभा होते हुए भी वह पूर्ण राज्य नहीं है इसीलिए कभी कार्यवाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति, कभी किसानों का मुआवजा, कभी डी.ई.आर.सी. के चेयरमैन की नियुक्ति तथा कभी महिला आयोग की अध्यक्ष और फिर सचिव की नियुक्ति,  कभी विधायकों का फंड बढ़ाने या उनकी सैलरी बढ़ाने पर लगातार टकराव की नौबत आती रही। नजीब जंग हर मौके पर एक दीवार की तरह दिल्ली सरकार के सामने आकर खड़े होते रहे।

इस साल अगस्त तक यह टकराव काफी तीखा था क्योंकि तब तक कोई दिल्ली सरकार को समझाने वाला नहीं था कि दिल्ली का बिग बॉस कौन है। 4 अगस्त को जब हाईकोर्ट ने उपराज्यपाल को ही दिल्ली का प्रशासक बता दिया तो दिल्ली सरकार को थोड़ा झटका तो लगा लेकिन उसके बावजूद  उसके तेवरों में ज्यादा बदलाव नहीं आया। अब सुप्रीम कोर्ट को तय करना है कि आखिर दिल्ली का जहांपनाह कौन होगा।

ऐसा नहीं है कि नजीब जंग के जाने के बाद यह मान लिया जाए कि केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच जंग विराम हो गया है। अब अनिल बैजल नए उपराज्यपाल बन रहे हैं तो उन्हें भी यह भली-भांति एहसास होगा कि दिल्ली सरकार की सीमाएं क्या हैं और दिल्ली सरकार इन सीमाओं को कैसे तोडऩा चाहती है।

नए उपराज्यपाल पर यह दोहरी जिम्मेदारी होगी कि उन्हें इस कलंक से भी किसी तरह बचना होगा कि केंद्र सरकार दिल्ली की ‘आप’ सरकार को काम नहीं करने दे रही और साथ ही केंद्र को भी खुश रखना होगा कि वह ‘आप’ सरकार पर लगाम लगाए हुए हैं। वैसे, हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट अगले महीने तक यह फैसला ही सुना दे कि दिल्ली की बादशाहत किसके हाथों में है। अगर उसने हाईकोर्ट के फैसले पर ही मोहर लगाई तो फिर नए उपराज्यपाल नजीब जंग से भी आगे निकल सकते हैं और अगर फैसला पलट गया तो फिर नए उपराज्यपाल वाकई जंग विराम करते नजर आएंगे।

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