कश्मीर मसले पर केन्द्र सरकार क्या चीन की नीतियों का अनुसरण नहीं कर सकती

Edited By ,Updated: 18 May, 2017 11:08 PM

can not follow china  s policies on kashmir issue

इस कॉलम में पिछले 2 दशकों से अधिक समय में कश्मीर को लेकर अनेकों बार चर्चा ...

इस कॉलम में पिछले 2 दशकों से अधिक समय में कश्मीर को लेकर अनेकों बार चर्चा हुई है। क्या कारण है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की तत्कालीन शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला से गहरी मित्रता, श्रीमती इंदिरा जी की कूटनीति, वाजपेयी जी की इंसानियत के दायरे में वार्ता की पहल, डा. मनमोहन सिंह के अथक प्रयासों से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व और प्रदेश में भाजपा-पी.डी.पी. गठबंधन सरकार की हरसंभव कोशिशों के बाद भी न केवल घाटी की स्थिति जस की तस बनी हुई है, अपितु फिलहाल तो पहले से भी अधिक बिगड़ गई है। 

इस प्रश्न का उत्तर आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के पूर्व कमांडर जाकिर मूसा के हाल के ही ऑडियो संदेश में छिपा है, जो कश्मीर की वस्तुस्थिति को निर्विवाद रूप से स्पष्ट कर रहा है। अलगाववादियों को चेतावनी देते हुए मूसा कहता है,  ‘‘सुधर जाओ, नहीं तो  ‘कुफ्र-काफिर’ से लडऩे से पहले हम आपका ही सिर काटकर लालचौक में लटका देंगे।’’ उसके अनुसार जो कश्मीर में बंदूक लेकर लड़ रहे हैं, वे किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं  बल्कि कश्मीर में ईराक और सीरिया की भांति इस्लामी शासन और शरियत की बहाली से संबंधित हैं। 

मूसा पूछता है, ‘‘यदि कश्मीर में इस्लामी जंग नहीं है तो फिर यह नारा क्यों लगाया जाता है कि पाकिस्तान से हमारा नाता क्या ला इल्लाह-इल-लल्लाह, आजादी का मतलब क्या ला इल्लाह-इल-लल्लाह। यदि यह इस्लाम की लड़ाई नहीं है तो फिर क्यों मस्जिदों का उपयोग किया जाता है।’’ यह धमकी,  गत दिनों अलगाववादियों के आए संयुक्त वक्तव्य की प्रतिक्रिया है, जिसमें कहा गया था कि कश्मीर में केवल ‘आजादी’ की जंग चल रही है, इसका इस्लामी आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है। स्वतंत्र भारत में घाटी के निवासियों को शेष देश के साथ जोडऩे के लिए केन्द्र सरकार ने तरह-तरह के प्रयास किए। कश्मीरियों को देश के अन्य नागरिकों की तुलना में अधिक सुविधाएं व संसाधन उपलब्ध करवाए गए। फिर भी कश्मीर की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। 

अक्तूबर 1947 में कश्मीर पर पाकिस्तान  के हमले व जम्मू-कश्मीर के भारत में औपचारिक विलय के पश्चात प्रदेश को शेख अब्दुल्ला के हवाले करना, पूरे कश्मीर को मुक्त कराए बिना युद्धविराम की घोषणा करना, तत्कालीन देशभक्त महाराजा हरि सिंह को बॉम्बे (मुम्बई) में बसने के लिए विवश करना, मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाना, जनमत संग्रह का वादा करना और अनुच्छेद 370 को लागू करना-जो संभवत:  इस उद्देश्य से उठाए गए कदम थे कि इससे कश्मीरी मुस्लिमों को शेष भारत के साथ जोडऩे में सहायता मिलेगी। अंततोगत्वा, ये  सभी प्रयास ऐसी हिमालयी भूलें सिद्ध हुईं, जिन्होंने कश्मीर समस्या को और अधिक जटिल व गंभीर बना दिया। 

आज घाटी में भारत की मौत की दुआ मांगी जाती है। सुरक्षाबलों पर हमले किए जाते हैं। तिरंगे का अपमान किया जाता है। आई.एस.-पाकिस्तान का झंडा लहराते हुए कश्मीर सहित देश में निजाम-ए-मुस्तफा स्थापित करने का नारा बुलंद किया जाता है। फिर भी गत 70 वर्षों से देश के किंकत्र्तव्यविमूढ़ तथाकथित सैकुलरिस्ट, घाटी की समस्या का राजनीतिक समाधान निकालने पर बल दे रहे हैं और यह दुखद नाटक आज भी जारी है। 

जो स्थिति कश्मीर की है ठीक वैसी ही दशा 1,360 किलोमीटर दूर और जम्मू-कश्मीर की सीमा से लगे चीन के शिनजियांग की भी है। चीन में मुस्लिम आबादी 2.3 करोड़ है, जो उसकी कुल जनसंख्या का मात्र 2 प्रतिशत है, जिसमें लगभग एक करोड़ ‘उइगर’ मुस्लिम शिनजियांग प्रांत में बसते हैं। वे दशकों से यहां पूर्वी तुॢकस्तान इस्लामिक आंदोलन चला रहे हैं, जिसका अंतिम उद्देश्य चीन से अलग होकर इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना करना है। चीन ने अपने देश के भीतर इस्लामी आतंकवाद और अलगाववाद से निपटने के लिए क्या-क्या किया?

हिंसायुक्त माक्र्सवादी दर्शन से अभिभूत चीन वैश्विक विरोध की चिंता किए बिना दशकों से सख्त कार्रवाइयों, कठोर नीतियों और प्रतिबंधों के माध्यमों से उइगरों के अलगाववादी आंदोलन को कुचल रहा है। चीनी सरकार निर्भीक होकर सैन्यबल का उपयोग कर रही है और ‘हान’ मूल के चीनियों को शिनजियांग में बसा रही है। इस्लामी कट्टरवाद के बढ़ते खतरे को भांपते हुए उइगरों की मजहबी पहचान को भी खत्म किया जा रहा है। चीन ने इस प्रांत में कई मस्जिदों और मदरसों को या तो बंद करा दिया है या फिर उन्हें जमींदोज कर दिया है। रमजान के महीने में रोजा रखने पर पाबंदी लगा दी गई है। 

चीन ने औपचारिक रूप से स्वीकार किया है कि उइगर मुस्लिमों को पाकिस्तान और अफगानिस्तान के आतंकी संगठन भड़का रहे हैं और उन्हें प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। स्पष्ट है कि चीन नियंत्रित शिनजियांग की स्थिति, भारत के कश्मीर की तुलना में चीन के नजरिए से काफी अच्छी है। चीन के लिए उसकी संप्रभुता, एकता और अखंडता सर्वोपरि है। यही कारण है कि उसने आज तक अपने देश में अलगाववादी, आतंकवादी और जेहादियों से बातचीत या फिर किसी समझौते की पेशकश तक नहीं की है। विडंबना देखिए कि भारत में 70 वर्षों से अधिकतर समय केन्द्र सरकार और स्वघोषित सैकुलरिस्ट कश्मीर में कथित ‘आजादी’ मांगने वालों से नरम व्यवहार और वार्ता की वकालत करते रहे हैं। 

जहां चीन में कम्युनिस्टों के लिए विचारधारा से बढ़कर राष्ट्रहित है, वहीं  इसके ठीक विपरीत भारतीय वामपंथियों के लिए देशहित गौण जबकि विचारधारा सर्वोपरि है। इसी कारण देश के रक्तरंजित बंटवारे के समय देश के वामपंथी, इस्लाम के नाम पर अलग राष्ट्र की मांग करने वालों के साथ खड़े रहे। आज भी वे देश को टुकड़ों में बांटने का नारा बुलंद करते हैं। जब भी कश्मीर में पत्थरबाजों, आतंकियों और उनसे हमदर्दी रखने वाले स्थानीय लोगों पर सुरक्षाबल कार्रवाई करते हैं, तो सर्वप्रथम वामपंथी और उनकी केंचुली पहने कांग्रेस सहित तथाकथित सैकुलरिस्ट इसके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। यही नहीं, जब घाटी में कश्मीरी पंडितों को पुन: बसाने या पश्चिमी पाकिस्तान से आए शर्णाथियों को नागरिकता देने की चर्चा होती है, तब भी छद्म-पंथनिरपेक्षकों की फौज, अलगाववादियों की भाषा बोलते हुए इसका विरोध करते हैं। 

शेष भारत की तरह कश्मीर में भी बहुलतावादी जीवन-मूल्यों और इस्लामी अधिनायकवाद के बीच लड़ाई सदियों पुरानी है। सन् 1819 में महाराजा रणजीत सिंह ने अफगानी दरिंदों को पराजित करके कश्मीर इस्लामी क्रूरता से मुक्त कराया था। वर्ष 1839 में महाराजा रणजीत सिंह का देहांत हो गया और अंग्रेजों ने गुलाब सिंह को 75 लाख रुपए में कश्मीर सौंप दिया। सांप्रदायिक हिंसा की आग को अंग्रेजों के सहयोग व शेख अब्दुल्ला के माध्यम से पुन: हवा मिली और आज वह कश्मीर में धधकती ज्वाला का रूप धारण कर चुकी है। इस लंबे कालखंड में नाम, नारे और चेहरे निरंतर बदलते गए। कश्मीर में आंदोलन और हिंसा का चरित्र भले बदलता रहा हो लेकिन उसका उद्देश्य सदियों से अपरिवर्तित है। 

आतंकी मूसा के हाल के संदेश ने कश्मीर में कथित स्वायत्तता का मुखौटा एक बार फिर उतार दिया है और इस्लामी ङ्क्षहसा का घिनौना चेहरा हम सभी के सामने है। इस मौलिक सच्चाई को स्वीकार करने पर ही घाटी में दीर्घकालिक शांति के स्थापित होने की संभावना है। क्या बीते 70 वर्षों से हम कश्मीर के संदर्भ में गलत नहीं थे ? क्या भारत राष्ट्रहित में, घाटी से इस्लामी आतंकवाद-अलगाववाद के सफाए के लिए चीन की नीतियों का अनुसरण नहीं कर सकता? मुझे पाठकों के उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।     

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