राष्ट्रीय एकता के हित में नहीं केन्द्र और राज्यों के बिगड़ते संबंध

Edited By ,Updated: 18 Jan, 2017 12:36 AM

centre and the states on the decline

तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच टकराव में केन्द्र और राज्य के संबंधों का खाका नजरअंदाज हो गया। भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय की

तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच टकराव में केन्द्र और राज्य के संबंधों का खाका नजरअंदाज हो गया। भारतीय जनता पार्टी के कार्यालय की सुरक्षा जब केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सी.आर.पी.एफ.) ने की तो इसने यही संदेश दिया कि केन्द्र ही अंतिम निर्णय करने वाला है और अपनी बात लागू कराने के लिए इसके पास अपना बल है।

जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि वह भी एक सरकार है, तो उन्होंने केन्द्र को चुनौती दी कि अपने मामलों में राज्य ही सर्वोच्च है। राज्यों को संविधान में बताई गई अपनी स्वायत्तता है। सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में कहा है कि राज्यों के अधिकार क्षेत्र में उन्हें दबाने के लिए केन्द्र अनुचित दबंगई नहीं चला सकता है।

यह वही पुरानी कहानी है केन्द्र के खिलाफ राज्यों का अपना वजूद साबित करना। खास राज्यों के मामले में यह पहले भी हो चुका है। केरल, जहां अक्सर कम्युनिस्ट के हाथ में कमान होती है, को नई दिल्ली ने कई बार परेशान किया जिसमें देश में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगाना शामिल है।

आजादी के तुरन्त बाद, ई.एम.एस. नंबूदरीपाद केरल के मुख्यमंत्री थे। वह कांग्रेस शासित नई दिल्ली से मतभेद रखते थे। कांग्रेस निवारक नजरबंदी कानून वहां भी लागू करवाना चाहती थी लेकिन नंबूदरीपाद की दलील थी कि यह ब्रिटिश शासन का तरीका था और देश के लोकतांत्रिक ढांचे में फिट नहीं बैठता है। उन्होंने इस कानून के बनने का विरोध किया।

मुख्यमंत्रियों में वह अकेले थे जिन्होंने ऐसा किया। पश्चिम बंगाल के कद्दावर मुख्यमंत्री बी.सी. राय, जो बैठक में मौजूद थे, इतने आहत थे कि उन्होंने उन्हें बुरा-भला कहा और कहा कि, ‘‘हमारे बीच आप अकेले देशभक्त हैं।’’नंबूदरीपाद अपनी राय से नहीं हटे और उन्होंने सिर्फ इतना कहा, ‘‘वह इस मामले में उनसे 
उलझना नहीं चाहते लेकिन वह चाहते थे कि उनका ‘अस्वीकार’ दर्ज हो। जब उनकी पार्टी का सवाल आया है कि उनका समर्थन करे या नहीं, उसने उनका पूरा समर्थन किया।’’

लेकिन उनकी बात सही साबित होने में ज्यादा समय नहीं लगा। इसके तुरन्त बाद, केन्द्र को रेलवे हड़ताल का सामना करना पड़ा। केरल सरकार ने रेलवे कर्मचारियों की मांग का समर्थन किया। केरल के उत्साहित कामगारों ने राज्य में केन्द्र सरकार कार्यालयों को आग लगाने की धमकी दी। नई दिल्ली ने अपनी सम्पत्ति की रक्षा के लिए केन्द्रीय सुरक्षा बल तैनात कर दिया।

यह एक अजीब स्थिति थी कि देश के किसी खास राज्य की नहीं, बल्कि देश की सम्पत्ति की रक्षा के लिए राज्य पुलिस बल कुछ नहीं करेगा। सौभाग्य से मुकाबला नहीं हुआ क्योंकि केन्द्र सरकार ने कामगारों की मांग मान ली और हड़ताल टल गई।

रेल हड़ताल का नतीजा हुआ-केन्द्रीय गृहमंत्री की अध्यक्षता में क्षेत्रीय परिषदों-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण-का गठन। इसका उद्देश्य यह था कि राज्यों में अपने मतभेद संसद में लाने से पहले आपस में चर्चा कर लें और मतभेद मिटा लें। ये परिषद तभी तक चली जब तक केन्द्र और राज्यों, दोनों में कांग्रेस की सरकारें रहीं। 

जब राज्यों में दूसरी पाॢटयों की सरकारें आ गईं तो यह व्यवस्था काम नहीं कर पाई। 1977 में कई पाॢटयों के विलय से बनी जनता पार्टी के केन्द्र में आने के साथ इस प्रयोग का अंत हो गया। यह कहा गया कि क्षेत्रीय परिषदों की जरूरत नहीं है क्योंकि सत्ता में आई पार्टी सभी का प्रतिनिधित्व करती है।

दूसरी तरह से भी, केन्द्र-राज्य के संबंध सौहार्दपूर्ण नहीं रहे हैं, खासकर  जब से भाजपा सत्ता में आई है। यह गैर-भाजपा पाॢटयों से शासित राज्यों पर अपनी विचारधारा लागू करने का रवैया रखती है। आर.एस.एस. इसकी  पैदल सेना है। इसका विपक्ष की ओर से विरोध होता है।

अगर भाजपा इस तरह की नीतियां बनाती रही, जिसमें इसकी विचारधारा का प्रतिनिधित्व हो, तो मूल संघीय ढांचे का सामंजस्य ही खतरे में पड़ जाएगा। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को ही देखना होगा और जरूरी कदम उठाने होंगे ताकि देश की एकता बनी रहे।

लेकिन दुर्भाग्य से, पांच राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में चुनाव हो रहे हैं और इन राज्यों में सत्ता हथियाने के लिए भाजपा हर संभव तरीका अपनाने पर तुली है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इन राज्यों में शासन में आने के लिए किसी भी हद तक जाएंगे। उनके हाल के चुनाव के पहले के भाषणों से संकेत मिलता है कि पार्टी के मन में क्या है।

समाजवादी पार्टी के पारिवारिक झगड़े से भाजपा का मतलब काफी हद तक सध गया है। हालांकि मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि वह पार्टी के अध्यक्ष हैं और पक्का करेंगे कि सपा में एकता रहे। लेकिन उनके भाई शिवपाल यादव खेल बिगाडऩे वाले मालूम होते हैं। विधायकों का बहुमत मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ है और उन्हें हटाने का कोई सवाल पैदा नहीं होता है।

शायद यह बात का बतंगड़ हो लेकिन इससे पार्टी की छवि को धक्का लगा है। अखिलेश को लाभ होना तय है क्योंकि मतदाताओं के सामने उनकी छवि है कि वह एक साफ आदमी है जो पारदर्शी सरकार चलाना चाहता है। जनकल्याण के उनके कदम भी उन्हें लोगों के बीच बेहतर जगह देंगे। इसमें कोई अचरज नहीं कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांग्रेस भी सपा के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन करना चाहती है।

पंजाब में कोई अलग नजारा नहीं है। अकाली-भाजपा गठबंधन फिर से सत्ता में आ सकता है क्योंकि आम आदमी के पास कोई पंजाबी मानो इस राज्य का ही कोई चेहरा पेश करने के लिए नहीं है। उत्तराखंड में, अदालत के हस्तक्षेप के पहले भाजपा ने जिस तरह रावत सरकार को सत्ता से हटाने के लिए प्रयास किया कि कांग्रेस बच निकल सकती है। गोवा और मणिपुर में स्थानीय तत्वों के महत्वपूर्ण होने की संभावना है लेकिन भाजपा के प्रभाव बढऩे से इंकार नहीं किया जा सकता जब कांग्रेस अकेला विकल्प नहीं रह गई है।

चुनावों के जो भी नतीजे हों, भाजपा शासित केन्द्र-राज्यों में जो कुछ हो रहा है उससे अपनी आंखें मूंद नहीं सकता है, खासकर पश्चिम बंगाल में, जहां वह कमजोर है। कांग्रेस और भाजपा के बीच रोजाना हो रहे झगड़े से परिस्थिति और भी खराब होगी तथा यह लोगों को लोकतांत्रिक व्यवस्था के ही खिलाफ सवाल करने को उकसाएगा। 

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