लोगों में सही विकल्प चुनने की ‘जागरूकता’ पैदा करना जरूरी

Edited By ,Updated: 21 Feb, 2017 12:16 AM

choose the right people  s awareness  necessary to create

लगभग 500 वर्ष पूर्व ऐसा जमाना था जब हर कोई भारत आना चाहता था। वास्को डीगामा और कोलम्बस  जैसे पता नहीं कितने लोग और कितने हजार जलपोत ...

लगभग 500 वर्ष पूर्व ऐसा जमाना था जब हर कोई भारत आना चाहता था। वास्को डीगामा और कोलम्बस  जैसे पता नहीं कितने लोग और कितने हजार जलपोत भारी-भरकम खतरों से खेलते हुए भारत की ओर चल निकले थे। वे किसी न किसी तरह भारत पहुंचना चाहते थे क्योंकि इस ग्रह पर यह सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्था थी। गत 250 वर्षों में हम बहुत नीचे  खिसक गए हैं, बिल्कुल सही अर्थों में औंधे मुंह गिर गए हैं। गुजरे जमाने में हर कोई यहां आना चाहता था और आज यहां कोई रहना नहीं चाहता।

एक बार फिर हमें ऐसा प्रयास करने की जरूरत है कि हर कोई यहां आने को लालायित हो उठे। हम किस तरह का व्यवहार करते हैं और अपने कत्र्तव्यों को किस तरह अंजाम देते हैं, इसी से यह निर्णय होगा कि लोग इस देश में आना पसंद करेंगे या यहां से दूर भागना। हमें अवश्य ही ऐसी स्थिति सृजित करनी होगी कि लोग इस देश में आना पसंद करें।

आप अपने जूते किस प्रकार संभालते हैं, से लेकर आपके सैर करने और गली में से कार निकालने का तौर-तरीका तथा लोगों के साथ बातचीत करने का सलीका जैसी साधारण सी बातोंकी संस्कृति हमें जगत में फैलाने की जरूरत है...यदि ये चीजें बदल जाती हैं तो बाहरी देशों के लोग यहां आना पसंद करेंगे। हमें प्रयास करने होंगे कि ऐसी स्थिति पैदा हो जाए। यदि लोग भारत में केवल इसलिए रहें कि उनके जाने के लिए अन्य कोई जगह नहीं तो यह स्थिति जेल में रहने जैसी होगी। यदि दुनिया भर से हर कोई यहां आना चाहता है तो यह एक देश नहीं बल्कि एक घरहोगा।

आज का समाज बदलाव की अवस्था में है, यानी कि अर्थव्यवस्था  के एक स्तर से दूसरे की ओर जा रहा है। आगामी वर्षों में तो यह गति नाटकीय  आयाम धारण कर लेगी। हमें उम्मीद है कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी यह प्रक्रिया अपनी पैठ बना लेगी। निश्चय ही ऐसा होकर रहेगा। यदि हम इस प्रक्रिया का रास्ता सुखद बनाते हैं तो यह घटनाक्रम तेजी से और बढिय़ा ढंग से साकार होगा। यदि हम इसके रास्ते में कांटे बिछाएंगे तो भी यह प्रक्रिया  रोकी नहीं जा सकेगी लेकिन तब यह बदलाव जबरदस्ती होगा और पीड़ादायक होगा।

विश्व की मुद्रा प्रणालियां और निवेश प्रक्रियाएं भारत को गच्चा देकर निकल जाती रही हैं क्योंकि वे हमसे भयभीत थीं-हमारे भ्रष्टाचार और अक्षमता, हर चीज में गड़बड़ी करने की हमारी प्रवृत्ति तथा शुरू किए गए ढेर सारे कामों को पूरा ही न करने की हमारी आदत से भयभीत थीं। अब यह छवि  नाटकीय रूप में बदल रही है और आप अपनी आंखों से चीजों को केवल बदलते ही नहीं बल्कि बहुत तेजी से बदलते देखेंगे। ऐसा होना अटल है।

जब वित्तीय स्थिति बदलती है तो हमें समाज में आने वाले बहुत से नाटकीय  सांस्कृतिक बदलावों के लिए भी अवश्य ही तैयार रहना होगा। संस्कृति चाहे कोई भी हो, जब वित्तीय स्वतंत्रता का बोलबाला होता है तो इसके साथ ही संस्कृति के आधारभूत  तत्व भी बदल जाते हैं। जब प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मनपसंद का विकल्प चुनने का सामथ्र्य हासिल हो जाता है तो यह अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाता है कि हम उस व्यक्ति में सही विकल्प चुनने की वांछित जागरूकता पैदा करके उसका सशक्तिकरण करें। अधिकतर समाजों में आॢथक समृद्धि के साथ ही ढेर सारी समस्याएं किसी अभिशाप की तरह प्रवेश कर गईं क्योंकि व्यक्तिगत स्तर पर लोगों के अंदर सही विकल्प चुनने की वांछित जागरूकता मौजूद नहीं थी।

आर्थिक प्रगति की बजाय  मोटे रूप में मानव मात्र के लिए जिंदगी सुखद बनाने हेतु संबंधित देश यासमाज की एक पीढ़ी अनिश्चितता का दंश भोगती है क्योंकि उसमें सही विकल्प चुनने की योग्यता नहीं होती। उदाहरण के तौर पर वर्तमान में अमरीका विश्व का सबसे धनाढ्य देश है। 1930 के वर्षों में उसे बहुत जबरदस्त मंदी में से गुजरना पड़ा था जब नागरिकों के लिए भोजन हासिल करना भी  समस्या बन गई थी। फिर दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। तब बहुत बड़ी उथल-पुथल हुई और इसने  लाखों ही नहीं, करोड़ों लोगों की  जान ली।

युद्ध समाप्त होने के बाद वाली अमरीकी पीढ़ी ने सचमुच ही बहुत कठोर परिश्रम किया और अपने देश को फिर से पटरी पर लाने में सफल हुई। 1960 के वर्षों में आर्थिक उभार का दौर था लेकिन लोगों की उस पीढ़ी ने अधिकतर मामलों में गलत विकल्प चुने और लगभग 15-20 वर्षों तक नशीले पदार्थों, शराब तथा अन्य बुरी आदतों का इतना बोल-बाला रहा कि अमरीकी समाज पथभ्रष्ट हो गया। ऐसा लगने लगा था कि पूरा का पूरा राष्ट्र ही एक बार फिर पटरी से उतर गया है लेकिन 1970 से 1980  के बीच के वर्षों में बदलाव आना शुरू हुआ और वे संभलगए।

आध्यात्मिक प्रक्रिया यह सुनिश्चित कराने का एक रास्ता है कि लोगों में सही विकल्प चुनने की वांछित जागरूकता पैदा हो जाए। जब समृद्धि आती है तो जागरूक लोगों का दिमाग खराब नहीं होता। यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। गरीबी एक बहुत भयावह समस्या है लेकिन जैसे ही लोग इसके चंगुल से बाहर निकलते हैं तो बहुत से लोगों के दिमाग में उत्पात मच जाता है और वे नई समस्याओं को बुलावा दे देते हैं। हम यह देखना पसंद करेंगे कि देश में जो आर्थिक उभार आ रहा है लोग उसका आनंद उठाएं क्योंकि वे केवल भुखमरी के ही सताए हुए नहीं बल्कि हर चीज से वंचित रहे हैं।

आर्थिक गतिविधियां बहुत बड़े पैमाने पर चल रही हैं और वे सही दिशा में आगे बढ़ रही हैं लेकिन सांस्कृतिक, सामाजिक और व्यक्तिगत स्तरों पर यदि तेज गति से नहीं तो कम से कम इतनी ही गति से जन मानस का चैतन्य भी बदलना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तो बढिय़ा से बढिय़ा अर्थशास्त्र भी कल्याणकारी की बजाय अभिशाप सिद्ध होगा।

हमें ऐसा करना ही होगा ताकि गली-मोहल्लों में विचरण कर रहे सभी लोग किसी न किसी हद तक जागरूक हों और अपने आस-पड़ोस रहने वाले व्यक्तियों के प्रति भी ङ्क्षचता करें। हर किसी को बिना कोई हो-हल्ला किए अवश्य ही लगातार यह जागरूकता अपनानी होगी कि यह प्रक्रिया हर हालत में अवघटित होकर रहे। आप चाहें कहीं भी हों आपका लगातार जागरूक रहना आवश्यक है। आप जो भी गतिविधि करते हैं, आपको सुनिश्चित करना होगा कि इसका प्रसार हो। ऐसा होगा तो दुनिया बिल्कुल अलग तरह की बन जाएगी। 

लोगों को कुछ अधिक स्पष्टता से तथा कुछ अधिक ध्यान केन्द्रित करते हुए सोचना होगा। यह अत्यंत आवश्यक है कि इस ङ्क्षचतन प्रक्रिया पर जाति, पंथ या मजहब का दुष्प्रभाव न पड़े।  हर किसी को बिल्कुल सीधे ढंग से सोचने की जरूरत है। इस घटनाक्रम को सुनिश्चित करने में आध्यात्मिक प्रक्रिया बहुत सशक्त हथियार बन सकती है।                (साभार ‘मिंट’)

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