कांग्रेस-सपा की यारी ने बढ़ाई भाजपा की ‘दुश्वारी’!

Edited By ,Updated: 24 Jan, 2017 12:23 AM

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कहा जाता है कि भारतीय लोकतांत्रिक सियासत की बहुमंजिली इमारत बेहद कमजोर संभावनाओं की नींव पर टिकी है। यानी चुनावी ऊंट कब कौन-सी करवट ले

कहा जाता है कि भारतीय लोकतांत्रिक सियासत की बहुमंजिली इमारत बेहद कमजोर संभावनाओं की नींव पर टिकी है। यानी चुनावी ऊंट कब कौन-सी करवट ले ले, यह आखिर तक पता नहीं चल पाता। हां,  कयासबाजी के मामलों में जनता और मीडिया का तो जवाब नहीं है। वे तकरीबन हर रोज सबको जिताते-हराते रहते हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया जैसे लोकतांत्रिक प्रणाली के सशक्त स्तंभ से लोगों का विश्वास धीरे-धीरे कम हो रहा है।

खैर, हम चर्चा कर रहे हैं देश के सबसे बड़े राज्य यू.पी. के विधानसभा चुनाव की। इस चुनाव को लेकर भी तमाम तरह की कयासबाजियां चल रही हैं। जब तक कांग्रेस-सपा के बीच तालमेल नहीं हुआ था तब तक तकरीबन सारे माध्यम यू.पी. में भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की बात कर रहे थे। कई मीडिया संस्थानों ने तो भाजपा की सरकार तक बनवा दी थी। पर जब से कांग्रेस-सपा के बीच गठबंधन हुआ है तब से भाजपा की तरफदारी करने वालों को सांप सूंघ गया है। अब उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा कि आखिर आकलन को किस ओर मोड़कर भाजपा को जीतते हुए बताया जाए।

दरअसल नोटबंदी के कारण पैदा हुई अव्यवस्था से भाजपा के खिलाफ  वोटरों का जो मिजाज बना हुआ था,  उस आग में कांग्रेस-सपा गठबंधन ने घी डालने का काम कर दिया। यूं कहें कि यू.पी. में भाजपा के खिलाफ पहले से ही माहौल तैयार हो रहा था, इस बीच कांग्रेस-सपा के गठबंधन ने भाजपा की दुश्वारियां और बढ़ा दीं। ये हालात भाजपा के रणनीतिकारों के लिए ङ्क्षचता का सबब बने हुए हैं।गौरतलब है कि यू.पी. चुनाव के मद्देनजर काफी जद्दोजहद के बाद कांग्रेस-सपा के बीच गठबंधन हुआ। इसका पूरा श्रेय प्रियंका गांधी और डिम्पल यादव को दिया जा रहा है। हालांकि कांग्रेस-सपा के साथ मिल कर चुनाव लडऩे के कयास तभी से लग रहे थे जब कांग्रेस के सलाहकार सी.एम. अखिलेश यादव से मिले थे।

फिलहाल यह तय हुआ है कि कांग्रेस 105 व सपा 298 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। यह फार्मूला बिहार विधानसभा चुनाव में हुए महागठबंधन के नतीजों से प्रेरित लग रहा है। बीते लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ही सपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरी है। पिछले विधानसभा चुनाव में यू.पी. में सपा को करीब 30 फीसदी वोट मिले थे, फलत: उसने पूरे बहुमत से सरकार बना ली थी। मगर लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत घटकर 22 फीसदी रह गया।

इसी तरह कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में मिले करीब 12 फीसदी वोट लोकसभा चुनाव में घटकर करीब 8 फीसदी रह गए। जाहिर है, अगर ये दोनों दल अपने दम पर चुनाव लड़ते तो उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ता। अब इनके साथ-साथ चुनाव लडऩे से बड़ा फायदा यह होने की उम्मीद है कि बिखरे हुए मुस्लिम वोटर इस गठबंधन के साथ हो सकते हैं।

अब तक यू.पी. चुनावों का गणित यही रहा है कि जिस दल से मुस्लिम वोटर जुड़ा है, वही जीतता रहा है। इस स्थिति में सपा को एक ऐसे दल का साथ जरूरी था जो समाजवादी सिद्धांतों में यकीन करते हुए सांप्रदायिकता का विरोध करे। इस तरह कांग्रेस, रालोद और दूसरे कई दल उसके साथ आने को तैयार दिखे। कांग्रेस लंबे समय से यू.पी. में सत्ता से दूर है, उसे भी उम्मीद है कि वह सपा से मिल कर अपना आधार मजबूत कर ले जिसका लाभ उसे शायद वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में मिले।

विदित है कि सपा में आंतरिक कलह के बावजूद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के व्यक्तित्व में निखार आया है। यही वजह है कि जहां भी सपा की चर्चा हो रही है तो पार्टी के अन्य नेताओं की बजाय अखिलेश यादव पर ही ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। कहा तो यह भी जा रहा है कि अखिलेश यादव का कांग्रेस से गठबंधन होना संजीवनी का काम करेगा। यानी कांग्रेस अखिलेश को सियासी जीवन-दान दे सकती है, इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

बताते हैं कि सपा की आंतरिक कलह से जो भी थोड़ा-बहुत नुक्सान हुआ था, उसकी भरपाई कांग्रेस की पहले से ही बनी-बनाई रणनीति कर देगी। समझा जा रहा है कि कांग्रेस के साथ अखिलेश का गठबंधन उस मुस्लिम वोट को भी बसपा की ओर जाने से रोकेगा, जिसे पाने के लिए बसपा सुप्रीमो मायावती ने अन्य सभी दलों से ज्यादा मुस्लिमों को टिकट दिया है। बसपा ने 97 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं, जबकि सपा ने 57 मुस्लिमों को टिकट दिए हैं। यूं कहें कि कांग्रेस एवं सपा के साथ आने से दोनों दलों के मुस्लिम मतों के आधार पर आपस में आसानी से एकजुट हो सकते हैं।

पिछले चुनाव में 39 फीसदी मुस्लिमों ने सपा और 18 फीसदी मुस्लिमों ने कांग्रेस को वोट दिया था। इस प्रकार यह कह सकते हैं कि दोनों दलों के मुस्लिम आधार चुनाव परिणाम पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं। आपको बता दें कि अगस्त 2016 में यू.पी. विधानसभा चुनाव को लेकर लोकनीति-सी.एस.डी.एस. का एक ओपिनियन पोल आया था जिसमें कहा गया था कि यदि अभी चुनाव हुए तो सत्तारूढ़ सपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी।भाजपा सपा को कड़ी टक्कर देकर दूसरे नंबर पर रहेगी, जबकि बसपा तीसरे नंबर पर रहेगी। तब उस सर्वे का आकलन गलत प्रतीत हो रहा था, लेकिन अब जो हालात बन रहे हैं, उससे लग रहा है कि स्थितियां कांग्रेस-सपा के पक्ष में बनती जा रही हैं।

उपरोक्त के अलावा भाजपा के खिलाफ  एक बात और जा रही है कि वह परिवारवाद को लेकर हमेशा से विपक्ष पर हमलावर होने के बावजूद खुद परिवारवाद की सबसे प्रतीक पार्टी बन गई है। यू.पी. चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने उम्मीदवारों की जो दूसरी लिस्ट जारी की है उसमें 155 उम्मीदवारों के नाम हैं।भाजपा की इस लिस्ट से स्पष्ट हो गया कि परिवारवाद को लेकर अन्य दलों पर हमला करने वाली भाजपा का यह हमला केवल दिखावा और फर्जी है। भाजपा की दूसरी लिस्ट जो परिवारवाद की पिक्चर दिखा रही है, उनमें भाजपा के वरिष्ठ नेता लालजी टंडन के पुत्र गोपाल टंडन, केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के पुत्र पंकज सिंह, सांसद हुकुम सिंह की पुत्री मृगांगिका सिंह, पार्टी नेता बृजभूषण शरण सिंह के पुत्र प्रतीक शरण सिंह, भाजपा नेत्री प्रेमलता कटियार की पुत्री नीलिमा कटियार, ब्रह्मदत्त द्विवेदी के पुत्र सुनील दत्त द्विवेदी, स्वामी प्रसाद मौर्य के पुत्र उत्कृष्ट मौर्य और कल्याण सिंह की बहू प्रेमलता सिंह को टिकट देना है।

एक और गंभीर मसला है, जो भाजपा को सवालों के घेरे में ला रहा है,  उनमें स्टार प्रचारकों की लिस्ट में पार्टी के दिग्गज नेता लाल कृष्ण अडवानी, मुरली मनोहर जोशी, युवा सांसद वरुण गांधी और विनय कटियार का नाम शामिल न होना भी है। चूंकि भाजपा खुद को एक बेहद कल्चर्ड पार्टी बताती है, फिर वह किस कल्चर को अपना रही है? यह सवाल भी वोटर उससे पूछ सकता है। सूत्रों का कहना है कि यू.पी. में कांग्रेस-सपा गठबंधन में प्रियंका गांधी और डिम्पल यादव की भूमिका अहम रही है। समझा जा रहा है कि यही दोनों नेत्रियां प्रदेश में प्रचार की कमान भी संभालेंगी। यह सबको पता है कि प्रियंका और डिम्पल को देखने के लिए पूरा प्रदेश लालायित रहता है। इसलिए लबोलुआब यह है कि कांग्रेस और सपा के गठबंधन ने भाजपा की दुश्वारियों को पहले से ज्यादा बढ़ा दिया है।

रहा सवाल बसपा का तो मायावती के नेतृत्व वाली बसपा की संभावनाएं भाजपा की अपेक्षा बेहतर हैं। खैर मतदान के दिन तक हालात किस प्रकार बनते-बिगड़ते हैं, यह देखने वाली बात है। उधर  कांग्रेस आई.टी. सैल के प्रमुख राहुल पांडे के निर्देशन में दिल्ली के संयोजक विशाल कुन्द्रा और यू.पी. के पवन दीक्षित ने विपक्ष पर ताबड़तोड़ हमले आरंभ कर दिए हैं। बहरहाल, देखना यह है कि यू.पी. में राहुल-अखिलेश, प्रियंका-डिम्पल, गुलाम नबी आजाद, राज बब्बर और शीला दीक्षित, प्रमोद तिवारी की जोडिय़ां कितना काम कर पाती हैं। क्योंकि यू.पी. की लड़ाई कोई आसान नहीं है और राज्य में विजेता बनने के लिए भाजपा तथा बसपा भी पूरी ताकत झोंक देंगी, इसमें कोई शक नहीं है।बहरहाल,  देखना है कि क्या होता है? उधर भाजपा से मुकाबले के बाबत एक सवाल के जवाब में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता तहसीन पूनावाला कहते हैं, ‘‘भाजपा की हवा निकल चुकी है। अब उसके लिए जनसमर्थन पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।’’

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