जनाधार और दिशा खो रही है कांग्रेस

Edited By ,Updated: 24 May, 2016 01:33 AM

congress is losing mass and direction

जब बड़ी कठिन परिस्थिति सामने आती है तो राह भी कठिन बन जाती है किन्तु कांग्रेस के शब्दकोष में ऐसा नहीं है। इसके बजाय पार्टी तो ...

(पूनम आई. कौशिश): जब बड़ी कठिन परिस्थिति सामने आती है तो राह भी कठिन बन जाती है किन्तु कांग्रेस के शब्दकोष में ऐसा नहीं है। इसके बजाय पार्टी तो इस कहावत पर चलना चाहती है तो भागते चोर की लंगोटी ही सही। मोटे तौर पर कहें तो पार्टी मुकाबला करने से भागती है और अब सोचती है कि चलना तो है पर कहां। हाल के विधानसभा चुनावों में पार्टी को असम और केरल में हार का मुंह देखना पड़ा। पश्चिम बंगाल में दूसरे स्थान पर और तमिलनाडु में तीसरे स्थान पर रही। 

 
यह पार्टी के लिए एक बड़ा झटका है और यह बताता है कि लोकसभा चुनावों के बाद से पार्टी का पतन जारी है। लोकसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन अपने निम्नतम स्तर 44 सीटों तक आ गया था। लोकसभा चुनावों के बाद पार्टी ने 9 राज्यों में विधानसभा चुनावों में हार का सामना किया और आज वह सिर्फ 6 राज्यों-कर्नाटक, हिमाचल, उत्तराखंड, मणिपुर, मिजोरम और मेघालय में सत्तारूढ़ है। बिहार में वह नीतीश-लालू के महागठबंधन में जूनियर पार्टनर है। 
 
यही नहीं पार्टी को 125 करोड़ जनता में से केवल 6 प्रतिशत का समर्थन प्राप्त है, जो 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी सरकार का विकल्प बनने की उसकी महत्वाकांक्षा के समक्ष बड़ी अड़चन है। व्यक्तिगत तौर पर विधानसभा चुनावों के परिणामों से कांगे्रस अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी की ताजपोशी में और विलम्ब होगा। पार्टी में पहले ही  संगठन में फेरबदल करने की आवाजें उठ रही हैं और वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने तो पार्टी में मेजर सर्जरी की मांग कर डाली है। 
 
पार्टी ने विधानसभा चुनावों के परिणामों का विश्लेषण अपनी तरह से किया है। पार्टी ने सोनिया-राहुल मां-बेटे में विश्वास प्रकट किया है। सोनिया गांधी ने गहन आत्मावलोकन का आह्वान किया है और एक नए जोश के साथ पार्टी को जनता की सेवा करने के लिए कहा है, जबकि राहुल ने इस हार का दोष आसानी से प्रदेश इकाइयों पर डाला है और इसमें सुधार करने की बात कही है। साथ ही उन्होंने कहा है कि पार्टी और कड़ी मेहनत करेगी। क्या वास्तव में ऐसा है? राहुल भूल गए कि एक नेता के रूप में उन्हें जिम्मेदारी लेनी होगी। एक के बाद एक हार पर पार्टी में ङ्क्षचता बढ़ती जा रही है। सोनिया गांधी पिछले 18 वर्षों से कांग्रेस अध्यक्ष हैं। पार्टी में गुटबाजी जारी है जिससे प्रश्न उठता है कि जब पार्टी एक के बाद एक राज्य में हार रही है तो वह फिर देश पर शासन करने का सपना कैसे देख सकती है। 
 
नेताओं में असंतोष है, कार्यकत्र्ता हताश और दिशाहीन हैं और वे व्यक्तिगत तौर पर पार्टी की इस हार का दोष राहुल और उनकी चाटुकार मंडली को देते हैं। 50 दिन की छुट्टी मनाने के बाद राहुल गांधी अपने विचार व्यक्त करने लगे थे किन्तु वे लोकसभा चुनावों की हार के बाद पार्टी के केन्द्रीय संगठन में कोई बड़ा बदलाव नहीं कर पाए। 
 
पार्टी छोड़ चुके नेता उनकी आलोचना करते हैं कि वे अपने आसपास उच्च जातीय लोगों को रखना चाहते हैं। इसका उदाहरण असम के हेमन्त बिश्व सरमा हैं जिनकी इस समय राज्य में भाजपा की जीत में बड़ी भूमिका रही है और उन्होंने पार्टी को इसलिए छोड़ा कि राहुल गांधी गोगोई पिता-पुत्र से परे पार्टी को मानते ही नहीं हैं इसीलिए अनेक कांग्रेसी नेता चाहते हैं कि सोनिया अध्यक्ष बनी रहें। कुछ कांग्रेसी नेता यह भी सुझाव देते हैं कि प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाया जाए। 
 
एक अन्य नेता व्यंग्यात्मक अंदाज में कहते हैं, ‘‘हमारे राजनेता फिर से पार्टी को खड़ा करना चाहते हैं किन्तु वे पार्टी को सफलता कैसे दिलाएंगे जब उनकी बैलेंस शीट में ही कुछ नहीं है।’’ दुखद तथ्य यह है कि राहुल को असफल स्वीकार करने की बजाय उनकी चाटुकार मंडली बहाने बनाती रहती है। साथ ही राहुल और पुराने नेताओं के बीच भी संबंधों में गर्मजोशी नहीं है। यही नहीं पहली बार कांग्रेसी सोनिया द्वारा हर कीमत पर अपने बेटे का संरक्षण करने के इरादों और नीति पर गुपचुप रूप से प्रश्न उठाने लगे हैं। सोनिया के अनुसार हमें इन हारों से व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से सबक लेने चाहिएं। 
 
इस सबका सबसे दुखद पहलू यह है कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होता जा रहा है और पार्टी के कार्यकत्र्ता तथा नेता किसी भी पहल के लिए नेतृत्व पर निर्भर हो गए हैं और अगर नेतृत्व की ओर से कोई पहल नहीं की जाती है तो पार्टी जड़ बन जाती है। 
 
पार्टी की नाम निर्देशन की संस्कृति में केवल वे लोग फल-फूल रहे हैं जो नेतृत्व के प्रति निष्ठावान हैं और राजनीतिक परजीवी होने के कारण ये नेता व्लादिमिर नैबोकोव की ‘लोलिता’ के समान निष्ठावान हैं। धीरे-धीरे किन्तु निश्चित रूप से कांग्रेस स्वयं को अस्तित्व के संकट में पा रही है। पार्टी के समक्ष अनेक चुनौतियां हैं। राहुल गांधी की कार्यशैली का प्रभावीपन, पार्टी में आंतरिक प्रयोग, एक अनिच्छुक नेता  का टैग, इसके अलावा आज कांग्रेस में छुटभैये नेता जमा हो गए हैं। 
 
आज पार्टी की सोच इतनी वंशवादी बन गई है कि कोई अन्य नेता के बारे में  नहीं सोच सकता है और यह इसलिए भी विडम्बनापूर्ण है कि पार्टी में प्रतिभा की कमी नहीं है। पार्टी में ऐसे अनेक नेता हैं जो सफल रहे हैं किन्तु प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेसी उन्हें स्वीकार करेेंगे और क्या वे पार्टी चला पाएंगे?
 
आज कांग्रेस को अपने कार्यकत्र्ताओं का मनोबल बढ़ाना होगा, अपनी इकाइयों में एकता स्थापित करनी होगी, संगठन में बदलाव करना होगा और युवा नेताओं को आगे लाना होगा, राज्यों में नए नेताओं को बढ़ावा देना होगा अन्यथा उसे 2019 के चुनावों में सत्ता में आने की आस छोड़ देनी चाहिए। राहुल को भी अपना नेतृत्व स्थापित करने में जटिल स्थितियों का सामना करना होगा। गत वर्षों में कांग्रेस में एक डर वाली सोच विकसित हो गई है जिसमें निष्ठावान और चाटुकारों को लाभ मिलता है और इसको समाप्त करना आसान नहीं है। राहुल गांधी लगता है स्वयं दरबारी संस्कृति को पसंद नहीं करते हैं किन्तु इस दरबारी संस्कृति को तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक स्वयं उनकी योग्यता सिद्ध न हो।
 
पार्टी नेतृत्व के रूप में स्वयं को स्थापित करते समय राहुल गांधी को आमूल-चूल परिवर्तन में कम विश्वास रखना होगा। अब पार्टी को पंजाब, उत्तर प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनावों का सामना करना है जो राहुल गांधी के नेतृत्व और पार्टी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि इन चुनावों में भी कांग्रेस की हार होती है तो पार्टी में बिखराव आ सकता है विशेष रूप से इसलिए कि पार्टी कार्यकत्र्ता और नेताओं द्वारा राहुल को बिना किसी सफलता के हमेशा प्रयासरत के रूप में देखा जाएगा। 
 
कुल मिलाकर जब तक सोनिया-राहुल की कांग्रेस जिम्मेदारी लेने से बचती रहेगी तब तक पार्टी का पतन जारी रहेगा। यह भारत के लिए भी अच्छा नहीं है क्योंकि एक मजबूत विपक्ष सरकार पर अंकुश लगाता है। क्षेत्रीय दलों की मोहल्ला मानसिकता और अदूरदॢशता के कारण उनका उदय देश के लिए अच्छा नहीं है। अत: समय आ गया है कि पार्टी निष्क्रिय पड़े नेताओं से पल्ला झाड़े। निहित स्वार्थी तत्वों से दूरी बनाए। 
 
यह सच है कि पार्टी में कोई भी राहुल गांधी के विरुद्घ कार्रवाई की मांग नहीं कर सकता है किन्तु यदि वे अपने यथास्थितिवादी दृष्टिकोण को जारी रखते हैं तो फिर पार्टी में तूफान को शांत करना मुश्किल हो जाएगा। 
 
एक नेता के रूप में फिर से उबरने के लिए राहुल गांधी को अपनी कार्यशैली में सुधार लाना होगा, अपना नेतृत्व स्थापित करना होगा और पार्टी का विश्वास जीतना होगा। साथ ही राहुल गांधी को दिखावे से दूर रहना होगा। उन्हें एक सामूहिक कार्यशैली विकसित करनी होगी और अपनी क्षमता के बारे में जनता का विश्वास जीतना होगा और देश के समक्ष प्रमुख समस्याओं का समाधान सुझाना होगा। यदि पार्टी में पुराने नेताओं और युवा नेताओं के बीच आंतरिक मतभेद जारी रहा तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। 
 
कांग्रेस को यह समझना होगा कि आत्मावलोकन का समय बहुत पहले बीत चुका है। अब उसे यदि पतन से बचाना है तो तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए। राजनीति ऐसी निर्मम दासी है जो कभी माफ नहीं करती है। यदि पार्टी का पतन यूं ही जारी रहा तो यह देश की सबसे पुरानी पार्टी के लिए दुखद होगा। इसलिए पार्टी को मां-बेटे की क्षमताओं का आकलन करना होगा और अपनी दुविधा की स्थिति का समाधान ढूंढना होगा। पार्टी को यह भी समझना होगा कि गांधी परिवार से परे भी क्षमतावान नेता हैं अन्यथा मिर्जा गालिब का यह शे’र पार्टी पर लागू होगा : उम्र भर हम यूं ही गलती करते रहे, धूल चेहरे पर थी और हम आइना साफ करते रहे।       

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