देश की शिक्षा नीति और शिक्षा में भ्रष्टाचार

Edited By ,Updated: 18 Feb, 2017 12:46 AM

corruption in the country  s education policy and education

पिछले दिनों काफी लम्बे समय से चर्चा में रहे कुख्यात व्यापमं घोटाले का फैसला आया कि जो व्यक्ति धोखाधड़ी के जरिए एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई करने में ...

पिछले दिनों काफी लम्बे समय से चर्चा में रहे कुख्यात व्यापमं घोटाले का फैसला आया कि जो व्यक्ति धोखाधड़ी के जरिए एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई करने में कामयाब हो गए हैं उनकी डिग्रियां कैंसिल कर दी जाएं। एक अच्छा फैसला है लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि इस तरह के घोटाले या यूं कहें कि शिक्षा व्यवस्था को तार-तार कर देने का सिलसिला रुक पाएगा? बिहार का टॉपर घोटाला भी बहुत चर्चा में रहा जिसमें डिग्री को एक फैक्टरी से निकले सामान की तरह बेचा गया।

प्रश्न यह नहीं है कि इस तरह की धोखाधड़ी शिक्षा के क्षेत्र में कोई नई बात है, बल्कि दुखद स्थिति यह है कि क्या हमारी शिक्षा नीति इतनी लचर है कि पढ़ाई करो या न करो, कोई फर्क नहीं पड़ता। डिग्री, डिप्लोमाऔर यहां तक कि उच्च शिक्षा के सर्टीफिकेट हासिल करना ही काफी है क्योंकि नौकरी पाने में, विशेषकर सरकारी कार्यालयों में, इससे आसानी हो जाती है।  बस थोड़ा-सा हाथ का मैल कहा जाने वाला पैसा ही तो फैंकना है।

शिक्षा की अमीरी-गरीबी: हमारे देश में जिस तरह एक छोटा-सा वर्ग बहुत ही ज्यादा पैसे वाला है और दूसरा एक बहुत ही बड़ा वर्ग गरीबी में जीता है, मतलब अमीरी और गरीबी का मुकाबला है, इसी तरह हमारे देश  में एक ओर तो मु_ी भर लोगों के पास शिक्षा का अनुपम भंडार है और वे अपनी प्रतिभा से देश-विदेश में नाम कमा रहे हैं।

इसरो की हाल की सफलता इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। विज्ञान,औषधि, सूचना, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, प्रबंधन और अंतरिक्ष तक में भारतीयों का डंका बज रहा है। इसके विपरीत एक बहुत बड़ा वर्ग उन करोड़ों लोगों का है जो निरक्षर, मामूली पढ़े-लिखे और बस किसी तरह कोई छोटी-मोटी नौकरी का जुगाड़  कर सकने के लायक ही शिक्षित हैं।

विशेषज्ञ बनाम राजनीतिज्ञ : यह एक निॢववादसत्य है कि चाहे पैसे का अंतर हो या शिक्षा की खाई, इनदोनों को तब तक कम नहीं किया जा सकताजबतक हमारी आॢथक नीति और शिक्षा नीति का संचालन ऐसे व्यक्तियों के हाथों में नहीं होगा जो इन क्षेत्रों के विशेषज्ञहों और उसमें भी शर्त यह है कि वे राजनीति के क्षेत्र सेन हों।

इसे इस तरह से समझना ठीक होगा कि वर्तमान में हो रहे राज्य विधानसभाओं तथा पिछली लोकसभा के चुनाव में खड़े  होने वाले उम्मीदवारों की शैक्षणिक और व्यावसायिक योग्यता पर नजर डाल लीजिए, पता चल जाएगा कि उनमें ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जो अनपढ़, 5वीं से 8वीं तक पढ़े या किसी तरह स्नातक की डिग्री हासिल कर लेने वाले उम्मीदवार हैं या रहे हैं। 

इस स्थिति का कारण यह है कि राजनीति में आने वाले लोग यह मान कर चलते हैं कि नेतागिरी के आवरण में समाज-सेवा का मुखौटा पहनकर वह सब करने की छूट मिल जाती है जो पढ़ा-लिखा व्यक्ति करना भी चाहे तो कर नहीं सकता क्योंकि नैतिकता, ईमानदारी और देश प्रेम उसके आगे आकर खड़ा हो जाता है तथा वह उचित और अनुचित का फर्क समझने के काबिल हो जाता है।

आमतौर से राजनीति में आने और नेता बनने की कसौटी यही मानी जाती रही है कि अपने दबदबे से किसी अपराधी को जेल से छुड़ा लाना, झुग्गी-झोंपडिय़ों का निर्माण कर सरकारी जमीन पर कब्जा कर लेना और अपनी हेकड़ी के बल पर स्कूलों, कालेजों में कुपात्र लोगों को भर्ती करवा देना तथा बाद में अपनी दादागिरी का सिक्का चलाकर नाकाबिल लोगों को नौकरियां दिलवाकर अपनी ताकत दिखाना। अब ये लोग जब विधायक, सांसद और उसके बाद मंत्री पद पा जाते हैं तो कैसी नीतियां बनेंगी, उसकी कल्पना की जा सकती है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, अंगूठा छाप मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री तक मिल जाएंगे।

इस तरह की राजनीतिक व्यवस्था में घोटाले होतेरहना, फर्जी डिग्रियों का व्यापार पनपते जाना और अयोग्यताका सम्मान होना कोई अजूबा नहीं है बल्कि यह तो हमारीनियति का हिस्सा है क्योंकि जैसे बीज बोए हैं फल भी तो वैसा ही मिलेगा। इसमें आश्चर्य क्या?

हमारी सरकारें शिक्षा को लेकर कितनी गंभीर हैं, यह इस बात से उजागर हो जाता है कि शिक्षा बजट में जब बढ़ौतरी की बात होती है तो उसके समर्थन में बहुत कम लोग खड़े होते हैं और शिक्षा को महत्वहीन विषय समझकर उपेक्षा कर दी जाती है। इस स्थिति में बजट मामूली बढ़ पाता है वर्ना ज्यादातर तो वह कम ही होता जाता है।

शिक्षा नीति: जहां तक सरकार द्वारा निर्धारित शिक्षा नीति 2016 का संबंध है, उसमें कहा गया है कि ‘देश की 54 प्रतिशत आबादी 24 वर्ष से कम आयु वर्ग में आती है इसलिए जरूरत इस बात  की है कि उसे उस तरह की शिक्षा और प्रशिक्षण दिलाया जाए कि वह कार्यकुशलता और ज्ञान का भंडार बने।’ यह एक अच्छी बात है कि सरकार की समझमें यह बात आ गई है कि इस वक्त जो पाठ्यक्रम हमारे स्कूलों और कालेजों में चल रहे हैं उनमें से कुछेक वोकेशनल कोर्स की पढ़ाई छोड़कर बाकी किसी में दम नहीं है कि स्कूल, कालेज में उनकी पढ़ाई करने के बाद कोई मनमाफिक या ढंग का रोजगार मिल सके।

यह इस कारण से है कि हमारे नीति निर्धारक वातानुकूलित कमरों में बैठकर वह सब कुछ तय कर लेते हैं जिसके लिए बाकायदा बड़े पैमाने पर वास्तविक सर्वेक्षण होना चाहिए और जिन देशों ने इस समस्या को कारगर ढंग से सुलझाया है उनकी कार्य प्रणाली को समझ कर अपने यहां लागू करने की संभावनाओं को तलाशना चाहिए। इसके लिए देश के ही प्रख्यात शिक्षाविदों की सेवाएं लेनी चाहिएं और जरूरत पड़े तो विदेशों से भी विशेषज्ञ लाने चाहिएं।

इसे समझने के लिए इतना ही काफी होगा कि जब हम क्रिकेट खिलाडिय़ों को तैयार करने के लिए विदेशी कोच की सहायता लेते हैं तो फिर भारतीय विद्याॢथयों को सक्षम बनाने की नीति बनाने के लिए विदेशी विद्वानों को आमंत्रित क्यों नहीं कर सकते। इसके साथ ही जिस तरह हमने विज्ञान, अंतरिक्ष, प्रौद्योगिकी निर्माण, रक्षा उपकरण तैयार करने और संवेदनशील मामलों में राजनीतिज्ञों की दखलअंदाजी को रोके रखा है जिसके परिणाम सामने हैं, उसी तरह शिक्षा के क्षेत्र से भी नेताओं को दूर रखना जरूरी है।

अब तक की शिक्षा प्रणाली का आलम यह है कि विद्यार्थी का पढ़ाई में मन नहीं लगता और जहां तक सुविधाओं की बात है, आज भी हजारों स्कूल ऐसे हैं जहां खुले मैदान में दरी बिछाकर पढ़ाई होती है। आंकड़ों के मुताबिक आठवीं कक्षा तक 10 बच्चों में से 4 पढ़ाई छोड़ देते हैं। ऐसा नहीं है कि वे पढऩा नहीं चाहते बल्कि ऐसा इसलिए है कि उन्हें ऐसा लगने लगता है कि ये सब पढऩे का कोई फायदा तो है नहीं।

ये सब करने के लिए बजट में राज्य और केन्द्र सरकार दोनों को ही विशेष प्रावधान करने होंगे। शिक्षा बजट बढ़ाने होंगे और नियन्त्रण रखना होगा कि शिक्षा की फर्जी दुकानें न खुलने पाएं और किसी को भी साहस न हो कि व्यापमं, टॉपर जैसे घोटाले कर सकें।

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