‘चले हुए कारतूस’ जैसे संकेत दे रही है माकपा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 18 Oct, 2017 02:42 AM

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भाजपा के खिलाफ लडऩे के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने को लेकर माकपा के भीतर चल रही चर्चा ने एक बार फिर से विपक्षी एकता के साथ-साथ वाम दलों की प्रासंगिकता के प्रश्र को भी ध्यानाकर्षण में ला दिया है। यदि 2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो...

भाजपा के खिलाफ लडऩे के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने को लेकर माकपा के भीतर चल रही चर्चा ने एक बार फिर से विपक्षी एकता के साथ-साथ वाम दलों की प्रासंगिकता के प्रश्र को भी ध्यानाकर्षण में ला दिया है। 

यदि 2014 के लोकसभा चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो सत्ताधारी राजग की मत हिस्सेदारी 38.5 प्रतिशत तथा यू.पी.ए. की 23 प्रतिशत से जरा-सी कम थी जिससे अन्य के लिए लगभग 39 प्रतिशत मत हिस्सेदारी बच गई। मात्र 4.8 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ पतन की ओर अग्रसर होने के बावजूद कोई भी धर्मनिरपेक्ष तथा लोकतांत्रिक मोर्चा साम्यवादी दलों की उपस्थिति के बिना सफल नहीं हो सकता। इसलिए यदि विपक्ष आगे बढ़ रही भाजपा को चुनौती देने के प्रति गम्भीर है तो उनके लिए एक साथ आना अपरिहार्य है। 

माकपा अपना मन नहीं बना सकती जो सबसे बड़ी कमजोरी है। कांग्रेस विरोधी पुरानी मनोस्थिति अभी भी माकपा के एक वर्ग में मौजूद है। प्रकाश कारत गुट को डर है कि कांग्रेस उनको निगल लेगी। कामरेड सुरजीत ने 1992 से लेकर 2005 तक बड़े राजनीतिक गठबंधन बनाकर पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखा। यद्यपि बाद में भारत-अमरीका परमाणु सौदे जैसे मुद्दों पर कुछ रणनीतिक गलतियों के कारण पार्टी न केवल चुनावी बल्कि राजनीतिक तौर पर भी हाशिए पर आ गई। वामदलों, विशेषकर माकपा के सामने आज प्रश्र यह है कि कैसे प्रासंगिक बने रहा जाए। न केवल राष्ट्रीय स्तर पर इसके स्थान में कमी आई है बल्कि इसकी भौगोलिक उपस्थिति भी सिकुड़ गई है। आज केवल केरल तथा त्रिपुरा ही माकपा के गढ़ हैं जबकि पश्चिम बंगाल में इसकी कुछ उपस्थिति है। पार्टी के केरल से 5 तथा पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा से दो-दो जबकि केरल से मात्र एक सांसद वर्तमान लोकसभा में माकपा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। 

वाम दलों के पतन के कई कारण हैं। इसका एक कारण चार वामदलों भाकपा, माकपा, फारवर्ड ब्लाक तथा आर.एस.पी. के बीच एकता का अभाव है। दूसरे, भाकपा यह महसूस करती है कि माकपा बड़े भाई के तौर पर व्यवहार करती है। तीसरे, भाजपा तथा माकपा के बीच विलय नहीं हो पाया। यह शायद तब सम्भव हो पाता जब हरकिशन सिंह सुरजीत, इन्द्रजीत गुप्त तथा ए.बी. वद्र्धन जैसे बड़े कद के नेता जीवित होते। चौथे, जहां भाकपा ने गठबंधनों को लेकर कुछ लचीला रवैया अपनाया है, वहीं माकपा में अभी भी इसे लेकर चर्चा चल रही है। भाकपा नेता डी. राजा का कहना है कि ‘‘भाजपा-संघ के खतरे के खिलाफ लडऩे के लिए हम एक व्यापक मोर्चा चाहते हैं और भाजपा विरोधी पार्टियों के साथ काम करना पसंद करेंगे।’’ 

पांचवें, वाम दलों के पास ऊंचे कद का कोई ऐसा नेता नहीं है जो अपनी पार्टी को परिवर्तन लाने के काबिल बना सके। छठे, वे देश के बदल रहे मूड को नहीं देख पा रहे और न ही खुद को नए परिदृश्य के मुताबिक ढाल रहे हैं। पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल ने कहा था कि ‘‘यदि आप 25 की उम्र में उदार नहीं हैं तो आपके पास दिल नहीं है। यदि आप 35 की उम्र में अपरिवर्तनवादी नहीं हैं तो आपके पास दिमाग नहीं है।’’ मगर वामदल अपनी रूढि़वादी विचारधारा के कारण युवाओं को भी आकर्षित करने में सक्षम नहीं हैं जबकि आकांक्षावान युवा अच्छा जीवन चाहते हैं। माकपा के बड़े संगठन भी गिरावट की ओर अग्रसर हैं। इसकी ट्रेड यूनियन इकाई सैंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) का देश में 5वां स्थान है जबकि कांग्रेस की इंडियन नैशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस और भाजपा की भारतीय मजदूर संघ दो शीर्ष स्थानों पर हैं। आज माकपा एक चले हुए कारतूस के सभी संकेत दिखा रही है।

फिलहाल 2019 के लोकसभा चुनावों से पूर्व अप्रैल में हैदराबाद में आयोजित होने वाली आगामी पार्टी कांग्रेस में क्या पार्टी लाइन अपनाई जाए, इस बात को लेकर तीव्र चर्चा चल रही है। पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी इस बात की वकालत कर रहे हैं कि यही समय है कि सभी धर्मनिरपेक्ष दल अपने राजनीतिक स्रोतों को इकट्ठा कर भाजपा का विरोध करें क्योंकि 2015 में माकपा पार्टी कांग्रेस ने भाजपा को अपनी प्रमुख राजनीतिक विरोधी माना था। पश्चिम बंगाल इकाई उनका समर्थन करती है। 

संयोग से 2016 के विधानसभा चुनावों में सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ इसकी पश्चिम बंगाल इकाई ने कांग्रेस के साथ रणनीतिक गठबंधन किया था जो विनाशकारी सिद्ध हुआ। केरल तथा त्रिपुरा इकाइयों का समर्थन प्राप्त कारत खेमे का तर्क है कि पार्टी को भाजपा के खिलाफ लडऩा चाहिए मगर कांग्रेस अथवा अन्य विपक्षी दलों के प्रति झुकाव नहीं हो। माकपा की शक्तिशाली केन्द्रीय समिति ने इस सप्ताह इस पहलू के साथ चुनाव संबंधी अन्य मुद्दों पर चर्चा की। माकपा के इस मुद्दे पर सर्वसम्मति से पहुंचने के करीब होने के बावजूद इसके नेतृत्व को अन्य विपक्षी दलों की आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। 

राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने माकपा नेतृत्व तक यह संदेश पहुंचाया कि वह अन्य विपक्षी दलों के साथ एकता न करके साम्प्रदायिक ताकतों से लडऩे की अपनी ‘ऐतिहासिक जिम्मेदारी’ से भाग रही है। कांग्रेस ने भी विपक्षी एकता के प्रयासों से दूर रहने के लिए माकपा से नाखुशी जाहिर की है। कुछ विपक्षी नेता महसूस करते हैं कि यदि माकपा विपक्षी एकता में विघ्न डालने का निर्णय लेती है तो यह केवल भाजपा के पक्ष में जाएगा और माकपा को व्यवहारवाद तथा बेतुके आदर्शवाद में से किसी एक को चुनना होगा। 

यह संशय आगामी पार्टी कांग्रेस तक जारी रहने की संभावना है। हैदराबाद में आगामी पार्टी कांग्रेस में लिए गए निर्णय का विपक्षी एकता पर असर पड़ेगा क्योंकि कांग्रेस के बगैर सम्भवत: अन्य पाॢटयां भाजपा को चुनौती देने में सक्षम नहीं होंगी। भाजपा के उत्थान तथा तेजतर्रार क्षेत्रीय दलों के मद्देनजर वामदलों ने अपना महत्व खो दिया है और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आवाज हाशिए पर चली गई है। यदि ये किसी नए राजनीतिक संदेश के साथ आगे नहीं आते और आकांक्षावान भारत के साथ नहीं चलते, ये अपना अस्तित्व नहीं बचा सकते।

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