रियाद सम्मेलन में भाषण न देना नवाज शरीफ के लिए ‘वरदान’ ही सिद्ध हुआ

Edited By Punjab Kesari,Updated: 19 Jun, 2017 10:44 PM

do not give speeches at riyadh conference boon for nawaz sharif

जून के प्रथम सप्ताह में सऊदी अरब में आयोजित अमरीका-अरब इस्लामिक शीर्ष सम्मेलन .....

जून के प्रथम सप्ताह में सऊदी अरब में आयोजित अमरीका-अरब इस्लामिक शीर्ष सम्मेलन दौरान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ  अपने देश के लोगों की समस्याओं  को रेखांकित किए बिना जिस प्रकार  मौन बैठे रहे उसको लेकर पाकिस्तानी मीडिया और विपक्ष ने उन्हें सूली पर टांग रखा है। मुख्य विपक्षी दल ‘पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ’ (पी.टी.आई.) के नेता इमरान खान ने तो उनकी हालत तब तक धधकते कोयलों पर बैठने जैसी किए रखी जब तक उन्होंने यह कहना शुरू नहीं कर दिया, ‘‘बापू, अब तो जाने दे।’’ 

इमरान खान के लिए ऐसा करना एक नित्य कर्म बन चुका है। उन्हें इस बात का गुस्सा है कि शरीफ ने राष्ट्रपति ट्रम्प को यह कहने की हिम्मत क्यों नहीं दिखाई कि अमरीका एक बार फिर इसराईल की चालों में फंस गया है। इमरान को यह शिकायत है कि नवाज ने इस्लामी जगत को यह क्यों नहीं बताया कि पाकिस्तान ईरान के विरुद्ध अमरीकी साजिश में शामिल होने के प्रति कितना अनिच्छुक था। आखिर रियाद में हुई यह शीर्ष वार्ता केवल ईरान के विरुद्ध साजिश करने के लिए ही तो बुलाई गई थी। नवाज शरीफ सऊदी अरब के शाह द्वारा आमंत्रित प्रमुख नेताओं की प्रथम कतार में बैठे हुए थे जिसका अर्थ यह है कि वास्तव में उनकी अनदेखी नहीं की गई लेकिन भाषण करने की उनकी बारी आई ही नहीं। हालांकि उनका भाषण तैयार करने वालों द्वारा लगातार कहा जा रहा है कि पाकिस्तान के बारे में बोलने के लिए उनकी अच्छी तरह रिहर्सल करवाई गई थी। 

20 करोड़ लोगों के देश पाकिस्तान में हर कोई चाहता था कि नवाज शरीफ को इस सम्मेलन में ट्रम्प अथवा  सऊदी अरब के शाह विरुद्ध कुछ न कुछ अपमानजनक बोलना चाहिए था। यहां तक कि जो लोग यह राय रखते हैं कि यह शीर्ष सम्मेलन शरीफ के लिए भारत द्वारा वर्तमान में सीमा पर गर्मागर्मी बनाए रखने की नीति के परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान का पक्ष प्रस्तुत करने का बहुत शानदार मंच और मौका था, वे एक बात भूल गए  कि भाषण कला के क्षेत्र में शरीफ का यह दुस्साहस पाकिस्तान के लिए किसी भी तरह लाभदायक सिद्ध नहीं हो सकता था। पाकिस्तान हमेशा से ही सऊदी अरब के करीब रहा है। प्रधानमंत्री शरीफ और उनका परिवार तो सऊदी  अरब के शाह के खासतौर पर दीवाने हैं क्योंकि 1999 में जब परवेज मुशर्रफ ने उनका तख्ता पलट दिया था तो शाह ने न केवल उनकी जान बचाई थी बल्कि 2013 में उनके पुन: सत्तासीन होने पर उनकी दीवालिया सरकार को एक अरब डालर की सहायता भी दी। 

पाकिस्तान में सऊदी अरब का प्रभाव उसके द्वारा वित्त पोषित मदरसों तथा सेना के माध्यम से कायम है क्योंकि सऊदी अरब की आंतरिक और बाहरी रक्षा के मामले में पाकिस्तानी सेना ही पहली पसंद है। दुनिया को डर है कि यदि सऊदी अरब की राजाशाही ने कभी परमाणु शक्ति सम्पन्न बनने का रास्ता अपना लिया तो पाकिस्तान को इसकी पीठ पर सवारी करने का मौका मिल जाएगा। लेकिन रियाद शीर्ष सम्मेलन में असली बात यह थी कि पाकिस्तान  ईरान के विरुद्ध कुछ नहीं बोलना चाहता था जबकि यह सम्मेलन वास्तव में ईरान के विरुद्ध ही आयोजित किया गया था। यदि शरीफ को भाषण देना पड़ता तो वह ईरान के पक्ष में बोलते या विरोध में, पाकिस्तान में जनता के किसी न किसी वर्ग की भावनाएं आहत होनी ही थीं। विपक्ष तो यही चाहता था कि वह भाषण करते ताकि इसे उनके विरुद्ध तलवारें भांजने का मौका मिल जाता।

झूठे राष्ट्र-अहंकार के मद में चूर टी.वी. एंकरों को वास्तविक स्थिति के बारे में कुछ अता-पता नहीं था और उन्होंने शीर्ष सम्मेलन को बिल्कुल  ही सही अर्थों में नहीं समझा। यदि शरीफ सऊदी अरब वालों को खुश करने के लिए भाषण करते तो इससे न केवल ईरान, बल्कि कतर भी आहत होता जिसे कि सऊदी अरब वाले ईरान का समर्थन करने की उसकी हिमाकत के दंड स्वरूप संयुक्त अरब अमीरात में से खदेडऩे पर आमादा हैं। शरीफ की स्थिति पर सचमुच ही  हर किसी को ईष्र्या हो सकती है क्योंकि वह कतर के युवराज हमद के भी कोई कम ऋणी नहीं हैं क्योंकि यदि पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट धन शोधन मामले में शरीफ को तलब करती है तो यह पूरी संभावना है कि युवराज हमद पत्र लिख कर संकट में से निकाल कर एक नया जीवन दान दे सकते हैं। किसी भी सम्मेलन में किसी भी व्यक्ति के लिए  ‘लो-प्रोफाइल’ इतना बड़ा वरदान सिद्ध नहीं हुई जितना रियाद सम्मेलन में शरीफ के लिए हुई थी।

लेकिन विदेशी मामलों के अनुभवी पाकिस्तानी विशेषज्ञों द्वारा यह समझदारी भरा विश्लेषण किया गया। लाहौर आधारित ‘इंस्टीच्यूट फॉर पालिसी रिफार्म’ की एक प्रकाशना में लिखते हुए पूर्व विदेश सचिव और राजदूत रियाज मोहम्मद खान ने कहा: ‘‘रियाद सम्मेलन में जिस प्रकार पाकिस्तान को हाशिए पर रखा गया उससे पाकिस्तान में बहुत से लोग अपमानित महसूस करते हैं लेकिन जिस परिप्रेक्ष्य में यह सम्मेलन हो रहा था, उसके चलते हमारी अपेक्षाएं बहुत बड़ी होनी ही नहीं चाहिए थीं... नवाज शरीफ की उपस्थिति मुख्य रूप में सऊदियों को एक प्रतीकात्मक संकेत है। लेकिन इसके बावजूद जिस प्रकार  हमने ट्रम्प के साथ मीटिंग का उतावलापन दिखाया और यहां तक कि इस मामले में सऊदी अरब वालों को बिचौलिया बनने की गुहार लगाई, वह बिल्कुल ही अवांछित थी।’’ 

पूर्व राजदूत तौकीर हुसैन ने राय व्यक्त की: ‘‘मेरे पास इस संबंध में तथ्य नहीं है कि नवाज शरीफ बोलना चाहते थे या नहीं। फिर भी मुझे इस बात की खुशी है कि वह नहीं बोले। यदि वह बोलने का प्रयास भी करते तो सऊदी अरब वाले उन्हें ऐसा न करने देते, क्योंकि उन्हें पता था कि वह ईरान के बारे में कुछ न कुछ कहने से बाज नहीं आएंगे। ऐसा हो जाता तो अमरीका और सऊदी अरब के किए-कराए पर पानी फिर जाता...’’ शरीफ को मौका मिला होता तो वह आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान की लड़ाई के बारे में भी कुछ न कुछ उल्लेख करते जोकि आतंकवाद के विषय में निकाले जा रहे सऊदी अरब के सुरों से सर्वथा भिन्न होना था। सऊदी अरब वाले लोग आतंकवाद को ईरान द्वारा सृजित किया हुआ प्रेत मानते हैं और खुद को आतंक विरोधी नेताओं के रूप में प्रस्तुत करते हैं। 

पूर्व राजदूत आसिफ यजदी ने लिखा, ‘‘यदि शीर्ष सम्मेलन में नवाज शरीफ नहीं बोल पाए या ट्रम्प ने पाकिस्तान को आतंकवाद पीड़ित नहीं बताया, तो यह कोई त्रासदी नहीं है। वास्तव में मेरा तो यह मानना है कि नवाज शरीफ को बोलने का मौका दिए जाने का निवेदन ही नहीं करना चाहिए था। उनकी चुप्पी ने ईरान को हमारी निष्पक्षता का संदेश भेज ही देना था...जहां तक पाकिस्तान को आतंकवाद का शिकार बताने में ट्रम्प की विफलता का सवाल है, तो इसका इतना जवाब ही काफी है कि अफगानिस्तान का भी उन्होंने नाम नहीं लिया लेकिन सामूहिक रूप में अरब, मुस्लिम और मध्य पूर्व के राष्ट्रों  के निर्दोष लोगों के बारे में ही बोले थे।’’    

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