‘भुखमरी’ समाप्त करने का कोई व्यापक हल ढूंढा जाए

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Oct, 2017 10:32 PM

find a comprehensive solution to eliminate starvation

कितने खेद की बात है कि भारत में अनेक शताब्दियों से मौजूद तथा सभी विकसित देशों में व्याप्त भुखमरी की समस्या की ओर ध्यान खींचने के लिए अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आई.एफ.पी.आर.आई.) को एक रिपोर्ट प्रकाशित करने की जरूरत पड़ी। इस तथ्य से इंकार...

कितने खेद की बात है कि भारत में अनेक शताब्दियों से मौजूद तथा सभी विकसित देशों में व्याप्त भुखमरी की समस्या की ओर ध्यान खींचने के लिए अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (आई.एफ.पी.आर.आई.) को एक रिपोर्ट प्रकाशित करने की जरूरत पड़ी। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा वर्ष में कई-कई दिन भूखा ही रहता है। कोई सरकार इस दुखद तथ्य से तभी इंकार कर सकती है यदि किसी भी असुखद सच्चाई से इंकार करने की इसे आदत पड़ चुकी हो।

इस रिपोर्ट में प्रस्तुत किए गए आंकड़ों में कुछ भी रहस्यमय नहीं है (देखें सारिणी) :साल               भारत का दर्जा/         भारत का  
                 देशों की संख्या                  सूचकांक स्कोर
2007            94/118                    25.03
2008            98/120                    23.7
2009            102/121                  23.9
2010            105/122                  24.1
2011            108/122                  23.7
2012            106/120                  22.9
2013           105/120                  21.3
2014           99/120                   17.8
2015          93/117                   29.0
2016         97/118                    28.5
2017        100/119                  31.4

सूचकांक जितना नीचा हो उतना ही बेहतर स्थिति का परिचायक है। यदि यह ऊंचा है तो इसका तात्पर्य है कि स्थिति खराब है।

यह माना जा सकता है कि हर वर्ष  इस सूची में कुछ नए देश शामिल हो जाते हैं और कुछ पुराने इसमें से बाहर निकल जाते हैं क्योंकि यह बात आंकड़ों की उपलब्धता या अनुपलब्धता पर निर्भर है। जैसा कि सारिणी में दिखाया गया है कि यह कोई ठोस या अपरिवर्तनीय तथ्य नहीं है। गत 11 वर्षों दौरान इस सूची में विचारणीय देशों की संख्या 117 और 122 के बीच घूमती रही। इतना छोटा बदलाव आंकड़ों की दृष्टि से महत्वहीन है। तो इससे हम क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं?

*इन देशों की सूची में भारत का दर्जा 2008 और 2011 के बीच बदतर ही हुआ है लेकिन सूचकांक की दृष्टि से यानी भौतिक रूप में स्थिति वहीं की वहीं रही।

*भारत का अपेक्षागत दर्जा और भौतिक स्थिति का सूचकांक 2011 से 2014 के बीच उल्लेखनीय रूप में सुधरा था।
*लेकिन 2014 के बाद इसमें उल्लेखनीय गिरावट आई है।

हमें खुद से क्या यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि भारत अपनी स्थिति में सुधार के उस रुझान को बरकरार क्यों नहीं रख सका जो उसने 2014 तक हासिल किया था?

1947 से लेकर बनने वाली हर सरकार को गलत और ठीक कामों के लिए अवश्य ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए और वर्तमान सरकार भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं होनी चाहिए। भुखमरी का ग्लोबल सूचकांक कुल आबादी में कुपोषित लोगों के अनुपात, 5 वर्ष से कम आयु के बच्चोँ के त्रुटिपूर्ण विकास व असाध्य रोगों की मौजूदगी एवं 5 वर्ष के कम आयु के बच्चोँ की मृत्यु दर के आधार पर तय किया जाता है।

तरक्की तो निश्चय ही हुई है। इस स्तम्भ को मैं आंकड़ों के बोझ तले दबाए बिना बताना चाहूंगा कि 2006 से 2016 के बीच किए गए अध्ययन से खुलासा होता है कि बच्चोँ में त्रुटिपूर्ण विकास, प्रजनन आयु की महिलाओं में खून की कमी, नवजात शिशुओं का कम वजन जैसे मामलों में कमी आई है और केवल मां के दूध पर बच्चोँ का पोषण करने के रुझान में वृद्धि हुई है लेकिन बच्चोँ में दीर्घकालिक तथा असाध्य रोगों की स्थिति पहले से बिगड़ गई है। 2016 तक भारत का एक भी रा’य बच्चोँ के  असाध्य रोगों और शिशुओं के कम वजन के मामले में स्वीकार्य स्तर हासिल नहीं कर पाया था- वह स्तर जो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जनस्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण माना है। 

सुधार और बिगाड़ दोनों के पीछे भोजन की उपलब्धता, भोजन तक पहुंच अथवा इसका जुगाड़ करने का समर्थ ही निर्णायक कारण हैं। लोगों को हर हालत में पर्याप्त भोजन मिलना चाहिए। अन्य सभी बातें गौण महत्व वाली हैं। वैसे तो भारत अपनी आबादी की जरूरतों के लिए पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न पैदा करता है लेकिन फिर भी सभी लोगों को वांछित मात्रा में भोजन नहीं मिलता। यह एक विडम्बना ही है।

बेशक इस स्थिति को सुधारने के लिए सरकारी स्तर पर अनेक प्रकार के हस्तक्षेप किए गए हैं और छोटी-मोटी सफलता भी मिली है लेकिन सबसे निर्णायक हस्तक्षेप था राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 (एन.एफ.एस.ए.) का पारित किया जाना।

एन.एफ.एस.ए. का वायदा
एन.एफ.एस.ए. ने प्रतिमाह सबसिडी मूल्य पर मिलने वाले खाद्यान्न का कोटा निर्धारित करने की घोषणा की। वरीयता सूची में आने वाले परिवारों का प्रत्येक सदस्य 5 किलोग्राम खाद्यान्न हासिल करने का अधिकारी था जबकि  ‘अंत्योदय’ वर्ग में शामिल प्रत्येक परिवार को 35 किलोग्राम खाद्यान्न दिया जाना था। 

इसी प्रकार प्रत्येक गर्भवती और बच्चे को दूध पिलाने वाली मां को गर्भावस्था दौरान और प्रजनन के  6 माह बाद तक हर रोज एक बार मुफ्त भोजन एवं 6000 रुपए दिए जाने थे, 6 वर्ष तक के प्रत्येक बच्चे को रोजाना एक बार मुफ्त भोजन, 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को  एक बार मुफ्त भोजन दिया जाना था।

यदि खाद्यान्न या भोजन उपलब्ध न हो तो उन्हें खाद्य सुरक्षा अलाऊंस देने का प्रावधान किया गया था। इस कानून का लक्ष्य यह था कि जरूरत पडऩे पर ग्रामीण आबादी के 75 प्रतिशत  और शहरी आबादी के 50 प्रतिशत हिस्से को खाद्य सुरक्षा हासिल हो। इस कानून के निष्पादन की निगरानी करने के लिए प्रत्येक रा’य में एक प्रादेशिक आयोग स्थापित किया जाना था।
एन.एफ.एस.ए. एक बहुत दिलेरी भरा, महत्वाकांक्षी और स्पष्ट तौर पर काफी महंगा हस्तक्षेप था। इस मामले में अनेक आशंकाएं व्यक्त की गईं तो भी इसका एकमात्र विकल्प सार्वभौमिक आधारभूत आय (यू.बी.आई.) ही था जोकि शायद इससे भी अधिक महंगा सिद्ध होने वाला था।

गंभीर अनदेखी
जब 2014 में सरकार बदली तो नई सत्तारूढ़ हुई राजग सरकार के लिए यह कानून लागू करना जरूरी था लेकिन इसने ऐसा नहीं किया। मुझे एक भी ऐसा मौका याद नहीं जब प्रधानमंत्री ने खाद्य सुरक्षा को भी स्व‘छ भारत की तरह एक अभियान बनाने का आह्वान किया हो। न ही उनकी सरकार ने कोई अन्य विकल्प प्रस्तुत किया। यानी कि एन.एफ.एस.ए. की गंभीर अनदेखी की गई।

जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अनेक राज्योँ के उन निकायों की स्थापना ही नहीं हुई थी जिन्होंने इस कानून के निष्पादन की निगरानी करनी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति को बहुत ही ‘दयनीय’ करार दिया।

बजट दस्तावेजों के अनुसार सरकार ने 2015-16 में एन.एफ.एस.ए. के अंतर्गत 1,34,919 करोड़ रुपए खर्च किए। 2016-17 में यह आंकड़ा 1,30,335 करोड़ था जिसे कुछ संशोधित करके 1,30,673 करोड़ किया गया था लेकिन मई 2017 में आई रिपोर्टों के अनुसार वास्तविक खर्च का आंकड़ा केवल 1,05,672 करोड़ रुपए ही था। यह आपराधिक लापरवाही थी लेकिन किसी ने भी इस बारे में कोई स्पष्टीकरण या व्याख्या प्रस्तुत करने की जरूरत नहीं समझी।

यूनीसेफ द्वारा 2017 में प्रकाशित ‘‘खाद्य सुरक्षा स्थिति एवं पोषण रिपोर्ट’’ में बताया गया है कि भारत में 19 करोड़ लोग कुपोषण के शिकार हैं। जब आई.एफ.पी.आर.आई. की रिपोर्ट हमें हमारा असली चेहरा दिखाती है तो भी हमारे इंकार के बावजूद कलंक को धोया नहीं जा सकता। 

भुखमरी आपके चेहरे पर एक मनहूस दाग है। जो भी सरकार समय पर मौजूद हो उसकी इस संबंध में जिम्मेदारी बनती है और यह जिम्मेदारी किसी बुलेट ट्रेन के वायदे या दुनिया में सबसे ऊंची प्रतिमा अथवा किसी अन्य जुमले से अधिक महत्व रखती है कि देश में से भुखमरी समाप्त करने का कोई व्यापक प्रभावशाली हल ढूंढा जाए और इसको कार्यान्वित किया जाए।

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