कैसे हल होगी ‘कश्मीर की समस्या’

Edited By ,Updated: 24 Jul, 2016 01:11 AM

how will the solution of the kashmir problem

छ: दशकों से भी अधिक समय से कश्मीर ‘समस्या’ का कोई हल नहीं हो पाया। उपमहाद्वीप में यह अब तक का सबसे महंगा विवाद बन गया है।

(बी.के. चम): छ: दशकों से भी अधिक समय से कश्मीर ‘समस्या’ का कोई हल नहीं हो पाया। उपमहाद्वीप में यह अब तक का सबसे महंगा विवाद बन गया है। आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के प्रमुख बुरहान वानी की सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में मौत के बाद से घाटी में भड़की हुई बेचैनी के मद्देनजर यह सवाल महत्वपूर्ण बन गया है। वानी की मौत के कारण व्यापक जनाक्रोश भड़का। बेशक पाकिस्तान की आई.एस.आई. द्वारा उग्रवादियों को समर्थन दिया जाता है, फिर भी अधिकतर उग्रवादी स्थानीय युवक ही हैं जिन्होंने सुरक्षा बलों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया है। 

 
घाटी के लोगों में बेगानेपन के एहसास की स्थिति को नवम्बर-दिसम्बर 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में किसी भी मुख्यधारा पार्टी को निर्णायक बहुमत न मिलने के फलस्वरूप पी.डी.पी.-भाजपा गठबंधन सरकार बनाए जाने की पृष्ठभूमि में देखे जाने की जरूरत है। 
 
लम्बी वार्ताओं के बाद पी.डी.पी. और भाजपा ने गठबंधन सरकार बनाने का फैसला लिया था। इसे एक सार्थक कदम माना गया था क्योंकि इससे मुस्लिम वर्चस्व वाली कश्मीर वादी और हिन्दू बहुल जम्मू क्षेत्र के आपसी संबंध मजबूत होने की आशा पैदा हुई थी। पी.डी.पी. के साथ गठबंधन बनाने के भाजपा के निर्णय को किसी न किसी रूप में आर.एस.एस. के कर्णधारों का पूर्ण समर्थन हासिल था। 
 
मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण करते हुए 1 मार्च 2015 को स्वर्गीय मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा था कि वैचारिक रूप में एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी दो पाॢटयों का एक साथ आना बिल्कुल ‘‘उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के मिलन’’ जैसा है। उनकी यह उक्ति किसी तरह भी गलत नहीं थी। ‘‘शांति, विकास और आत्मनिर्भरता सुनिश्चित कराने के लिए’’ गठजोड़ ने एक ‘गठबंधन एजैंडा’ तैयार किया। 
 
फिर भी गठबंधन में दरारें पैदा होने में कोई ज्यादा समय नहीं लगा। इन दरारों से न केवल गठबंधन सरकार का निॢवघ्न कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ, बल्कि दोनों क्षेत्रों के लोगों का भी मोहभंग होना शुरू हो गया। फलस्वरूप गठबंधन में शामिल पाॢटयों का जनाधार खिसकना शुरू हो गया-पी.डी.पी. को वादी, खास तौर पर मुफ्ती परिवार का गढ़ माने जाने वाले दक्षिण कश्मीर में और भाजपा को हिन्दू बहुल जम्मू क्षेत्र में नुक्सान उठाना पड़ा। 
 
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को अपने पिता की मृत्यु के बाद हाल ही में उपचुनाव में विधायक चुना गया था लेकिन उन्होंने मतदाताओं को मिलने के लिए अपने हलके का दौरा तक नहीं किया। कश्मीर में असाधारण स्थिति को पूर्व केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा गत सप्ताह इंडिया टुडे को दिए साक्षात्कार में व्यक्त विचारों की रोशनी में देखे जाने की जरूरत है। 
 
तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पक्षार्थियों से बातचीत चलाने के लिए चिदम्बरम के नेतृत्व में वार्ताकारों की 3 सदस्यीय टोली भेजी थी। चिदम्बरम ने कहा कि ‘‘सरकार को उन प्रारंभिक शर्तों की ओर लौटना होगा जिनके अन्तर्गत 1947 में इस राज्य का भारत के साथ विलय हुआ था और कश्मीरियों को देश के संविधान के दायरे में अपने खुद के कानून तैयार करने की अनुमति देनी होगी। हमने उस गरिमापूर्ण सौदेबाजी की अनदेखी की है, जिसके अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर ने भारत के साथ विलय किया था और 40 वर्ष तक हमने इसकी कीमत अदा की है...। अब हमें घड़ी की सुइयां पूरी तरह उल्टे घुमाते हुए 1947 वाली स्थिति में पहुंचना होगा और देखना होगा कि विलय की मूल शर्तों के मद्देनजर आज की स्थिति में क्या कुछ कर पाना संभव है?’’ 
 
उन्होंने यह तो माना कि वह गलत भी हो सकते हैं और ठीक भी। लेकिन ‘‘कश्मीर के लोगों को जो चीज देना आवश्यक है, वह है उन्हें यह विश्वास दिलाना कि भारत के साथ विलय की गरिमापूर्ण सौदेबाजी के अन्तर्गत सभी शर्तों का पूरी तरह सम्मान किया जाएगा और वे भारत का अंग रहेंगे।’’ 
 
2007 में पक्षाॢथयों के साथ बातचीत करने के लिए चिदम्बरम की श्रीनगर यात्रा दिल्ली और इस्लामाबाद की कश्मीर विवाद सुलझाने की दूसरी कोशिश को प्रतिबिम्बित करती थी। 
 
2002 से 2007 तक परवेज मुशर्रफ के विदेश मंत्री रह चुके खुर्शीद महमूद  कसूरी ने अप्रैल 2010 में मीडिया को बताया था ‘‘जब चार सूत्रीय समझौता 2007 के प्रारंभ में अपने अंतिम निष्कर्ष की ओर पहुंच रहा था, ऐन उसी समय पाकिस्तान के तेज रफ्तार राजनीतिक घटनाक्रमों ने इस प्रक्रिया को पृष्ठभूमि में धकेल दिया और मुशर्रफ का पतन शुरू हो गया।’’
 
इस चार सूत्रीय सौदेबाजी में ‘‘नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.) के दोनों ओर सैन्य बलों को न्यूनतम स्तर पर रखना (खास तौर पर आबादी वाले इलाकों में); एल.ओ.सी. के दोनों ओर जम्मू-कश्मीर के लोगों की निर्बाध आवाजाही यकीनी बनाना; एल.ओ.सी. के दोनों ओर सभी क्षेत्रों में एक ही आधार पर आंतरिक प्रबंधन के लिए स्वशासन सुनिश्चित करना एवं भारत और पाकिस्तान सरकारों के सक्रिय प्रोत्साहन से जम्मू-कश्मीर के लोगों के लिए सहकारी एवं परामर्शक तंत्र तैयार करना ताकि इस क्षेत्र की सामाजिक और आॢथक विकास की समस्याओं को हल करने में सहयोग के फायदों को अधिक से अधिक बढ़ाया जा सके।’’
 
कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए सबसे पहला प्रयास भारतीय प्रधानमंत्री  अटल बिहारी वाजपेयी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष नवाज शरीफ द्वारा तब किया गया था, जब फरवरी 1999 में वाजपेयी की लाहौर यात्रा के मौके पर दोनों ने ‘लाहौर समझौते’ पर हस्ताक्षर किए थे। बाद में नवाज शरीफ ने कहा था, ‘‘कश्मीर मुद्दे को सुलझाने का फार्मूला दुर्भाग्यवश उस समय सैन्य राजपलटा करके जनरल परवेज मुशर्रफ ने पटरी से उतार दिया था।’’
 
उपरोक्त पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में दिल्ली और इस्लामाबाद के लिए भारत-पाक रिश्तों को सामान्य बनाने का ‘तीसरा’ प्रयास किया जाना और कश्मीर समस्या हल करने की कोशिश करना असंभव नहीं है। इस काम को अंजाम देने के लिए यह जरूरी है कि कि वार्तालाप करने के लिए उपजाऊ वातावरण तैयार किया जाए। इस दिशा में एक कदम यह होगा कि दोनों देशों में भड़काऊ बयानबाजी करने वाले उत्पातियों पर अंकुश लगाया जाए, जहां मोदी को संघ परिवार के अपने कट्टरपंथी साथियों पर अंकुश लगाना होगा, वहीं नवाज शरीफ को अपनी वह प्रतिबद्धता पूरी करनी होगी जो उन्होंने 2013 में प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने से ऐन पहले व्यक्त की थी कि वह अपने देश को आतंक का निर्यात करने की अनुमति नहीं देंगे। सयाने कहते हैं कि कोई भी लोकतंत्र समझौतों के बिना काम नहीं कर सकता।
 
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