कांग्रेस ने यदि ‘जिंदा रहना’ है तो सोनिया व राहुल को बाहर करना होगा

Edited By ,Updated: 30 Jun, 2016 02:10 AM

if congress survival so sonia and rahul will lay out

कांग्रेस का पतन ही भाजपा के अभ्युदय का मुख्य कारण है। यह 2014 में ही स्पष्ट हो गया था कि गुमसुम रहने और लिखा हुआ भाषण पढऩे वाली सोनिया गांधी ...

(टी.जे.एस. जार्ज): कांग्रेस का पतन ही भाजपा के अभ्युदय का मुख्य कारण है। यह 2014 में ही स्पष्ट हो गया था कि गुमसुम रहने और लिखा हुआ भाषण  पढऩे वाली सोनिया गांधी शब्दों के जादूगर और धारा प्रवाह भाषण द्वारा विरोधियों को लाजवाब कर देने वाले नरेंद्र मोदी के मुकाबले में कहीं भी नहीं ठहरतीं। 
 
गत माह यह तथ्य एक बार फिर प्रमाणित हो गया जब 5 राज्यों के चुनाव में कांग्रेस की लगभग खटिया ही खड़ी हो गई। भारत की प्रथम राजनीतिक पार्टी एक ऐसे पड़ाव पर पहुंच गई है जहां यह जानती है कि यह नीचे गिर चुकी है और यह भी जानती है कि पैरों पर दोबारा खड़े होने के लिए इसे क्या करना आवश्यक है लेकिन ऐसा कर नहीं सकती क्योंकि इस पार्टी के अंदर मनोबल और दिलेरी नाम की कोई चीज रह ही नहीं गई। 
 
अगले वर्ष जब कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव होंगे और 2019 में जब संसदीय चुनाव होंगे तो यह तथ्य निर्णायक भूमिका अदा करेगा कि कांग्रेस पार्टी की लाश किस हद तक बदबूदार हो गई है। यदि कांग्रेस कम से कम 2019 तक भी अपनी मृत्यु शैय्या से नहीं उठती तो इतिहास शायद इसे और कोई मौका नहीं देगा।
 
यदि हम इतिहास की ओर मुड़ कर दृष्टिपात करें तो स्वतंत्रता पश्चात गांधी जी द्वारा जारी की गई वह अपील न केवल नैतिक बल्कि समझदारी भरी भी लगती है कि कांग्रेस को एक पार्टी के रूप में भंग कर देना चाहिए। वैसे भी उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं बल्कि स्वतंत्रता के लिए एक जनांदोलन थी। जवाहर लाल नेहरू ने गांधी जी की शिक्षा का पालन नहीं किया और कांग्रेस को आंदोलन से बदल कर एक पार्टी का रूप दे दिया। प्रारंभिक रूप में इस कदम ने कांग्रेस को बहुत अधिक लाभ पहुंचाया और उस जमाने में यह बात प्रसिद्ध थी कि कांग्रेस यदि किसी खम्भे को चुनाव में खड़ा कर देगी तो वह भी जीत जाएगा। 
 
शुरूआती रूप में लाभ तो हुआ लेकिन फिर भी परिकल्पना मूल रूप में नुक्सदार थी। लोकतंत्र को दो या तीन पाॢटयों की जरूरत होती है जो वैचारिक तौर पर एक-दूसरी से प्रतिस्पर्धा करती हों। नेहरू ने दूसरी पार्टियों को उभरने से रोक दिया ताकि वह खुद आसानी से जीत सकें। नेहरू बेशक समाजवाद की बातें किया करते थे लेकिन उन्होंने खुद ही जयप्रकाश नारायण जैसे लोगों के नेतृत्व में काम कर रहे कांग्रेस सोशलिस्ट गुट को राजनीतिक रूप में विखंडित करने की साजिश रची थी। 
 
नेहरू का मंत्रिमंडल परम्परावादियों, धन्ना सेठों, कार्पोरेट कार्यकारियों, पूंजीपतियों, दक्षिण पंथियों, वाम पंथियों और बहती गंगा में हाथ धोने वाले अवसरवादियों की खिचड़ी था। यदि गांधी जी की नसीहत मानी गई होती तो कांग्रेस भंग होने के बाद नेहरू एक वामपंथी पार्टी के नेता बनते और सरदार पटेल के अंतर्गत कोई दक्षिणपंथी पार्टी शक्तिशाली होकर उभरती। इसी तरह श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में शायद हिंदू राष्ट्रवादी एकजुट हो गए होते। ऐसा हुआ होता तो भारत के लोकतंत्र की सेहत आज सचमुच ही गर्व की बात होती। 
 
नेहरू ने जिस प्रकार कांग्रेस को एक मल्टीप्लैक्स जैसा रूप दे दिया, उसके चलते यह एक सुप्रभाषित विचारधारा वाली पार्टी न बन पाई और न ही इसके काडर में ऐसे नेता उभर सके जो किसी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध हों। आज कांग्रेस का जो स्वरूप है वह इंदिरा गांधी की देन है। इंदिरा गांधी ने ही वंशवादी चौधराहट को कांग्रेस की विचारधारा और संस्कृति बना कर रख दिया। इंदिरा गांधी का अपना व्यक्तित्व इतना सशक्त था कि कांग्रेसी नेताओं ने न केवल इस जनतंत्र विरोधी अवधारणा को शीश झुकाकर स्वीकार कर लिया बल्कि अपने नेता से भी दो कदम आगे बढ़ कर वफादारी का प्रमाण देते हुए इस अवधारणा को न्यायोचित ठहराना शुरू कर दिया। बस यहीं से कांग्रेस ने विश्वसनीयता खोनी शुरू कर दी। 
 
इंदिरा के जीते जी तो बेशक नेहरू-गांधी परिवार के वंशवाद की लोकप्रियता जोरों पर थी लेकिन उनके बाद यह परिकल्पना धीरे-धीरे मंद पड़ती गई और राहुल गांधी के उभरने तक यह धूल-धूसरित हो गई। राहुल पहले दिन से ही कोई अच्छा प्रभाव नहीं दे पाए और बीच-बीच में जिस तरह अचानक गायब हो जाते हैं उससे यही समझा जा सकता है कि वह अंशकालिक राजनीतिज्ञ ही हैं। अभी हम निश्चय से नहीं कह सकते कि उनके विकास जीवन का यह दौर पूरा हुआ है कि नहीं लेकिन एक बात हम निश्चय ही जानते हैं कि संसद में अपने धुआंधार भाषण तथा दलितों, विद्यार्थियों व आम लोगों के बीच विचरण करने की नौटंकी करने के बावजूद वह कोई उल्लेखनीय प्रभाव पैदा नहीं कर पाए। अभी भी ऐसा लगता है कि वह उम्र और अनुभव बढऩे के बावजूद सयाने नहीं हो पाए हैं। अक्सर उनका व्यवहार बचकाना सा होता है। वास्तव में उनके अंदर नेतृत्व की क्षमता और प्रवृत्ति है ही नहीं। 
 
कांग्रेस में चापलूसों और पिपुओं की कोई कमी नहीं-खासतौर पर पार्टी के शीर्ष स्तरों पर और यही वे लोग हैं जो दलील देते हैं कि राहुल उपाध्यक्ष का पद छोड़ देंगे और अपनी मां से कांग्रेस अध्यक्ष की कमान संभाल लेंगे तो कांग्रेस के ‘अच्छे दिन’ लौट आएंगे। वैसे कांग्रेस पार्टी अपनी प्रासंगिकता बहाल करने के लिए जिस प्रकार हताश है, ऐसे में यह संभव है कि यह राहुल गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने का प्रयास कर सकती है। यदि ऐसा होता है तो यह ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ सृजित करने की दिशा में एक कदम होगा क्योंकि राहुल गांधी कांग्रेस की समस्याओं का कोई हल नहीं बल्कि वही तो समस्या हैं।
 
यदि कांग्रेस ने खुद को दोबारा जिंदा करना है तो राहुल गांधी और सोनिया दोनों को ही राजनीतिक मंच से गायब होना होगा और वह भी हमेशा के लिए। उनका पार्टी और राजनीति के साथ किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं रहना चाहिए। यदि यह स्थिति पैदा हो जाती है तभी कांग्रेस पार्टी को खुद का पुननर्माण करने का मौका मिलेगा। मां-बेटे के राजनीतिक पलायन से तत्कालिक रूप में पार्टी के अंदर गुटबंदी में बढ़ौतरी होगी लेकिन यह कोई नई बात नहीं होगी। पहले भी कांग्रेस में विभाजन होता रहा है और पार्टी में नई कतारबंदी होती रही है। कांग्रेस को अभी से एक स्पष्ट नीति मंच तैयार करके हर हाल में नई कतारबंदी  करनी होगी और ऐसे नेतृत्व को आगे लाना होगा जो लोगों की नजरों में बेदाग हो। यदि कांग्रेस लोकतांत्रिक पार्टी बनना चाहती है और चुनावी मैदान में प्रतिस्पर्धा की सक्षमता के मौके हासिल करना चाहती है तो यही एकमात्र रास्ता है। 
 
सोनिया और राहुल गांधी के साथ ही कांग्रेस के प्रत्येक दागदार और भ्रष्ट नेता को हर हाल में प्रस्थान करना होगा। कांग्रेस में काफी वरिष्ठ और अनुभवी तथा सक्षम नेता मौजूद हैं जो बेदाग भी हैं जैसे कि कपिल सिब्बल, जयराम रमेश, मल्लिकार्जुन खडग़े एवं अजय माकन। युवा नेताओं में भी सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और मिलिंद देवड़ा जैसे लोग मौजूद हैं जो अपना दम-खम सिद्ध कर चुके हैं। 
 
प्रादेशिक नेताओं में भी अपने दिमाग से सोचने वाले, आधुनिक, सामाजिक रूप से जागरूक तथा पर्यावरण एवं जलवायु के संबंध में जागरूकता रखने वाले कांग्रेसियों की एक पूरी फौज है। यदि ये पुरुष और महिलाएं कांग्रेस की कमान संभालते हैं और इनके ऊपर कान मरोडऩे वाली ‘हाईकमान’ को चलता कर दिया जाता है तो कांग्रेस को एक जन्म और मिल जाएगा। यदि ऐसा नहीं होता तो अकेली ‘हाईकमान’ ही पंख फडफ़ड़ाया करेगी।                
 

 

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