‘बाल शोषण’ रोकना है तो सोच बदलनी होगी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 20 Oct, 2017 11:34 PM

if you want to stop child abuse  you have to change thinking

अक्सर कहते-सुनते हैं कि बच्चे देश का भविष्य हैं। बाल अधिकारों को लेकर चर्चाएं होती हैं, सरकारी और गैर-सरकारी समाजसेवी संस्थाएं काम करती हुई भी दिखाई देती हैं, यहां तक कि बाल शोषण के लिए आन्दोलन भी होते रहते हैं।

अक्सर कहते-सुनते हैं कि बच्चे देश का भविष्य हैं। बाल अधिकारों को लेकर चर्चाएं होती हैं, सरकारी और गैर-सरकारी समाजसेवी संस्थाएं काम करती हुई भी दिखाई देती हैं, यहां तक कि बाल शोषण के लिए आन्दोलन भी होते रहते हैं।

पिछले दिनों सरकारी संस्थान एन.टी.पी.सी. द्वारा उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर जिले में स्थित टांडा विद्युत परियोजना द्वारा सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में किए जा रहे कार्यों पर फिल्म बनानी थी। इस संस्थान द्वारा ऐसे दिव्यांग व्यक्तियों के पुनर्वास के लिए किए जा रहे कार्यों को लेकर जब खोजबीन की गई तो एक बहुत ही अलग किस्म का मुद्दा सामने आया, जो असल में इस क्षेत्र में व्याप्त दिव्यांगता का कारण है।

इस जिले में बहुत बड़ी संख्या में बच्चे बचपन में ही पोलियो के शिकार होते रहे हैं। बड़े होते-होते उनकी जिंदगी स्वयं अपने आप में बोझ बन जाती है। इतनी बड़ी तादाद में पोलियो की चपेट में आने का कारण बहुत ही संजीदा है। यह मुस्लिम बहुल आबादी वाला क्षेत्र है और प्रदेश के पिछड़े क्षेत्रों में आता है।

हुआ यह कि पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम के अन्तर्गत पोलियो की दवा दिए जाने के खिलाफ अफवाहें फैलाई गईं और दवा पिलाने पर धार्मिक बंधन लगा दिए गए। परिणामस्वरूप बच्चोँ  को पोलियो की दवा नहीं मिली और वे इसकी चपेट में आते गए।

आज बच्चे शारीरिक अपंगता के साथ युवा हो रहे हैं और उन्हें देखकर लगता है कि वे अपनी जिंदगी ढो रहे हैं। कुछ तो ठीक से चलना-फिरना तो दूर, खड़े भी नहीं हो सकते, किसी तरह घिसट-घिसट कर जीवन जी रहे हैं। उन्हें दूसरों की उपेक्षा लानत का शिकार होना पड़ता है। पेट को तो भूख लगती ही है, इसलिए दूसरों की दया पर रहना इनकी मजबूरी है।

यह कहानी देश में केवल इसी जगह की नहीं है, बल्कि कुछ प्रदेशों के विशेष जिलों में रहने वाली आबादी की है जहां काफी बड़ी संख्या में धार्मिक दबाव के कारण लोग दिव्यांगता के शिकार हैं। किसी दुर्घटनावश कोई अंग खो देना, उम्र के साथ देखने-सुनने की शक्ति कम होते जाना या दूसरी शारीरिक मानसिक परेशानियां होने की बात समझ में आती है लेकिन पोलियो के साथ जीना अलग बात है।

एन.टी.पी.सी. का योगदान : एन.टी.पी.सी. ने सन् 2000 में जब यहां कदम रखे तो दिव्यांगता के बारे में क्षेत्रवासियों को जागरूक करने और उनकी मदद करने का संकल्प किया। सोचा जा सकता है कि कितनी परेशानियां हुई होंगी। एक ओर धार्मिक दबाव के चलते, चाहते हुए भी, बच्चोँ  को पोलियो की खुराक और दूसरे जरूरी टीके न लगवा पाने की मजबूरी तो दूसरी ओर बच्चोँ  को अपंगता से बचाना। एन.टी.पी.सी. अधिकारियों के अनुसार यह बहुत कठिन काम था लेकिन उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा।

पोलियो से शरीर का जो हिस्सा बेकार-सा हो जाता है उसे सहायक उपकरण और कृत्रिम अंग देकर काम करने लायक बनाने की दिशा में एक पुनर्वास केन्द्र स्थापित किया गया जो अब तक दसियों हजार लोगों का जीवन जीने लायक बना चुका है। यहां ये सब कुछ न केवल मुफ्त प्रदान किया जाता है बल्कि दिव्यांगों के घरों तक पहुंचकर सभी तरह की मदद भी दी जाती है। उन्हें इस काबिल बनाने की कोशिश की जाती है कि वे अपनी रोजी-रोटी कमा सकें। धर्म और कुरीतियां : प्रश्न उठता है कि क्या धार्मिक कट्टरता के कारण अपने ही बच्चोँ  को अपंगता के साथ जीने  को  मजबूर करना उनका शोषण नहीं है?

एक और उदाहरण है, बहुत से धार्मिक समाजों में पवित्र जल कहकर वह पानी पीने की प्रथा है जो देखने में गंदला, मटमैला और बीमारियों को दावत देने वाले कीटाणुओं से भरा हो सकता है। यह पानी पीना ही पड़ता है वरना आस्था का खतरा पैदा हो जाता है। धार्मिक परम्पराओं, प्रथाओं और अन्धविश्वासों के कारण जब समाज में फैली कुरीतियों का पालन हम केवल अंध श्रद्धा या भक्ति के कारण अपनी खुशी से करने लगते हैं, तब ही राम रहीम, आसाराम जैसे पाखंडी बरसों बरस तक हमारा शोषण करते रहने में कामयाब हो पाते हैं।
 

वैवाहिक बाल शोषण : हमारे धार्मिक और सामाजिक  ठेकेदारों द्वारा बाल-विवाह के रूप में शताब्दियों से बच्चोँ  का शोषण किया जाता रहा है। इसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि आज भी कुछ प्रदेशों में ऐसे क्षेत्र हैं जहां बच्चोँ  की शादी 10-12 साल तक की उम्र में कर दी जाती है।
 

बाल-विवाह को रोकने के अच्छे खासे कानून हैं लेकिन उन पर अमल इसलिए नहीं हो पाता क्योंकि जिन लोगों पर उनके पालन की जिम्मेदारी है, उनमें से ’यादातर बाल-विवाह होते हुए रोकना तो दूर, अक्सर उसमें सहभागी होते हैं।

बचपन बचाओ : बच्चोँ  का यौन शोषण, उन्हें बंधक बनाकर रखने की प्रवृत्ति और उनसे  गुलाम की तरह व्यवहार करना हमारे समाज की एक ऐसी स‘चाई है जिसे बदलने की कोशिश अभी तक तो आधे-अधूरे  मन से ही की जाती रही है।
इसका एक उदाहरण है।

पिछले दिनों बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी ने देशभर में एक यात्रा के माध्यम से अलख जगाने का काम किया। उनकी यात्रा हालांकि, एक बहुत बड़े उद्देश्य को समर्पित थी लेकिन उसका जो असर होना चाहिए था, वह दिखाई नहीं दिया। जब तक सोच बदलने का काम ठोस तरीके से नहीं होगा तब तक बाल शोषण से मुक्ति पाना असंभव है।

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