मुस्लिम देशों और मुसलमानों के सहयोग बिना आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई जीतना असंभव

Edited By ,Updated: 25 May, 2017 12:45 AM

impossible to win the fight against terrorism without the support of muslims

ग्रेट ब्रिटेन के मैनचैस्टर एरीना ग्रांडे में मई 22, 2017 को फिर एक दिल दहलाने वाली घटना में अमरीकी...

ग्रेट ब्रिटेन के मैनचैस्टर एरीना ग्रांडे में मई 22, 2017 को फिर एक दिल दहलाने वाली घटना में अमरीकी पॉप गायिका एरियाना के कंसर्ट में महज 22 साल के सलमान रमादान आबेदी ने आत्मघाती हमला कर 22 निर्दोषों की जान ले ली और 59 लोगों को घायल कर दिया। दुनिया में आतंक के सबसे शक्तिशाली संगठन इस्लामिक स्टेट ने इस घटना की जिम्मेदारी ली है। 

स्थानीय पुलिस ने दक्षिण मैनचैस्टर के रैडब्रिक क्षेत्र से 23 वर्षीय एक शख्स को इस घटना के संदर्भ में हिरासत में लिया है, जो हमलावर के साथ रहता था। घटना के समय एरीना ग्रांडे में एरियाना के पॉप कंसर्ट के खत्म होने पर लोग बाहर आ रहे थे। शुरूआती जांच में ‘इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस’ के इस्तेमाल की आशंका जताई जा रही है जो आसानी से उपलब्ध नहीं होता। अभी यह साफ नहीं है कि हमलावर ने बम खुद बनाया या उसे दिया गया। अभी यह भी पता नहीं चला है कि वह अकेला था या पूरे नैटवर्क का हिस्सा था। जुलाई, 2005 में ब्रिटेन में हुए हमले के बाद वहां यह अभी तक की सबसे बड़ी आतंकवादी घटना है। यह भी जाहिर है कि दुनिया के सबसे विकसित और ताकतवर देश भी इस तरह के हमलों से बच नहीं सकते। 

इस घटना से संदेश साफ है कि जैसे-जैसे आतंक के खिलाफ लड़ाई में देश एकजुट हो रहे हैं, आतंक का नैटवर्क भी लगातार शक्तिशाली हो रहा है। इस्लामिक स्टेट के स्लीपर सैल, यानी वे पढ़े-लिखे स्थानीय लोग जो या तो उनके देश की व्यवस्था से नाराज हैं या फिर जिनके दिमाग में जेहाद की परिकल्पना पूरी तरह से बैठा दी गई है, ऐसे घटनाक्रमों को अंजाम देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। स्थानीय नैटवर्क की सहायता के बगैर ब्रिटेन जैसी महफूज जगह पर ऐसा हमला करना नामुमकिन है। 

सितम्बर 11, 2001 के बाद पश्चिमी जगत में जितनी भी आतंकवाद की घटनाएं हुई हैं, उनमें से अधिकतर में धर्म-विशेष के गुमराह किए गए स्थानीय लोग ही लिप्त पाए गए हैं। हर ऐसी घटना के बाद यूरोप, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया या बाकी जगहों पर नागरिकों में आप्रवासियों या अल्पसंख्यकों के प्रति असहिष्णुता बढ़ती है और वे बदले की कार्रवाई के रूप में उनको निशाना बनाते हैं। इससे इन देशों में अल्पसंख्यकों में और अलगाव बढ़ रहा है तथा यह चक्र बढ़ता ही चला जा रहा है।
जैसे-जैसे आतंकवाद के खिलाफ लड़ते देश अपने संसाधन और अपना संकल्प बढ़ाते हैं, वैसे-वैसे ही आतंकवादी नैटवर्क भी और ताकतवर होता चला जा रहा है।

पहले अलकायदा और तालिबान थे, अब उनकी जगह इस्लामिक स्टेट और बोको हराम ने ले ली है जो व्यापकता और पहुंच के लिहाज से अपने पूर्ववर्ती संगठनों से कहीं आगे हैं। जिस इस्लामिक स्टेट ने मैनचैस्टर हमले की जिम्मेदारी ली है उसके बारे में यह जानना जरूरी है कि उसकी शुरूआत कैसे हुई और वह ये सब क्यों कर रहा है? जब अलकायदा कमजोर पड़ रहा था, तब शिया बहुल देशों  ईराक और सीरिया में शिया सरकारों के खिलाफ लडऩे के लिए एक कट्टर सुन्नी वहाबी संगठन बना जिसका घोषित मकसद दुनिया भर में पश्चिमी देशों, उनकी मान्यताओं, उनके विचारों, अवधारणाओं और उनकी संस्कृति के खिलाफ जेहाद करना है ताकि उसे मिटाया जा सके। 

दुनिया भर में जो उसका अनुगामी नहीं है, वह उसका दुश्मन है जिसे वह मिटाना चाहता है। इसीलिए सैंकड़ों साल पहले खिलाफत व्यवस्था के केन्द्र रहे ईराक और सीरिया की जमीन पर वह अपना कब्जा कर खिलाफत व्यवस्था लागू करना चाहता था। वहां पर फिर इस्लामिक सुन्नी विचारधारा को मानने वालों के अलावा किसी और के लिए कोई जगह नहीं थी और सारे कानून खिलाफत व्यवस्था के अनुसार उसके मनमाफिक होने थे। 

जब इस्लामिक स्टेट ने ईराक और सीरिया में वहां की शिया सरकारों और सेना के खिलाफ युद्ध शुरू किया तो उसे सुन्नी बहुल देशों से आॢथक, सैन्य, लॉजिस्टिक और जरूरी मानव-बल की हरसंभव मदद मिली। अब उन्हीं देशों को इस्लामिक स्टेट से लडऩे के लिए ‘इस्लामिक मिलिट्री अलायंस टू फाइट टेररिज्म’ बनाना पड़ा है। अगर ये देश उस वक्त इस्लामिक स्टेट को मिलने वाली मदद को रोकने का प्रयास करते तो इस्लामिक स्टेट इन देशों की सेना से टक्कर लेने जितना ताकतवर नहीं बन पाता। इस संगठन ने बहुत ही कम समय में विदेशी लड़ाकों की मदद से ईराक और सीरिया के बड़े भू-भाग पर कब्जा कर लिया था और उस क्षेत्र के तेल संसाधन उसके हाथ में पहुंच चुके थे। अपने इलाके में रहने वाले अल्पसंख्यकों पर इस दौरान इस संगठन ने जो जुल्म ढहाए हैं वे मानव सभ्यता के सबसे बुरे दौर की याद दिलाते हैं।

विदेशी लड़ाकों को मेहनताने के रूप में थोड़े पैसे, मरने के बाद जन्नत मिलने का लालच और कब्जे में आई अल्पसंख्यक महिलाएं दी जाती थीं, जिनके साथ मौत से भी बदतर सलूक होता था। यह मानवता के हित में ही है कि ईराक और सीरिया की सरकारों और सेनाओं ने पश्चिमी देशों, विशेषकर अमरीका की मदद से इस्लामिक स्टेट को कमजोर कर दिया है और यह अब बहुत सिमट गया है। पर इस संगठन में दुनिया भर के आतंकवादी शामिल हो गए हैं और इसके समर्थक दुनिया भर के देशों में हैं। इसीलिए इस संगठन की पहुंच भी विश्वव्यापी हो गई है और मैनचैस्टर जैसे और हमले दुनियाभर में आगे भी होने की आशंका बनी हुई है। 

पश्चिमी जगत में दबे-छुपे आतंकवाद की लड़ाई को लेकर यह गलत धारणा भी बनाई जा रही है कि आतंकियों को एक धर्म के अधिकतर लोगों का समर्थन हासिल है और लड़ाई आतंकियों और देशों के बीच नहीं, बल्कि उन्मुक्त पश्चिमी सभ्यता और कट्टर इस्लामिक मान्यताओं के बीच है। ये सब यह जानने के बावजूद किया जा रहा है कि आतंकवाद से हर धर्म के लोग और हर देश-संस्कृति के लोग पीड़ित हैं। आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई बिना मुस्लिम देशों और दुनिया भर के करोड़ों मुस्लिम लोगों के सक्रिय समर्थन के जीतना नामुमकिन है। 

यह राहत की बात है कि ताजा घटनाक्रम के बाद भी मैनचैस्टर और ब्रिटेन के लोगों ने अपने देश की संस्कृति के अनुसार ही पूरी एकजुटता दिखाई है और आतंक के खिलाफ लड़ाई में सबको साथ लेकर चलने का संकल्प लिया है। स्थानीय लोगों को अपने बीच के गुमराह लोगों को बचाने की बजाय उनको कानून के हवाले कर बहुसंख्यकों को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि सिर्फ कुछ ही लोग गलत हैं और बाकी समुदाय देश के साथ है।  

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