क्या भारत ‘नस्लवादी’ देश है

Edited By ,Updated: 09 Feb, 2016 01:49 AM

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हमारा हिन्दुस्तान विदेशियों विशेषकर अफ्रीकियों (वे काले लोग हैं) के बारे में क्या सोचता है? पूर्वोत्तर के ‘चिंकी’ भाइयों के बारे में क्या सोचता है?

(पूनम आई. कौशिश): हमारा हिन्दुस्तान विदेशियों विशेषकर अफ्रीकियों (वे काले लोग हैं) के बारे में क्या सोचता है? पूर्वोत्तर के ‘चिंकी’ भाइयों के बारे में क्या सोचता है? आपका मतलब मंगोलियाई नैन-नक्श वाले लोगों से है? क्या वे वास्तव में भारतीय हैं? वे तो चीनियों जैसे दिखाई देते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर सब कुछ बता देते हैं और पिछले सप्ताह बेंगलूर में एक तंजानियाई छात्रा पर हुए हमले ने नस्लवाद के आरोपों का भानुमती का पिटारा खोल दिया है। इस घटना में भीड़ द्वारा तंजानिया की एक छात्रा की पिटाई की गई और उसे कथित रूप से नंगा किया गया। 

 
इस घटना की शुरूआत शराब के नशे में धुत्त एक सूडानी व्यक्ति की तेज गाड़ी की टक्कर से  एक महिला की मौत और उसकी सहेली के घायल होने से हुई जिस पर स्थानीय लोगों ने उस कार चालक की पिटाई की किन्तु पुलिस ने उसे बचा दिया। फिर स्थानीय लोगों ने अपना गुस्सा दूसरी कार पर उतारा जिसमें तंजानिया की यह छात्रा और उसके मित्र थे। 
 
हालांकि इन दोनों कारों की सवारियों के बीच कोई संबंध नहीं था किन्तु भीड़ ने उन्हें अफ्रीकी देखकर उनकी पिटाई कर दी। छात्रा के पुरुष मित्र घटनास्थल से भाग गए और उसे भीड़ के गुस्से का सामना करना पड़ा। इस घटना के बाद अब तक 3 वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों पर गाज गिर चुकी है। 
 
हमेशा की तरह इस घटना पर खूब शोर-शराबा हुआ। राजनेताओं और सामाजिक कार्यकत्र्ताओं ने इस घटना को नस्लवादी बताया और इस संबंध में उन्होंने सच्ची-झूठी अनेक घटनाओं का हवाला दिया और अपने पक्ष में बताया कि किस प्रकार विभिन्न कालेज नाइजीरिया के छात्रों को प्रवेश नहीं दे रहे हैं क्योंकि वे उन्हें शराबी और नशेड़ी मानते हैं। 
 
पूर्वोत्तर के लोगों को किराए पर मकान नहीं मिलते हैं और बिहारियों को गंदी बस्ती में रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इससे प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में हमारा दृष्टिकोण नस्लवादी है? क्या यह एक अवांछित निष्कर्ष है? क्या नस्लवाद भारतीयों की सोच में है? क्या तंजानिया के छात्रों को अलग नस्ल का माना जा रहा है? या यह अपनी तरह की एकमात्र ऐसी घटना है? क्या भारतीय समाज रंग के प्रति आकर्षक है 
 
और नस्लवादी है? 
यह काले और गोरे का सवाल नहीं है। इसमें नस्लवाद शामिल है। इससे उपनिवेशवाद भी जुड़ा हुआ है। फिर अफ्रीकी, मद्रासी, बिहारी, गुजराती व बंगाली आदि के प्रति स्थानीय लोगों की घिसी-पिटी सोच भी है। दुर्भाग्यवश हम लोगों की सोच में ये सारी बातें हैं और इसका परिणाम हमें देखने को मिल रहा है। आप इसे गलत कहें या सही भारत में सभी अफ्रीकियों को नाइजीरियाई समझा जाता है जो मादक द्रव्यों की तस्करी करते हैं और वेश्यावृत्ति में संलिप्त रहते हैं। आपको याद होगा कि पिछले वर्ष नई दिल्ली में भी ऐसी ही घटना हुई  थी जब ‘आप’ के एक मंत्री ने एक भीड़ का नेतृत्व कर उन पर आरोप लगाया था कि नाइजीरियाई नागरिक सैक्स और ड्रग्स का रैकेट चला रहे हैं और लोगों को उन्हें किराए पर मकान देने बंद करने चाहिएं। 
 
इसके अलावा पूर्वोत्तर के छात्रों से पूछा जाता है कि वे जापानी हैं, चीनी हैं या कोरियाई। देश के अधिकतर भागों में पूर्वोत्तर के 7 राज्यों की संस्कृति, भोजन की आदतों आदि के बारे में जानकारी नहीं है। इससे इस क्षेत्र की दूरदराज की स्थिति उनके अलग-थलग रहने, केन्द्र द्वारा इन राज्यों की उपेक्षा का भी पता चलता है। अक्तूबर  2014 में 2 अलग-अलग घटनाओं में पूर्वोत्तर के एक छात्र को बेंगलूर में 3 लोगों ने इसलिए पीटा कि वह कन्नड़ नहीं बोल रहा था और गुडग़ांव में 7 लोगों ने एक और पूर्वोत्तर के व्यक्ति की पिटाई की। असम में 6 बिहारियों को गोली से उड़ाया गया। हैदराबाद में 3 नाइजीरियाई नागरिकों की पिटाई की गई। मुम्बई में उत्तर भारतीयों को खदेडऩे की बात की गई। उत्तर प्रदेश और बिहार के अनेक गरीब प्रवासियों की पिटाई की गई और उन्हें धमकी दी गई। बेंगलूर में भी उत्तर भारतीय इंजीनियरों के प्रति आक्रोश है जिनकी संख्या वहां बढ़ती जा रही है। 
 
हमारा नस्लवाद पश्चिमी नस्लवाद से अलग है जहां पर लोग अपने बच्चों को हिस्पेनिक या काले अमरीकी लोगों से दूरी बनाए रखने के लिए कहते हैं। भारत में जातिवाद, पारंपरिक सोच और पक्षपात की जड़ें बहुत गहरी हैं। इसलिए हमारे यहां न केवल जाति अपितु उपजातियां, गोत्र, ब्राह्मण, बनिया, दलित, कापू आदि भी हैं। यही नहीं हम लोगों में स्थान, भाषा, खान-पान, रीति-रिवाज आदि के आधार पर भी पूर्व धारणाएं हैं। देश में क्षेत्रीय विविधता के कारण वैचारिक रूप  से या संसाधनों के कारण से विभिन्न समुदायों के लोग एक-दूसरे के विरुद्ध दिखाई देते हैं। 
 
साथ ही हम भारतीयों का गोरी चमड़ी से विशेष प्रेम है। विवाह के विज्ञापनों में आप गोरी और सुन्दर लड़कियों के लिए विज्ञापन देखते होंगे और यह बताता है कि हम लोगों में गोरे रंग के प्रति कितना मोह है। इसके अलावा व्यक्ति के मूल स्थान के प्रति भी हमारी पूर्व धारणाएं हैं इसीलिए उत्तर भारत के लोग मद्रासियों, उनके खाने के तौर-तरीके आदि को अच्छी दृष्टि से नहीं देखते हैं और दक्षिण भारत के लोग उत्तर भारतीयों को कंजूस मानते हैं जो केवल जोर-जोर से बातें करते हैं और केवल भांगड़ा कर सकते हैं। बंगालियों को बुद्धिजीवी माना जाता है और हर किसी ठीक-ठाक बिहारी से आशा की जाती है कि वह आई.एस. बन जाएगा। 
 
इसके अलावा पश्चिम से गुज्जू हैं और उत्तर प्रदेश के भैया भी हैं। आप इसे नस्लवाद कहें, पक्षपात कहें, पूर्व धारणा कहें किन्तु सच यह है कि भारत में पूर्व धारणाओं, अज्ञानताओं और सदियों से चली आ रही भेदभावपूर्ण प्रथाएं हैं।  
 
नस्लवाद संपूर्ण विश्व में है और प्रत्येक जाति अपने को दूसरे से श्रेष्ठ मानती है। पिछले सप्ताह ही स्वीडन में कुछ  लोगों ने वहां शरण  लेने वाले सीरियाई प्रवासियों पर हमला किया। रूस के लोग उन लोगों के प्रति भेदभाव करते हैं जिन्हें वे मूल रूप से रूसी नहीं मानते हैं। ब्रिटेन में स्थानीय लोगों ने गैर-यूरोपीय लोगों का विरोध करना शुरू किया है जबकि अमरीका में रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार अरबपति डोनाल्ड ट्रंप ने मुसलमानों के विरुद्घ अपनी भावनाएं जाहिर की हैं। 
 
इसराईल फिलस्तीनियों का विरोध करता है। पश्चिमी समाज व्यक्ति केन्द्रित भी है जहां पर समूह की पहचान से अधिक व्यक्ति की पहचान को महत्व दिया जाता है। अमरीका में आपको पोलैंड या इटली के बारे में जोक सुनने को मिलेंगे तो ब्रिटेन में आयरिश, वेल्स, स्कॉटिश के बारे में जोक सुनने को मिलेंगे। ब्रिटेन के लोगों की देशी  लोगों के प्रति अच्छी धारणा नहीं है। हम पूर्व धारणा से इतने बंध गए हैं कि हम अन्य लोगों के खान-पान, कपड़ों और भाषा के बारे में अनेक हास्य विनोदपूर्ण कहानियां बना देते हैं। 
 
आस्टे्रलिया और इंगलैंड मेंं भारतीय छात्रों के प्रति अपराधों की खबरें मिलती रहती हैं। ब्रिटेन में राजनेता और कम्पनियां भारतीयों के प्रति भेदभाव करती हैं। अमरीका में भारतीय अमरीकियों को नापसंद किया जाता है और उन्हें देश की छवि खराब करने वाला माना जाता है। इससे प्रश्न उठता है कि क्या अभी भी हमारे यहां सपेरे रहते हैंं? क्या भारतीय आज भी बैलों पर सवार होकर स्कूल जाते हैं? आपने अंग्रेजी कैसे सीख ली? ये सारे प्रश्न हमें क्रोधित कर देते हैं। 
 
अत: समय आ गया है कि हम भारतीय जागें 
और इस बात को स्वीकार करें कि इस मुद्दे का निराकरण करना होगा।         
 
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