फसलों की छीजन जलाने की बजाय बेहतर विकल्प अपनाए जाएं

Edited By ,Updated: 28 Apr, 2017 10:57 PM

instead of burning the crops better alternatives should be adopted

हमारे देश में अप्रैल, मई और अक्तूबर-नवम्बर में इस तरह की खबरें आम रहती हैं कि.....

हमारे देश में अप्रैल, मई और अक्तूबर-नवम्बर में इस तरह की खबरें आम रहती हैं कि फसल कटाई के बाद खेतों में बची छीजन को आग के हवाले करने से पर्यावरण का बड़ा भारी नुक्सान हो रहा है। धुएं का असर उन प्रदेशों में तो होता ही है, आस-पास के क्षेत्रों में भी इसका दुष्प्रभाव होता है, सांस की तकलीफ, दिल की बीमारी और इससे गंभीर बीमारियों के होने का खतरा बढ़ जाता है। 

इस संबंध में बने कानून मानने के बजाय खेतीबाड़ी में लगी विशाल जनसंख्या इसका उल्लंघन करने में ज्यादा मुस्तैदी दिखाती है। उनका कहना है कि यह कोई आज से तो हो नहीं रहा, पीढ़ी-दर-पीढ़ी से चला आ रहा है। नई फसल की बुआई से पहले खेतों की सफाई जरूरी है और हम वही तो कर रहे हैं। लगा लो जुर्माना, कर लो गिरफ्तार, चला लो हम पर मुकद्दमे और इसी तरह की बातें। असल में फसल की कटाई के बाद दूसरी फसल की बुआई के लिए किसान के पास इतना कम समय होता है कि वह छीजन को जलाने के अतिरिक्त और  कुछ नहीं सोचता। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारी सरकारें और समाज किसान को दोष तो देते रहते हैं लेकिन उसे वह विकल्प देने में कोताही कर देते हैं जिन्हें अपनाकर वह आग लगाने जैसे उपाय से बच सकता है। 

आजादी के इतने साल बाद भी अगर उसे आग लगाना ही अच्छा लगता है तो इसका मतलब यह है कि इसके लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। हालांकि कागजों और किताबों में किसानों को लगातार यह सलाह दी जाती है कि छीजन के इस्तेमाल के दूसरे विकल्प अपनाइए, यह करिए, वह करिए लेकिन ये सब ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की तरह है क्योंकि किसान को वह सब नहीं मिल रहा जिससे खेतों में आग न लगाने के प्रति उत्साह हो। मिसाल के तौर पर कहा गया है कि छीजन से बिजली पैदा करने के लिए बायोमास आधारित विद्युत संयंत्र लगाए जाएं लेकिन हकीकत यह है कि पंजाब में अभी तक यह नहीं लग पाया है और हरियाणा में शुरूआत ही नहीं हुई है। 

कहा गया है कि इसके लिए आधुनिक फीडर मशीनें सभी किसानों को दी जाएंगी जिनके इस्तेमाल से वे खेतों की सफाई का काम जल्दी निपटा सकते हैं। लगभग सवा लाख रुपए की मशीन पर आधी सबसिडी भी देने की बात है लेकिन मशीनें ही पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं जिसकी वजह से केवल 10 प्रतिशत ही सफाई हो पाती है। किसान से कहा जाता है कि वह धान और गेहूं को छोड़कर दूसरी चीजों की खेती करे जिनकी बुआई के लिए उसके पास काफी वक्त होता है लेकिन क्या उसे जरूरी सुविधाएं जैसे उन्नत बीज, पौध और खाद देनेके समुचित प्रबंध हुए; लगभग न के बराबर और फिरअगर किसान धान और गेहूं की फसल नहीं लेगा तो देश में खाद्यान्न का अभाव नहीं हो जाएगा? 

हालांकि हमारे पास आज खेतीबाड़ी के वैज्ञानिक और अनुभव जनित तरीके हैं जिन्हें अपनाकर वह छीजन को जलाने से परहेज कर सकता है जैसे कि जीरोटिलेज, मलचिंग आदि लेकिन उसके लिए साधन और मशीनें ही उपलब्ध नहीं हैं। उसे सलाह दी जाती है कि वह इससे ऑर्गैनिक खाद बनाए लेकिन इसके लिए क्या संयंत्र भी स्वयं लगाएगा? किसान यह जानता है कि आग लगाने से जमीन को उपजाऊ बनाए रखने के लिए नाइट्रोजन, फासफोरस, सल्फर, पोटेशियम और सबसे बड़ी चीज मिट्टी की ऊपरी परत नष्ट हो जाती है। उसकी जमीन कुछ समय बाद खेती के काबिल न रहकर बंजरपन का शिकार बन सकती है। उसे यह भी पता है कि आग लगाने से ऐसे कीट-पतंगे भी समाप्त हो जाते हैं जो खेतीबाड़ी में सहायक होते हैं। यहां तक कि आग लगाने से बिजली और इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों को भी नुक्सान पहुंचता है। भूमि के साथ-साथ जल स्रोतों का भी हृास होने लगता है जो उसके स्वयं के भविष्य के लिए घातक है। 

इन सब बातों को जानते हुए भी यदि किसान खेतों की कटाई के लिए आग लगाने जैसे विकल्प को चुनता है तो इसका मतलब उसकी कामचोरी, लापरवाही और लोभ-लालच नहीं है बल्कि ऐसी सुविधाओं का उसके लिए इंतजाम न होना है जिनकी मदद से वह यह अपराध करने से बच सकता है। किसान को आग लगाने के बाद उसे पकडऩे, जुर्माना लगाने के लिए सैटेलाइट से जानकारी लेना आसान है लेकिन उसी सैटेलाइट से किसान की दुर्दशा और मजबूरी का जायजा नहीं लिया जा सकता, यह विडम्बना ही तो है! पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में अनुमान के मुताबिक सालाना 550 मिलियन टन छीजन खेतों में से निकलती है। यह कोई मामूली बात नहीं है बल्कि ऐसी सम्पदा है जिसे जलाने के बजाय यदि बहुपयोगी कामों में इस्तेमाल किया जाए तो राज्यों की आर्थिक स्थिति और अधिक मजबूत हो सकती है। 

इस छीजन के इस्तेमाल द्वारा जैविक ईंधन बनाने की तकनीक विकसित हो चुकी है, जैविक उर्वरक तैयार किए जा सकते हैं और यही नहीं, अब तो इस छीजन से कार्ड बोर्ड से लेकर मजबूत टाइलें बनाने की भी तकनीक हमारे ही देश में उपलब्ध है। पंजाब जिसके पास पूरे देश का केवल डेढ़ प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र है, वह देश में खाद्यान्न की 50 प्रतिशत जरूरतें पूरी करता है। हरियाणा में पंजाब से लगभग आधी उपज होती है। ये दो प्रदेश भारत की भूख मिटाने में इतना बड़ा योगदान करते हैं लेकिन बदनाम इस बात से होते हैं कि आग लगाने से प्रदूषण बढ़ा रहे हैं, जनमानस को बीमारियों की सौगात दे रहे हैं। 

कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि एक टन छीजन जलाए जाने से 5.5 किलो नाइट्रोजन, 2.3 किलो फासफोरस, 25 किलो पोटेशियम और 1.2 किलो सल्फर नष्ट हो जाता है। इसके साथ आग लगाने से जमीन का तापमान बहुत बढ़ जाता है जिससे मिट्टी में मौजूद लाभदायक तत्व जैसे फुंगी, कीट और रेंगने वाले जीव समाप्त हो जाते हैं। इसके अलावा आग से वन भी तबाह होने लगते हैं और धुएं की गहरी चादर बिछ जाने से सड़कों पर दुर्घटनाएं होने और उसमें सांस लेने से फेफड़ों पर बुरा असर पड़ता है।जब आग लगाना इतना हानिकारक है तो फिर ऐसे उपायों पर तेजी से अमल क्यों नहीं किया जाता जिनसे हम इन दुष्प्रभावों से बच सकें। 

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