न्यायपालिका में ‘सब अच्छा’ नहीं

Edited By ,Updated: 24 Feb, 2017 12:15 AM

judiciary in all not good

कोलकाता हाईकोर्ट के जज एस.सी. कर्णन ने जिस प्रकार अभी-अभी

कोलकाता हाईकोर्ट के जज एस.सी. कर्णन ने जिस प्रकार अभी-अभी सुप्रीम कोर्ट में न्यायालय की अवमानना के संबंध में पेशी भुगती है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि न्यायपालिका में सब अच्छा नहीं है।  इसी बात को यूं भी कहा जा सकता है कि न्यायमूर्ति कर्णन ने जिस प्रकार  अपने उपस्थित न होने के बारे में सुप्रीम कोर्ट को सूचित नहीं किया था, वह न केवल सर्वोच्च न्यायालय  को चुनौती देने बल्कि उसे दर्पण दिखाने के तुल्य है। 

न्यायपालिका से सम्बद्ध लोगों का इस प्रकार के घटनाक्रम पर हत्प्रभ रह जाना स्वाभाविक ही है। ऊपर से सितम की बात तो यह है कि न्यायमूर्ति महोदय ने दलित होने के कारण खुद के साथ अन्याय होने की बात की है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन्हें तलब तो न्यायालय की मानहानि के मामले में किया गया था लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर एक शब्द भी कहने की बजाय दलित होने की कहानी शुरू कर दी। 

वास्तव में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायमूर्ति कर्णन के उस पत्र का सख्त नोटिस लिया है जो उन्होंने सीधे प्रधानमंत्री को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार का उल्लेख तो किया ही था, साथ ही कई जजों की सूची भी प्रस्तुत की थी जो भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं। आश्चर्य की बात है कि इनमें सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का नाम भी शामिल है। 

सुप्रीम कोर्ट ने इस पत्र का संज्ञान लेते हुए उन्हें स्पष्टीकरण के लिए तलब किया था लेकिन उन्होंने इसकी सरासर अनदेखी की। जवाब तलबी के लिए उन्होंने चीफ जस्टिस जे.एस. खेहर सहित 7 जजों की पीठ के समक्ष पेश होना था। सुप्रीम कोर्ट की नजरों में जस्टिस कर्णन द्वारा प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर न्यायपालिका के आंतरिक क्रियाकलापों का उल्लेख किया जाना सीधे-सीधे अदालत की अवमानना है। 

हैरानी अब इस बात की है कि एक अवमानना तो जस्टिस कर्णन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर की और दूसरी पेशी पर उपस्थित न होकर कर दी। फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने अब उन्हें 3 सप्ताह का समय और दे दिया है ताकि इस दौरान वह प्रस्तुत होकर अपना पक्ष प्रस्तुत करें। हैरानी यह भी है कि यदि प्रधानमंत्री इस सूची में शामिल नामों की छानबीन करवाते हैं तो क्या होगा? 

ऐसी स्थिति के दो उल्लेखनीय आयाम हैं। पहला- आमतौर पर जब किसी भी व्यक्ति को अदालत की अवमानना के मामले में तलब किया जाता है तो यह कल्पना ही नहीं की जाती कि वह अदालत में पेश नहीं होगा। यह देखना अदालत का काम है कि ऐसे व्यक्ति को कौन सी सजा देनी है। 

दूसरी बात है-न्यापालिका का एक जज ही जब अदालत की अवमानना कर रहा हो और वह भी दूसरी बार, तो सर्वोच्च अदालत उसे फिर भी अगली पेशी के लिए 3 सप्ताह का समय दे रही है। सवाल पैदा होता है कि यदि वह न्यायमूर्ति महोदय इस अवधि दौरान भी पेश नहीं होते तो सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या होगा? वैसे फिलहाल तो यह स्पष्ट हो गया है कि अदालत की अवमानना की सजा केवल आम लोगों के लिए है, अदालत के अपने जजों के लिए नहीं। 

जरा सोचें कि एक न्यायमूर्ति महोदय ही जब अदालत द्वारा तलब किए जाने के बावजूद पेशी पर उपस्थित नहीं होते तो इसका न्यायपालिका और आम लोगों में क्या संदेश जाएगा? यह बात भी हो सकती है कि न्यायमूर्ति महोदय ने प्रधानमंत्री को जो चिट्ठी लिखी है शायद वह व्यवस्था से दुखी होकर लेकिन सोच-समझ कर ही भेजी गई होगी। 

कल को अदालत की इस अवमानना का क्या नतीजा निकलता है, इसका पता तो आगामी कुछ दिनों में लग ही जाएगा लेकिन इस चिट्ठी से जजों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण करने वाली कोलेजियम प्रणाली पर भी कई प्रश्रचिन्ह अवश्य लग जाएंगे। जस्टिस कर्णन ने इस पत्र से पहले भी एक बार अपने स्थानांतरण पर किंतु-परन्तु किया था। 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि न्यायपालिका की नौकरी दौरान संबंधित न्यायमूर्ति के साथ कुछ ज्यादतियां हुई होंगी और कुछ अन्य के साथ हुई ज्यादतियों को भी उन्होंने बहुत करीब से देखा होगा लेकिन यह भी एक मानी हुई सच्चाई है कि हर नौकरी की कुछ अनिवार्य सेवा शर्तें होती हैं, जिन पर पहरा देना अनिवार्य होता है। इनमें से एक शर्त तो यह है कि अपने विभाग की कमियां-पेशियां चाहे कुछ भी हों, उनके प्रति मौन धारण करना होगा।  लेकिन जस्टिस कर्णन ने ऐसा न करके नि:संदेह नौकरी की सेवा शर्तों का उल्लंघन किया है। 

न्यायपालिका में चल रहे इन समस्त क्रियाकलापों को एक वरिष्ठ जज द्वारा देश के सामने पेश किए जाने से उसकी खुद की मानसिक संतुष्टि तो हो सकती है लेकिन न्यायपालिका के लिए यह हितकर नहीं। इस पत्र ने न्यायपालिका की ईमानदारी का ठीकरा चौराहे में फोड़ दिया है। हालांकि इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पांचों उंगलियां एक जैसी नहीं होतीं। ऐसी बात भी नहीं कि यदि न्यायालय में भ्रष्टाचार का बोलबाला होना शुरू हो गया है तो कोई ईमानदार और परिश्रमी जज नहीं रह गए होंगे?

ऐसे जजों की कोई कमी नहीं जो हमारी न्यायपालिका को पश्चिमी देशों की न्यायपालिकाओं के समकक्ष बनाने के भरसक प्रयास कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश जस्टिस खेहर ने स्वयं अदालती कार्य को चुस्त-दुरुस्त बनाने के लिए नई रणनीति तैयार की है, हालांकि उनके पास समय अधिक नहीं है क्योंकि वह अगस्त में ही सेवानिवृत्त हो रहे हैं। 

कल को जस्टिस कर्णन का भाग्य कौन सी करवट लेता है, इस बारे में अभी से कुछ कहना संभव नहीं लेकिन उन्होंने न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार का जो मुद्दा उठाया है, वह अत्यंत गंभीर है। यह न्यायपालिका की बदनामी है। देखना अब यह है कि न्यायपालिका अपने माथे पर लगे इस कलंक को कैसे दूर करती है।   

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