‘मोदी इफैक्ट’ आज भी जन-भावनाओं का नियंता

Edited By Punjab Kesari,Updated: 20 Nov, 2017 02:56 AM

modi effect is still the peoples emotions

हमारे पास पिछले 34 दिनों में 3 अध्ययन रिपोर्टें आईं। तीनों अमरीका स्थित संस्थाएं, तीनों  विश्व में सम्मानित, एक के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जन स्वीकार्यता ही नहीं, उनके शासन पर विश्वास भी बढ़ा है और जबकि दूसरी ने मोदी सरकार की आर्थिक...

हमारे पास पिछले 34 दिनों में 3 अध्ययन रिपोर्टें आईं। तीनों अमरीका स्थित संस्थाएं, तीनों विश्व में सम्मानित, एक के अनुसार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जन स्वीकार्यता ही नहीं, उनके शासन पर विश्वास भी बढ़ा है और जबकि दूसरी ने मोदी सरकार की आर्थिक सुधार की नीतियों पर मोहर के रूप में भारत को अपग्रेड करते हुए ‘सकारात्मक’ से ‘स्थिर’ वर्ग में डाला है। 

तीसरी ने कुछ ही दिनों पहले की अपनी रिपोर्ट में पिछले 3 सालों में भुखमरी की समस्या से जूझने में दुनिया के अन्य गरीब देशों से भारत को 45 पायदान नीचे दिखाया है। पहला देश के 2464 लोगों से बातचीत साक्षात्कार के आधार पर है और तीसरा भारत सरकार की ही संस्थाओं द्वारा व्यापक सर्वेक्षण के बाद दिए गए आंकड़ों के आधार पर। पहला अध्ययन पिउ रिसर्च सैंटर का है जबकि दूसरा अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजैंसी मूडीज का है जिसने नीतियों पर मोहर लगाई है। तीसरा अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (इफ्प्री) का है, जो केवल पिछले आंकड़ों के आधार पर देशों का वर्गीकरण करता है। हम न तो पिउ की मैथोडोलोजी (अध्ययन प्रक्रिया) को गलत कह सकते हैं न ही मूडीज की नीतियों की सार्थकता माप कर भावी दिशा को निर्धारित करने की सलाहियत को और न ही सरकारी आंकड़ों पर आधारित निष्कर्ष को। इन तीनों की ईमानदारी पर शायद ही कोई सवाल उठा सकता है। 

फिर यह विरोधाभास क्यों? यह विरोधाभास इसलिए है क्योंकि पहला अध्ययन, उसकी प्रश्नावली और उसका तरीका लोगों की भावना को लेकर था, जबकि दूसरा आॢथक नीतियों के प्रति मोदी सरकार की प्रतिबद्धता को लेकर। और तीसरा शुद्ध तर्क आधारित वैज्ञानिक आंकड़ों पर जो मात्र तथ्य दिखाता है। शायद अर्ध-शिक्षित और अतार्किक समाज में भोगा यथार्थ भावना निर्माण का आधार नहीं बनता। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मोदी पर आज भी वह भरोसा कायम है जो जनता ने 10 साल के मनमोहन शासन काल में खो दिया था। ‘‘अगर मोदी हैं, तो वह सब कुछ होगा जो हम अपेक्षा करते हैं’’  का भाव। यह भाव ‘‘कोई नृप होहीं, हमें का हानी’’ वाले नैराश्य-भाव से अलग है। इसमें ‘‘राजा’’ से अपेक्षा का अभाव नहीं है, पर ‘‘राजा’’ को 3 साल बाद नजरों से उतार देने और 5 साल बाद बदल देने की प्रजातांत्रिक जिद भी नहीं है। 

मोदी इस लिहाज से सफल माने जाएंगे कि एक ऐसे समाज में, जिसमें मीडिया की पैठ इतनी गहरी हो कि देश के 95 प्रतिशत घरों में टी.वी. सैट हों या जहां सरकार की हर गलती और सही कुछ मिनटों में देश, सुन या पढ़ सकता हो, मोदी का उसके मन-मस्तिष्क में बने रहना किसी दुनिया के राजनीति शास्त्र के विद्वानों के लिए एक शोध का सबब हो सकता है। फिर जो बात मूडीज समझ जाता है, जो पिउ रिसर्च को जनता बताती है वह इफ्प्री के भूख सूचकांक से अलग क्यों है और अगर है तो जनता इस भोगे यथार्थ को संज्ञान में क्यों नहीं लेती? पिउ की प्रश्नावली का एक सवाल देखें। क्या आप एक ऐसे मजबूत नेता को चाहेंगे जो फैसले बगैर किसी संसद या न्यायपालिका के हस्तक्षेप के ले? 55 प्रतिशत लोगों ने ‘हां’ में जवाब दिया और लगभग इतनों ने ही देश में फौजी शासन की भी हिमायत की। 

इसे क्या समझा जाए?  70 साल के प्रजातांत्रिक शासन में जनता का विश्वास देश की सबसे बड़ी संस्था (संसद) या सबसे प्रभावी संस्था (न्यायपालिका) में कम हुआ है। या यह कि मोदी के प्रति भरोसे के भावनात्मक तूफान में ये संस्थाएं डूब रही हैं। क्या यह मोदी के व्यक्तित्व का कमाल है या जनता की डरावनी नासमझी जो प्रजातंत्र की जगह सैन्य शासन को बेहतर मानती है? क्या भारत का समाज सोच के स्तर पर जड़वत होता जा रहा है या उसका 70 साल की कुंठा-जनित क्रोध उभर आया है? ध्यान देने की बात यह है कि पिउ ने दुनिया के जिन 38 देशों में यह सर्वे किया, उनमें से सिर्फ 4  ही ऐसे थे जिनकी जनता में से हर दूसरे व्यक्ति ने फौजी शासन को बेहतर विकल्प बताया। अब जरा इन भावनाओं में विरोधाभास देखें। 10 में से 8 लोगों ने कहा कि पिछले 50 सालों में जीवन बेहतर हुआ है और उनका यह भी मानना है कि उनके बच्चों का भविष्य बेहतर होगा। फिर संसद और न्यायपालिका को किनारे कर एक ‘‘मजबूत’’ नेता को सर्वशक्तिमान बनाने की चाहत क्यों? शायद ‘‘मोदी इफैक्ट’’! 

13 मुद्दों को लेकर बहुसंख्यक लोगों ने खराब गुणवत्ता वाले स्कूल, स्वास्थ्य और गरीब-अमीर की बढ़ती खाई को कम अहमियत दी है, हालांकि आतंकवाद, अफसरों में भ्रष्टाचार और महंगाई पर इनकी ङ्क्षचता सर्वोच्च है। अगर दुनिया की मकबूल 14 संस्थाओं द्वारा आर्थिक, सामाजिक, स्वास्थ्य और मानव विकास को लेकर किए गए अध्ययन में 16 में से 10 पैरामीटर पर भारत पिछले 3 सालों में पहले के मुकाबले पिछड़ा है, लेकिन फिर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ी ही है, कम नहीं हुई, तो  इसका स्पष्ट मतलब है कि आंकड़े और जन-संतोष का सीधा और समानुपातिक रिश्ता नहीं होता। आंकड़े भी अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के हैं और लोकप्रियता का पैमाना भी उतनी ही विश्वसनीय संस्था का।  यहां इस विभेद से प्रश्न यह उठता है क्या भोगा हुआ यथार्थ या भोग-जनित संतुष्टि या नाराजगी जरूरी नहीं कि भावना में परिवर्तित हो? 

पिउ के अध्ययन के अनुसार, भारत सरकार को लेकर लगभग 5 में से 4 व्यक्ति यह मानते हैं कि सरकार तमाम मुद्दों पर अच्छा काम कर रही है और सत्ताधारी पार्टी (भारतीय जनता पार्टी) भी कांग्रेस के मुकाबले पिछले एक साल में बेहतर समर्थन हासिल कर सकी है। उधर दुनिया के 14 अन्य संगठनों की रिपोर्टों को अगर एक साथ रखा जाए, तो इन 16 पैरामीटर्स में से 3 पर भारत का प्रदर्शन बेहतर रहा है और अन्य 3 पर लगभग पूर्ववत। जिनमें पिछड़ा है, उनमें भूख पर काबू पाने में अन्य देशों के मुकाबले असफलता, मानव संसाधन, खुशी का पैमाना और बौद्धिक संपदा प्रमुख हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय समाज की सामूहिक सोच में भावना का अंश आदिकाल से ही यथार्थ पर भारी रहा है।

यही वजह है कि हम एक तार्किक समाज नहीं बन पाए क्योंकि पश्चिमी समाज जहां ‘‘निविदा-आधारित’’ रहा है (कॉन्ट्रैक्ट-बेस्ड), वहीं भारतीय समाज की बुनियाद ‘‘संबंधों की प्रगाढ़ता’’ पर बनी है। यही वजह है नेहरू दशकों तक ‘डार्लिंग ऑफ द इंडियन मासेज’ (जनता के दुलारे) रहे और लोगों ने कभी उनके शासन की गुणवत्ता पर, उनके जीवन काल में प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया। भावना प्रबल थी। जब राजा दशरथ ने राम को वनवास का आदेश दिया तो जनता में कुछ लोगों ने निंदा की, लेकिन वहीं अन्य ने कहा ‘‘एक धर्म परमिति पहचाने, नृपहिं दोष नहीं दीन्ही सयाने’’ यानी तुलसी के अनुसार, ज्ञानी लोग धर्म की सीमा समझते हुए राजा में दोष नहीं देखते। आज की जनता शायद ज्ञानी हो चुकी है।-एन.के. सिंह

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