राष्ट्रगान का आदर किया जाना चाहिए

Edited By Punjab Kesari,Updated: 17 Jan, 2018 12:55 AM

national anthem should be respected

मैं जब सियालकोट, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में था तो छावनी के सिनेमा हालों में नियमित रूप से जाया करता था। उस समय यह बुरा लगता था कि मुझे ब्रिटिश राष्ट्रगान, गॉड सेेव द किंग के लिए खड़ा होना पड़ता था। सिनेमा हाल के दरवाजे बंद नहीं किए जाते थे और...

मैं जब सियालकोट, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में था तो छावनी के सिनेमा हालों में नियमित रूप से जाया करता था। उस समय यह बुरा लगता था कि मुझे ब्रिटिश राष्ट्रगान, गॉड सेेव द किंग के लिए खड़ा होना पड़ता था। सिनेमा हाल के दरवाजे बंद नहीं किए जाते थे और यह लोगों पर छोड़ दिया जाता था कि वे किस तरह का व्यवहार करते हैं। कोई बाध्यता नहीं थी लेकिन यह उम्मीद की जाती थी कि जब ब्रिटिश राष्ट्र गान बजे तो आप खड़े हों।

ब्रिटिश शासक जनता के अधिकार के प्रति संवेदनशील थे और उन्होंने इसे अनिवार्य नहीं बनाया था या खड़े नहीं होने वाले के खिलाफ  कोई दंडात्मक कार्रवाई भी नहीं थोपी थी। महत्वपूर्ण बात यह थी कि धीरे-धीरे भारतीय फिल्मों के अंत में ब्रिटिश राष्ट्र गान को बजाने से परहेज किया जाने लगा था ताकि दर्शक महाराजा और बाद में महारानी का अनादर न करें। वैसे भी वे तमाशे से बचना चाहते थे।

थिएटरों में राष्ट्रगान बजाने को लेकर अतीत में कानूनी हस्तक्षेप होते रहे हैं। सन् 2003 में महाराष्ट्र की विधानसभा ने एक आदेश पारित कर फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाना अनिवार्य कर दिया था। 1960 के दशक में इसे फिल्म के अंत में बजाया जाता था लेकिन लोग सिनेमा खत्म होने पर सीधे लाइन में बाहर निकल जाते थे इसलिए इसे बंद कर दिया गया।

मौजूदा कानून राष्ट्रगान के लिए खड़े होने या इसे गाने के उद्देश्य से किसी व्यक्ति को सजा नहीं देता या बाध्य नहीं करता। राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारण कानून, 1971 कहता है, ‘‘जो कोई भी जानबूझ कर जन-गण को गाने से रोकता है या इसके लिए जमा हुए लोगों के गाने में बाधा डालता है, उसे जेल की सजा, जिसकी मियाद 3 साल तक बढ़ाई जा सकती है या आॢथक दंड या दोनों के जरिए दंडित किया जाएगा।

आधिकारिक तौर पर राष्ट्रगान के बजाने की अवधि 52 सैकेंड है लेकिन सिनेमा हाल में जो आमतौर पर बजाया जाता है वह इससे ज्यादा अवधि का होता है। साल 2015 में गृह मंत्रालय का एक आदेश कहता है, ‘‘जब भी राष्ट्रगान गाया या बजाया जाएगा, दर्शक सावधान की मुद्रा में खड़ा होगा लेकिन किसी न्यूज रील या डाक्यूमैंट्री के दौरान अगर राष्ट्रगान फिल्म के हिस्से के रूप में बजाया जाता है तो दर्शक से खड़े होने की अपेक्षा नहीं की जाती है क्योंकि यह फिल्म के प्रदर्शन में अवश्य बाधा डालेगा और राष्ट्रगान के सम्मान को बढ़ाने के बदले अशांति तथा गड़बड़़ी पैदा करेगा।’’

और अभी तक कानून विशेष तौर पर कहता है कि इसे ‘‘लोगों के बेहतर विवेक पर’’ छोड़ दिया गया है कि वे राष्ट्रगान के अविवेकपूर्ण ढंग से गाने या बजाने का काम नहीं करें। इसके भी विशेष नियम बनाए गए हैं कि किसके लिए राष्ट्रगान बजाया जा सकता है (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री नहीं) और कब लोग सामूहिक रूप से गान कर सकते हैं।

जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू करने और इसके उल्लंघन के लिए दंड के बारे में कोई स्पष्टता नहीं है। आजादी को लेकर निश्चित तौर पर लोगों की अपनी-अपनी धारणाओं की मिसाल है, जिनके बारे में कोर्ट का आदेश यही कहता है कि लोग इसका उपभोग सीमा से ज्यादा करते हैं और इसे राष्ट्रवाद के सिद्धंात की कीमत पर सही ठहराया जा रहा है।

अब तक की जो स्थिति है, उसमें सुप्रीम कोर्ट का कोई आदेश या कानूनी प्रावधान या प्रशासनिक निर्देश नहीं है जो राष्ट्रगान के समय लोगों को खड़ा होना अनिवार्य बनाता है। लोग ऐसा करते हैं, यह निश्चित तौर पर उनके व्यक्तिगत आदर की अभिव्यक्ति है  लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि सिनेमा हाल में फिल्म के प्रदर्शन के पहले राष्ट्रगान बजाया जाना चाहिए और ‘‘सम्मान में सभी को खड़े होना’’ चाहिए।’’ लोगों को यह महसूस करना चाहिए कि वे एक राष्ट्र में रहते हैं और राष्ट्रगान तथा राष्ट्रीय झंडे का सम्मान करते हैं।’’

अक्तूबर, 2017 में सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने 2016 के आदेश में परिवर्तन के संकेत दिए थे और कहा था,’’ क्यों लोगों को अपनी देशभक्ति बांह पर लगा कर चलना चाहिए ? लोग विशुद्ध मनोरंजन के लिए थिएटर जाते हैं। समाज को इस मनोरंजन की जरूरत है।’’

लेकिन सरकार ने कोर्ट से कहा था कि वह नवम्बर, 2016 की स्थिति वापस लाने पर विचार कर सकती है जिसमें सिनेमा हालों के लिए राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य नहीं था। सरकार ने कहा,  ‘‘माननीय न्यायालय तब तक के लिए पहले की स्थिति बहाल करने पर विचार कर सकता है यानी 30 नवम्बर, 2016 के निर्देश ‘डी’ के पहले की स्थिति जिसमें फीचर फिल्म के शुरू होने के पहले राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किया गया है।’’

कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट की 2 सदस्यीय खंडपीठ ने केरल के एक स्कूल से निकाल दिए गए उन 2 बच्चों को वापस लेने का आदेश दिया था जिन्होंने राष्ट्रगान में शामिल होने से इसलिए परहेज किया था कि यहोवा, उनके भगवान की प्रार्थना को छोड़कर उनका धर्म किसी रिवाज में शामिल होने की इजाजत नहीं देता है, हालांकि बच्चे गान के समय खड़े हुए थे।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई भी कानूनी प्रावधान नहीं है जो किसी को राष्ट्रगान गाने के लिए बाध्य करता है और यह राष्ट्रगान के प्रति असम्मान नहीं है, अगर कोई ‘इसे गाते समय खड़ा होता है लेकिन इसे गाने में शामिल नहीं होता है’’। हालांकि अदालत ने इस मामले पर फैसले का अंत एक संदेश से किया, ‘‘हमारी परंपरा सहिष्णुता सिखाती है; हमारा दर्शन सहिष्णुता का उपदेश देता है; हमारा संविधान सहिष्णुता का पालन करता है; हमें इसे कमजोर नहीं करना चाहिए।’’

दुर्भाग्य से किसी स्पष्ट आदेश की अनुपस्थिति में, विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इस मामले पर अलग-अलग ढंग से विचार किया है। उदाहरण के तौर पर अगस्त 2014 में केरल की पुलिस ने 2 महिलाओं समेत 7 लोगों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए (राजद्रोह) लगा दी थी क्योंकि वे तिरुवनंतपुरम के एक थिएटर में राष्ट्रगान के समय खड़े होने में विफल रहे थे। उनमें से एक एम. सलमान (25) को कथित तौर पर ‘‘राष्ट्रगान बजते समय ‘‘बैठे रहने तथा तिरस्कार करने’’ के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था। फेसबुक पर कथित तौर पर राष्ट्रीय झंडे के खिलाफ एक अपमानजनक पोस्ट डालने के लिए उसके खिलाफ आई.टी. एक्ट की धारा 66 भी लगाई गई थी।

व्यक्तिगत तौर पर, मेरी यही राय है कि एक स्पष्ट आदेश होना चाहिए कि राष्ट्रगान गाने या बजाए जाने के समय सभी को खड़ा होना होगा क्योंकि प्रावधानों का कुछ हिस्सा राष्ट्रगान बजाए जाते समय खड़े होने को अनिवार्य बनाता है और कुछ हिस्सा इसे अपवाद रखता है लेकिन नियम इसका पालन नहीं करने के लिए कोई दंड निर्धारित नहीं करता है, इसलिए इसे एक्ट के अनुसार काम करना है।   कुलदीप नैयर

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