पूर्वोत्तर को विकास की सबसे अधिक जरूरत

Edited By Punjab Kesari,Updated: 17 Mar, 2018 04:07 AM

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अक्सर जब भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों का जिक्र होता है तो बस इस बात का कि यहां के  निवासी  जंगलों में बसने वाले आदिवासी हैं, वे सुंदर और आकर्षक होते हैं, उनकी नृत्य शैली उत्तेजक होती है, उनके वस्त्र परंपरागत होते हैं, उनका खान-पान अलग होता है...

अक्सर जब भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों का जिक्र होता है तो बस इस बात का कि यहां के  निवासी  जंगलों में बसने वाले आदिवासी हैं, वे सुंदर और आकर्षक होते हैं, उनकी नृत्य शैली उत्तेजक होती है, उनके वस्त्र परंपरागत होते हैं, उनका खान-पान अलग होता है आदि-आदि। इसके साथ एक सच यह भी है कि जब कभी देशी-विदेशी मेहमानों का मनोरंजन करना होता है तो उन्हें आदिवासी नृत्य करने के लिए शोपीस की तरह बुलाया जाता है और फिर वापस भेज दिया जाता है।

एक बार प्रगति मैदान में व्यापार मेले में नागालैंड और मणिपुर के कुछ कलाकार मिल गए। उनसे बातचीत करते हुए लगा कि वे नाराजगी और गुस्से से भरे हैं। बातों-बातों में उन्होंने कहा कि आपके पास तो सब कुछ है; सड़कें हैं, आने-जाने के बढिय़ा साधन हैं, रहने को शानदार और सब तरह की सुविधाओं वाले घर हैं, स्कूल-अस्पताल हैं, यहां तो मजे ही मजे हैं। आगे कहा कि ऐसा लगता है कि हम इस देश के नहीं हैं और आप लोग हमें केवल सजावट या दिखावटी या सिर्फ आमोद-प्रमोद की वस्तु समझते हैं। 

मैं सफाई देने के लिए कुछ कहने को हुआ तो उन्होंने बोलने का मौका दिए बिना कहा कि हमारे यहां पीने का पानी लाने में कई घंटे लगते हैं, कहीं जाना हो तो ऊबड़-खाबड़, खतरनाक रास्ते और टूटी-फूटी बसें हैं। बीमार पडऩे पर जड़ी-बूटी से इलाज करते हैं, स्कूल के नाम पर मजाक होता है। उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली जैसे शहरों में आओ तो वहां भी हमारे साथ कोई ठीक से व्यवहार नहीं करता। आपके बड़े शहरों में हमारे यहां के लड़के और लड़कियों से जो दुव्र्यवहार होता है उसकी खबरें जब हम तक पहुंचती हैं तो हमें आप से और सरकार से नफरत होती है। 

इन सब बातों से एक बात तो समझ में आ ही जाती है कि जब उत्तर-पूर्वी राज्यों के भारत से अलग होने की आवाज सुनाई देती है तो उसके पीछे ज्यादातर बाकी देश द्वारा की गई उनकी उपेक्षा है, वहां विकास का न होना और उन लोगों के प्रति हमारा अज्ञान है। केन्द्र की सरकारों द्वारा उनके साथ की गई भेदभाव और अलगाव की नीति के चलते ही वहां उग्रवादी संगठनों को ताकत मिलती गई, चीन का दखल बढ़ता गया और स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दल बनते गए जो अपने को भारतीय मानने से भी गुरेज करने लगे और आजाद होने की मांग तक होती रही। 

यह जो पिछले कुछ वर्षों से वहां सत्ता परिवर्तन की लहर चली है वह वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा उनकी दुखती नब्ज को पहचान लेने और उनके कंधे पर सहानुभूति भरा हाथ रखने की वजह से ही संभव हो पाई है जिस पर किसी अन्य सरकार का कभी ध्यान नहीं गया। अपने व्यवसाय पत्रकारिता और फिल्म निर्माण के लिए अनेक बार उत्तर-पूर्वी राज्यों में जाने का अवसर मिला। जब भी जाना हुआ तो यह देख कर दुख ही होता था कि या तो सब कुछ पहले जैसा ही है या उसमें और भी गिरावट आ गई है। ऐसा बहुत कम लगा कि इन राज्यों के निवासियों की जीवनशैली, रहन-सहन, व्यवसाय, रोजगार या फिर जीवन के लिए जरूरी संसाधनों की आपूर्ति में कोई अंतर आया है। 

आवागमन के सुगम और पर्याप्त साधनों का अभाव पहले की तरह था, खान-पान और रहने की व्यवस्था भी ज्यादा नहीं बदली। हालांकि पर्यटन में वृद्धि होने के कारण होटल व्यवसाय खुशहाली की तस्वीर लगा। अंधेरा होने के बाद कुछ राज्यों में निकलना अभी भी निरापद नहीं है, खतरा महसूस होता है। वाहनों की जबरदस्त चैकिंग और बाहर से आए लोगों को अपनी सुरक्षा के लिए होटलों या घरों में कैद होने जैसी हालत में रहना पड़ता है। मेघालय, नागालैंड में आज भी अधिकतर खेतीबाड़ी झूम पद्धति के आधार पर होती है जिसमें जंगलों को काटकर खेती करने योग्य बनाया जाता है। 

पहले जंगल काटने की बारी 30 से 40 साल बाद आती थी इसलिए इस अवधि में धरती फिर से उर्वरा हो जाती थी और जंगल काट कर वहां खेतीबाड़ी करना लाभकारी होता था। अब यह अवधि 3 से 4 साल की रह गई है और इससे पहले कि जमीन अपनी उपजाऊ शक्ति फिर से प्राप्त करे, उस पर पैदा हुए जंगल अविकसित अवस्था में ही काट दिए जाते हैं। झूम खेती का विकल्प आज तक पूरी तरह संभव नहीं हो सका। कृषि के साथ उत्तर-पूर्वी राज्यों में जो सबसे बड़ा उद्योग पनप सकता है वह है फूड प्रोसैसिंग इंडस्ट्री। इस क्षेत्र में इतनी अपार संभावनाएं हैं कि न केवल जबरदस्त रोजगार सृजन हो सकता है बल्कि अतिरिक्त खाद्य पदार्थों को सडऩे-गलने और गहरी खाइयों में फैंक देने से भी बचाया जा सकता है।

एक तीसरी चीज जो यहां प्रचुर मात्रा में मिलती है, वह है अनमोल जड़ी-बूटियां। इनकी उपयोगिता इसी बात से समझ में आ सकती है कि इनकी विशाल पैमाने पर तस्करी होती है जिसमें ज्यादातर विदेशी स्मगलर शामिल हैं। उत्तर-पूर्व बेशकीमती खनिज स्रोतों का भंडार है। यहां देश का आधा तेल भंडार उपलब्ध है। शायद ही कोई खनिज हो जो उत्तर-पूर्व में उपलब्ध न हो, तेल, कोयला, लाइम ग्रेनाइट,कॉपर, डोलोमाइट, ग्रेनाइट, अभ्रक, आयरन, सल्फर सब कुछ है। चाय बागान तो विश्व प्रसिद्ध हैं। उनके साथ मसालों का भी भरपूर भंडार है। 

इलायची की तो सबसे अधिक उपज सिक्किम जैसे छोटे से राज्य में होती है। मिजोरम अदरक का भंडार है। सब कुछ तो है यहां लेकिन सरकारों की अदूरदर्शिता, नीतियों की खामियों और केवल इस क्षेत्र को पिछड़ेपन का प्रतीक बनाए रखना ही उत्तर-पूर्व की विडम्बना है। इमारती लकड़ी का भंडार दुनियाभर को लालायित करता है। उसकी स्मगङ्क्षलग के कारण जब यहां के वन्य प्रदेश तहस-नहस होने की कगार तक पहुंच गए तब जाकर सरकारों को होश आया कि प्रदेश को जीवित रखना है तो लकड़ी की स्मगलिंग पर रोक लगानी होगी। सिक्किम को पहले ऑर्गेनिक राज्य का दर्जा मिला है जिसका मतलब यह है कि यह राज्य पूरे देश के लिए अभूतपूर्व मिसाल है। कई दशक पहले वायुमार्ग से आवागमन को सुविधा लायक बनाने के प्रयास हुए थे लेकिन सरकार और प्राइवेट कम्पनियां तो अपना मुनाफा ही देखती हैं तो उसे बंद कर दिया गया। आज भी अनेक स्थानों पर हैलीपैड और एयरपोर्ट मुंह चिढ़ा रहे हैं। 

इन सब बातों का केवल एक मतलब है और वह यह कि यह जो सत्ता परिवर्तन की लहर दिखाई दी है, यदि उससेे इस क्षेत्र में विकास की लहर नहीं पनपी तो फिर 5 वर्ष बाद सत्ता परिवर्तन होने से कोई नहीं रोक सकता। इसका कारण भी साफ  है कि अब यहां के लोग पिछड़ेपन का नहीं, विकास का प्रतीक बनना चाहते हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों पर जबरदस्ती का पिछड़ापन लादा जाता रहा है और उन्हेें उसी हालत में बनाए रखने में पता नहीं सरकारों और प्रशासन का क्या लाभ है, यह समझ से परे है। सबसे पहले सभी राज्यों को आपस में सड़क और वायुमार्ग से जोड़ दिया जाए तो एक-दूसरे के संसाधनों का बेहतरीन इस्तेमाल किया जा सकता है। 

दूसरी चीज यह कि तेल और खनिज पदार्थों का अनावश्यक दोहन बंद होना चााहिए और ऐसे नियम तथा कानून बनने चाहिएं जिनसे प्राकृतिक वनस्पतियों, जड़ी-बूटियों की तस्करी असंभव हो जाए। तीसरी जरूरी चीज यह है कि स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन अधिक से अधिक हो। अभी तक तो यह होता है कि ज्यादातर युवा पीढ़ी उच्च शिक्षा के लिए अन्य शहरों में जाती है तो  वहीं बस जाने को प्राथमिकता देती है क्योंकि उनके प्रदेश में उनके लायक रोजगार उपलब्ध नहीं है। यदि इन प्रदेशों में उनकी योग्यता के अनुरूप उद्योग-धंधे और व्यवसाय विकसित हो जाएं तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर वे अपने प्रदेश में ही नौकरी या व्यवसाय कर सकेंगे। अगर ये तीन काम हो जाएं तो फिर उत्तर-पूर्व देश का सिरमौर बनना निश्चित है।-पूरन चंद सरीन

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