उच्च शिक्षा नीतियों में बुनियादी बदलाव की जरूरत

Edited By Punjab Kesari,Updated: 27 May, 2017 12:00 AM

need for basic change in higher education policies

सत्ता के गलियारों से खबर आ रही है कि देश के छात्रों को बेहतर और गुणात्मक उच्च शिक्षा कैसे...

सत्ता के गलियारों से खबर आ रही है कि देश के छात्रों को बेहतर और गुणात्मक उच्च शिक्षा कैसे मिले,  इस दिशा में केन्द्र सरकार का मानव संसाधन मंत्रालय बड़ी तेजी से उपाय कर रहा है। इस समय देश का उच्च शिक्षा क्षेत्र अनेक तरह की विसंगतियों का शिकार है जिसके कारण केन्द्र सरकार की उच्च शिक्षा को लेकर गतिशीलता बढ़ी है। 

हाल ही में एक सर्वे में सामने आया है कि देश के अधिकांश प्रदेशों की राज्य सरकारों की उच्च शिक्षा में कोई खास रुचि नहीं है और वे इसका वित्तीय भार नहीं उठाना चाह रहीं। इसी कारण अनेक प्रदेशों में यू.जी.सी. से स्वीकृत पदों को राज्य सरकार की सहमति नहीं मिली और वे ‘लैप्स’ हो गए। सेवानिवृत्त होने वाले अध्यापकों के पद भरे नहीं जा रहे हैं। उनकी जगह अंशकालिक अध्यापकों, शोध-छात्रों या अतिथि अध्यापकों से काम चलाया जा रहा है। मुल्क की बढ़ती जनसंख्या और उसमें युवा वर्ग के अनुपात को देखते हुए अगले 10-12 साल में उच्च शिक्षा पाने वाले युवाओं की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि होगी जिनके लिए हमारे पास आवश्यक शैक्षणिक व्यवस्था और संसाधनों की स्पष्ट और सार्थक योजना नहीं है। 

देश के सामने खड़े बड़े यक्ष प्रश्नों में एक यह भी है कि हम अपने देश-काल की समस्याओं के प्रति कितने सतर्कऔर संवेदनशील हैं। उच्च शिक्षा की स्वीकृत और प्रचलित शिक्षण और मूल्यांकन की पद्धति सृजनात्मकता और आलोचनात्मक दृष्टि के विरोध में है। प्रवेश परीक्षा से लेकर अंतिम परीक्षा तक कामयाबी के लिए सोच-विचार कम और रटना अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। पूरी की पूरी उच्च शिक्षा पुनरुत्पादन या दोहराव के पाय पर टिकी हुई है। परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों की संख्या सीमित होती जा रही है और प्रतिरोध के चलते पाठ्यक्रम में कोई  खास  बदलाव नहीं लाया जाता है।

उच्च शिक्षा में अध्यापन का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत में अध्यापन का गौरवशाली अतीत रहा है। उसे सर्वोच्च स्थान दिया गया है। ङ्क्षचता का सबब है कि अध्यापकी भी अब दूसरे व्यवसायों की ही तरह हो चली है। शोध-प्रकाशन पर अतिरिक्त बल देने का खमियाजा यह है कि गली-गली से शोध की पत्रिकाएं छप रही हैं जिनका कोई मूल्य नहीं है। कुल मिला कर सच्ची बात यह है कि अध्यापन को लेकर हमारे समाज का जो नैतिक भरोसा था, वह अब टूट-बिखर रहा है। शिक्षा या कोई भी उपक्रम आंतरिक शक्ति और अपने संदर्भ की लगातार उपेक्षा करते हुए अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। सवाल यह है कि प्रासंगिकता और दायित्वबोध को अपने दायरे में लाए बिना क्या उच्च शिक्षा अपनी वह जगह बना सकेगी जिसकी उससे अपेक्षा की जाती है? शायद नहीं। 

भारत युवाओं का देश है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया जैसी अहम योजनाओं को सफल बनाना है तो इसके  लिए युवाओं को सही राह दिखानी होगी। इसके लिए  जरूरी  है कि हमारे छात्रों को बेहतर उच्च शिक्षा दी जाए। भारत के उच्च शिक्षा के शैक्षिक संस्थानों की वल्र्ड में रैंकिंग ठीक नहीं है। घटिया शैक्षिक गुणवत्ता के चलते देश में 400 इंजीनियरिंग कॉलेज पर ताला लटक गया है। सरकार यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन की कार्यप्रणाली और उसके ढांचागत बदलाव के लिए कदम उठाए और एक तय सीमा के बाद सभी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम  में बदलाव किया जाए। कुछ राज्यों के उच्च शिक्षा विभागों की लार्ड मैकाले की सोच पर आधारित कार्य प्रणाली में सुधार भी एक महत्वपूर्ण सामयिक जरूरत है। 

हमारे शिक्षक गैर-अकादमिक कार्यों के बोझ के कारण कई बार शिक्षा की गुणवत्ता से न्याय नहीं कर पाते। इसकी तरफ   सरकार की कोशिशें दिख रही हैं। गौरतलब रहे कि केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री जी ने हाल ही में कहा था कि सरकार का उद्देश्य शिक्षकों पर गैर-अकादमिक कार्यों के बोझ को कम कर शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाना है। यह काम स्कूली शिक्षा से जुड़े अध्यापकों के लिए भी बराबर जरूरी है। देश में जो उच्च शिक्षा का स्तर है वह संतोषजनक नहीं है। अगर इस स्थिति को समय रहते नहीं बदला गया तब देश को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। 

देश को अगर 2020 तक सुपर पावर बनना है तो उसके लिए पढ़े-लिखे तथा दक्ष कर्मियों की बड़ी संख्या में जरूरत है और इसके लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सख्त परिवर्तन करने होंगे। सरकार इस बारे में संजीदा है, यह एक उत्तम संकेत है। देश और समाज चाहता है कि उच्च शिक्षा नीतियों में जल्द बुनियादी बदलाव ला कर इन्हें अमलीजामा पहनाया जाए ताकि देश के शैक्षणिक विकास का मानचित्र गौरवशाली बना रहे।    

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