रोहिंग्या मामला निपटाने के लिए ‘कूटनीतिक कौशल और उदारता’ की जरूरत

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Sep, 2017 12:44 AM

need for diplomatic skills and generosity to settle the rohingya case

भूतपूर्व  पूर्वी पाकिस्तान, श्रीलंका तथा तिब्बत सहित पड़ोसी देशों से आने वाले शरणार्थियों को राहत एवं आश्रय उपलब्ध ...

भूतपूर्व  पूर्वी पाकिस्तान, श्रीलंका तथा तिब्बत सहित पड़ोसी देशों से आने वाले शरणार्थियों को राहत एवं आश्रय उपलब्ध करवाने के मामले में भारत सरकार अतीत में काफी उदार रही है लेकिन म्यांमार से आए मुस्लिम रोहिंग्या शरणार्थियों के मामले में उसका रवैया बहुत ठंडा रहा है। 

सरकार ने सुप्रीमकोर्ट में यह स्टैंड लिया है कि इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) तथा पाकिस्तानी गुप्तचर एजैंसी आई.एस.आई. के साथ ‘घनिष्ठ संबंध’ होने के कारण रोहिंग्या शरणार्थी एक सुरक्षा खतरा हैं। यदि उन्हें भारत में ठहरने दिया गया तो रोहिंग्या शरणार्थी भारतीय प्राकृतिक संसाधनों को चटम कर जाएंगे जिससे ‘‘सामाजिक तनाव बढऩे के साथ-साथ अमन-कानून की समस्याएं भी पैदा हो जाएंगी।’’ सरकार ने यह भी कहा कि ‘‘देश की उच्चतम अदालत द्वारा यदि इस मामले में किसी तरह की हमदर्दी दिखाई जाती है तो इससे हमारे देश में अवैध आप्रवासियों की बाढ़-सी आ जाएगी और इसके फलस्वरूप भारतीय नागरिक अपने मौलिक तथा आधारभूत मानवाधिकारों से वंचित हो जाएंगे।’’ 

ऐसा माना जाता है कि अब तक बंगलादेश में म्यांमार की ओर से लगभग 4 लाख शरणार्थी आए हैं और इनमें से लगभग 40,000 गत कई वर्षों दौरान भारत में घुसपैठ करने में सफल रहे हैं। जहां बंगलादेश मुख्य तौर पर शरणार्थियों की इस बाढ़ का बोझ बर्दाश्त कर रहा है, वहीं भारत सरकार इनका प्रत्यर्पण करने की योजना बना रही है। ऐसा माना जाता है कि एक विशेष मुस्लिम समुदाय से संबंध रखने वाले रोहिंग्या दुनिया का ऐसा सबसे बड़ा नस्लीय समूह हैं जिनके पास अपना कोई वतन नहीं। जहां म्यांमार उन्हें उस इलाके से आए हुए शरणार्थी मानता है जो आज बंगलादेश बन चुका है, वहीं बंगलादेश उन्हें म्यांमार से आए हुए अवैध और अवांछित शरणार्थी मानता है। 

रोहिंग्या खुद यह दावा करते हैं कि वे 15वीं शताब्दी से म्यांमार में बसे हुए हैं लेकिन म्यांमार की सरकार कहती है कि वे इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करें कि इतने लंबे समय से वे उनके देश में रह रहे हैं। म्यांमार सरकार का यह स्टैंड है कि रोहिंग्या लोगों को ब्रिटिश शासकों द्वारा यहां लाया गया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि रोहिंग्या किसी भी देश की नागरिकता का सुख नहीं भोग रहे, हालांकि उनकी संख्या बढ़ते-बढ़ते 10 लाख हो चुकी है। म्यांमार से पलायन की उनकी ताजातरीन लहर तब शुरू हुई जब आराकान रोहिंग्या आर्मी (ए.आर.एस.ए.) जैसे रोहिंग्या बागी गुटों आपसी तालमेल से बड़े स्तर पर पुलिस स्टेशनों पर हमले शुरू कर दिए और यहां तक कि गत 25 अगस्त को एक सैन्य बेस पर भी छापामारी करने का प्रयास किया। ए.आर.एस.ए. ने इन हमलों की जिम्मेदारी ली। 

उल्लेखनीय है कि बर्मा के सुरक्षा बलों ने इसके जवाब में बहुत बड़े स्तर पर और आक्रामक ढंग से कार्रवाई की। जैसा कि स्पष्ट तौर पर होता है, इस कार्रवाई का प्रहार भी आम नागरिकों पर ही हुआ और म्यांमार सेना की बदले की कार्रवाई के फलस्वरूप उन्होंने पलायन शुरू कर दिया। म्यांमार के राष्ट्रपति ह्तिन क्याव का कहना है कि बागी गुट एक के बाद एक हमले करने के दोषी हैं। यहां तक कि जिस नोबेल शांति पुरस्कार विजेता स्टेट काऊंसलर आंग सान सू की को म्यांमार की वर्तमान सरकार के पीछे की वास्तविक शक्ति समझा जाता है, उसने भी अस्पष्ट पोजीशन लेते हुए कहा है कि शरणार्थी चाहें तो लौट सकते हैं लेकिन इससे पहले उन्हें सत्यापन करवाना होगा। नि:संदेह ऐसे साक्ष्य मौजूद हैं कि म्यांमार के कुछ विद्रोही गुटों को पाकिस्तान सीधे तौर पर या अपने द्वारा संचालित कुछ जेहादी गुटों के माध्यम से सहायता और समर्थन दे रहा है।

ऐसे कई संगठनों ने म्यांमार के विरुद्ध हमले का आह्वान किया था। यह भी भली-भांति विदित है कि पाकिस्तान इन विद्रोहियों को गुपचुप ढंग से हथियार और गोली-सिक्के की आपूर्ति करता आ रहा है। कुछ हद तक तो इसी तथ्य से रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत के स्टैंड की व्याख्या हो जाती है। गुप्तचर एजैंसियों ने यह आशंका व्यक्त की है कि रोहिंग्या रिफ्यूजियों के रूप में शायद पाकिस्तानी जासूस भी घुस आए हों और वे भारत के लिए समस्याएं पैदा कर सकते हैं। इसी के चलते भारत सरकार सुप्रीमकोर्ट के समक्ष मजबूत स्टैंड लेने की तैयारी कस रही है। वैसे इस प्रक्रिया के दौरान सरकार गंभीर आलोचना का भी निशाना बना हुई है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायोग ने म्यांमार की स्थिति को नस्लकुशी का पाठ्यपुस्तकीय उदाहरण करार देते हुए भारत के केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू के उस बयान की भी निंदा की है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी कन्वैंशन पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल नहीं इसलिए यह इस मुद्दे पर किसी अंतर्राष्ट्रीय कानून का पाबंद नहीं है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायोग का कहना है कि भारत ‘सामूहिक निष्कासन’ की नीति को कार्यान्वित नहीं कर सकता और लोगों को जबरदस्ती वहां नहीं भेज सकता, जहां उन्हें जेलों में ठूंस दिए जाने का डर हो। 

यहां तक कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एन.एच.आर.सी.) ने भी इस मुद्दे पर भारत सरकार के स्टैंड की आलोचना की है और कहा है कि शरणार्थियों को ‘मानवीय आधार’ पर आश्रय दिया जाए। केन्द्रीय गृह मंत्रालय को भेजे नोटिस में इस संगठन ने कहा है : ‘‘भारत कई शताब्दियों से शरणार्थियों का आश्रालय रहा है... बेशक भारत शरणार्थियों के संबंध में 1951 की कन्वैंशन पर हस्ताक्षर करने वालों में शामिल नहीं तथा न ही इसने 1962 के प्रोटोकाल पर हस्ताक्षर किए हैं, तो भी यह मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र तथा विश्व की अनेक कन्वैंशनों का हस्ताक्षरकत्र्ता है।’’ लेकिन तथ्य यह है कि जिस प्रकार आतंकी गुटों और पाकिस्तान द्वारा रोहिंग्या बागियों को शह दी जा रही है, वही इस मुद्दे पर भारत के अस्पष्ट स्टैंड का एकमात्र कारण नहीं। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी ताजा म्यांमार यात्रा दौरान भी अपने समकक्ष अधिकारियों और नेताओं के साथ इस मुद्दे को छेडऩे से परहेज किया था। यही कारण है कि यात्रा के अंत पर जारी किए गए संयुक्त बयान में रोहिंग्या की गंभीर समस्या का कोई उल्लेख नहीं था। 

कुछ हद तक अंतर्राष्ट्रीय दबाव में भारत को बाद में यह बयान देना पड़ा कि म्यांमार के रखीन प्रांत में जो कुछ हो रहा है उसके संबंध में ‘‘भारत को गहरी चिंता है।’’ इसके साथ ही इसने यह भी आह्वान किया कि सुरक्षा बलों के साथ-साथ आम जनता की भलाई पर फोकस रखते हुए यह समस्या बहुत ‘संयम एवं परिपक्वतापूर्ण तरीके से’ हल करनी होगी।
विदेश मंत्रालय द्वारा जारी बयान में कहा गया कि अपनी हालिया म्यांमार यात्रा दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जहां सुरक्षा सेनाओं के जान-माल के नुक्सान पर चिंता व्यक्त की, वहीं अन्य निर्दोष लोगों की जान जाने पर भी दुख जतलाया और ‘‘शांति, साम्प्रदायिक सौहार्द, न्याय, आत्म सम्मान तथा लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों के प्रति सम्मान के आधार पर समाधान खोजना होगा।’’ और यही रोहिंग्या लोगों का भारत द्वारा समर्थन न किए जाने के पीछे दूसरा मुख्य कारण है। वैसे तो म्यांमार परम्परागत रूप में भारत के साथ खड़ा होता रहा है लेकिन गत कुछ समय से चीन भी उस पर डोरे डाल रहा है। ऐसे में भारत म्यांमार को नाराज करके चीन के खेमे में धकेलने से हर हालत में परहेज करेगा। 

बौद्ध वर्चस्व वाला म्यांमार पूर्वी एशिया में भारत के सुरक्षा हितों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ-साथ यह बंगलादेश के विरुद्ध भी आस्तीन चढ़ाने से बचना चाहता है क्योंकि भारत के पूर्व में बंगलादेश लंबे समय से इसका घनिष्ठ तथा विश्वसनीय सहयोगी चला आ रहा है। इसके अलावा भारत नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान के समर्थन से विद्रोहियों को एक नया मोर्चा खोलने का मौका मिल जाए और इस बहाने वे इस क्षेत्र के साथ-साथ समुद्री मार्गों पर भी वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास कर सकते हैं। इसीलिए भारत म्यांमार और बंगलादेश के बीच संतुलन बनाए रखने के मामले में स्वयं को बहुत नाजुक स्थिति में पा रहा है। यह मुद्दा भारत की कूटनयिक क्षमताओं तथा संकट से निपटने की योग्यताओं की अग्नि परीक्षा सिद्ध होगा। इसलिए इस मुद्दे को हल करने के लिए कूटनीतिक कौशल के साथ-साथ उदारता की भी जरूरत होगी। 

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