‘नोटबंदी’ से हल होने वाली नहीं आतंकवाद और जाली करंसी की समस्या

Edited By ,Updated: 19 Feb, 2017 11:03 PM

notbandi  not going to solve the problem of terrorism and fake currency

शुरू किए जाने के कुछ ही सप्ताह बाद 2000 के नोटों के जाली प्रारूप भारी संख्या में पकड़े जा रहे हैं। इस प्रकार के जाली नोट सबसे पहले गुजरात में पकड़े गए थे...

शुरू किए जाने के कुछ ही सप्ताह बाद 2000 के नोटों के जाली प्रारूप भारी संख्या में पकड़े जा रहे हैं। इस प्रकार के जाली नोट सबसे पहले गुजरात में पकड़े गए थे लेकिन अब तो देश भर से 2000 के जाली नोट पकड़े जाने के समाचार मिल रहे हैं। हमें बताया गया था कि नोटबंदी का एक कारण था जाली करंसी पर अंकुश लगाना। लेकिन यह कदम तो बिल्कुल ही झूठ साबित हुआ है।

प्रधानमंत्री द्वारा जाली करंसी का मुद्दा ङ्क्षहसा के साथ जोड़ा गया था। उन्होंने कहा था कि उग्रवाद और आतंकवाद को रोकने के लिए नोटबंदी लागू की जा रही है। यह एक ऐसा वायदा था जो प्रधानमंत्री द्वारा नहीं किया जाना चाहिए था क्योंकि यह भारत में उग्रवाद के कारणों की बहुत ही सतही समझ का परिचायक है। नोटबंदी सर्दी के उन महीनों में लागू की गई जब कश्मीर में सेना के विरुद्ध आतंकी ङ्क्षहसा न्यूनतम स्तर पर होती है। जैसे ही बर्फ पिघलनी शुरू हुई है वादी में ङ्क्षहसा फिर से लौट आई है, जैसे कि अतीत में हर वर्ष होता रहा है। इस प्रकार प्रधानमंत्री के दावे झूठ सिद्ध हो रहे हैं।

हाल ही के दिनों में कश्मीर में एक मेजर सहित 4 सैनिक शहीद हुए हैं। यानी कि नोटबंदी के कारण उग्रवाद के स्तर पर कोई गिरावट नहीं आई है। सेना को भी इस घटनाक्रम से काफी हैरानी हुई है क्योंकि इसे बताया गया था कि नोटबंदी से उनके विरुद्ध होने वाली ङ्क्षहसा पर अंकुश लगेगा। सेना प्रमुख ने यह कहते हुए ‘स्थानीय जनता’ के विरुद्ध एक गुस्से भरा बयान दिया कि यह सेना को अपना काम करने से रोकती है और ‘‘कई मौकों पर आतंकियों को बच निकलने में सहायता देती है।’’

इससे भी अधिक ङ्क्षचता की बात उनका यह कहना है कि सेना उन भारतीयों को ‘‘राष्ट्र विरोधी’’ मानेगी जो पाकिस्तान एवं इस्लामिक स्टेट (आई.एस.) के झंडे फहराएंगे और  हमारे सैनिक ऐसे लोगों को ‘दबोच कर’ उनके विरुद्ध ‘‘कड़ी कार्रवाई’’ करेंगे। यदि सेना प्रमुख या सैनिकों को ऐसा लगता है कि उन्होंने जो देखा है वह आपराधिक कृत्य है तो उन्हें उसकी रिपोॄटग जम्मू-कश्मीर पुलिस को करनी चाहिए। नारे लगाने वालों और पाकिस्तानी झंडे फहराने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने का सेना को संवैधानिक अधिकार नहीं है।

सेना प्रमुख जनरल रावत ने तो ऐसी बातों का भी खुलासा किया है जो शायद अधिकतर भारतीय जानते ही नहीं होंगे और यह उनका वह बयान था कि कश्मीर की जनता में सेना के विरुद्ध दुश्मनी की भावना है। उन्होंने कहा ‘‘जब हम उनके (यानी आतंकियों) विरुद्ध कार्रवाई कर रहे होते हैं तो हमें पता चलता है कि स्थानीय जनता सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों का समर्थन नहीं करती।’’ यह केन्द्र सरकार के लिए खतरे की घंटी समझा जाना चाहिए क्योंकि प्रदेश सरकार में भी उसकी भागीदारी है। नियंत्रण रेखा के पार से कश्मीर में उत्पात मचाने वाले तत्वों को भेजा जाना एक बात है जबकि यह मानना बिल्कुल अलग बात है कि पूरी की पूरी आबादी आपके विरुद्ध है।

इसे ठीक समझें या गलत, जनरल रावत ने स्वीकारोक्ति यही की है। उन्होंने कहा, ‘‘हालांकि हमारा लक्ष्य यही है कि सैन्य कार्रवाइयों में स्थानीय जनता के प्रति दोस्ती भरा रवैया  अपनाया जाए लेकिन जिस प्रकार से स्थानीय जनता सेना को अपनी कार्रवाइयां करने से रोक रही है और कई मौकों पर आतंकियों को बच निकलने में सहायता प्रदान कर रही है... ये कुछ कारक हैं जो सुरक्षा बलों में बढ़ती शहादतों के लिए जिम्मेदार हैं।’’

भाजपा और कांग्रेस अब जनरल रावत के इस बयान पर एक-दूसरे से लड़ रही हैं परन्तु इस मुद्दे पर दोनों के दृष्टिकोण में कोई मूलभूत अंतर नहीं है, जैसा कि हम गत 30 वर्षों से देख रहे हैं। हाल ही में कश्मीर में जो घटनाएं हुई हैं उनका चरित्र भी अतीत की तुलना में कोई अलग प्रकार का नहीं है क्योंकि न तो दिल्ली में बैठी सरकार के रवैये में कोई बदलाव आ रहा है और न ही शेष भारत की जनता के रवैये में। हाल ही में एक कश्मीरी विद्यार्थी को आतंकवाद के आरोपों से तब बरी कर दिया गया जब यह प्रमाणित हो गया कि जिस दिन दिल्ली में बम विस्फोट हुआ था उस दिन वह श्रीनगर में अपने कालेज में उपस्थित था।

कालेज के रजिस्टर में उसकी हाजिरी लगी हुई थी। इसलिए उस पर तो आरोप लगना ही नहीं चाहिए था लेेकिन उसका मानना है कि उसे बलि का बकरा इसलिए बनाया गया कि वह कश्मीरी है। सितम की बात तो यह है कि उस पर यह आरोप 2005 में लगा था जब दिल्ली में मनमोहन सिंह के अंतर्गत यू.पी.ए. की सरकार का शासन था, न कि नरेन्द्र मोदी के अंतर्गत राजग का।

भारत अपनी जनता पर राष्ट्रवाद को जितना प्रचंड तरीके से लादने का प्रयास करता है, कश्मीरी उतने ही दूर होते जाते हैं। हमें यह समझने की जरूरत है कि इस राज्य की बेचैनी को नोटबंदी से हल नहीं किया  जा सकता। इसके लिए बहुत गहरे कारण जिम्मेदार हैं। दुर्भाग्य की बात है कि ऐसा आभास नहीं हो रहा कि नए सेना प्रमुख इन गहरे कारणों को समझते हैं। उन्होंने तो अपने बयान में अपने ही नागरिकों पर लक्ष्य साधते हुए यह कहा : ‘‘हमारी मंशा इन युवाओं  की जान लेना नहीं है। हम तो उन्हें मुख्य धारा में  लाने का इरादा रखते हैं लेकिन यदि  वे  मौजूदा ढंग से व्यवहार करना चाहते हैं तो हम उनके विरुद्ध कड़े कदम उठाएंगे।’’

भारत कश्मीरियों के विरुद्ध ऐसे कौन से कड़े कदम उठा सकता है जो अब तक न उठाए गए हों? भीड़ को तितर-बितर करने के लिए तो वहां पहले ही पैलेट गन प्रयुक्त की जा रही है जिससे सैंकड़ों लोग दृष्टि खो बैठे हैं। हम बिना सोचे-समझे उन पर अपराधों का आरोप लगा रहे हैं और हम पूरी आबादी को अपराधी होने की धमकी दे रहे हैं। नोटबंदी की जिस थोड़ी-बहुत सफलता के हम दावे कर रहे थे वे भी उग्रवाद के मामले में औंधे मुंह गिर गए। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि उग्रवाद नोटबंदी से हल होने वाली समस्या नहीं और नए समाधानों की तलाश करनी चाहिए जो कश्मीर की समस्या को करंसी की समस्या न समझें बल्कि इसके आंतरिक और बाहरी आयामों की गहराई में जाए। 

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