‘नोटबंदी’ पर खुद को एकजुट नहीं कर सका विपक्ष

Edited By ,Updated: 30 Dec, 2016 12:30 AM

notbandi opposition could not unite themselves

मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी की कार्रवाई पर विपक्ष खुद को एकजुट करने में असफल रहा है। यहां तक कि 50 दिन बाद भी लोगों को नकदी की कमी से...

मोदी सरकार द्वारा की गई नोटबंदी की कार्रवाई पर विपक्ष खुद को एकजुट करने में असफल रहा है। यहां तक कि 50 दिन बाद भी लोगों को नकदी की कमी से जूझना पड़ रहा है और वे लगातार बैंकों के सामने कतारों में खड़े हो रहे हैं।

सामान्य लोगों द्वारा मुश्किलों का सामना करने के बावजूद, जिन्होंने 8 नवम्बर की रात को की गई नोटबंदी की घोषणा का स्वागत किया था, जनता इस बात को लेकर दुविधा में है कि उसे कब तक नकदी की तंगी का सामना करना पड़ेगा।

ऐसी रिपोर्टस हैं कि अर्थव्यवस्था गिरावट की ओर अग्रसर है और नकदी पर प्रतिबंध की कीमत इसके बताए जा रहे लाभों पर कहीं अधिक भारी पड़ सकती है। मोदी सरकार पर नोटबंदी के निर्णय को तर्कसंगत साबित करने के लिए काफी दबाव है।

ऐसा इसलिए क्योंकि रिजर्व बैंक के नकदी उपलब्ध करवाने के प्रयासों को नकदी की धीमी गति से हो रही आपूॢत के कारण चोट पहुंच रही है। सरकार के खिलाफ काफी बारूद होने के बावजूद विपक्ष इस मुद्दे को भुनाने में असफल रहा है। दूसरे, जहां लगभग सभी विपक्षी दल विमुद्रीकरण की आलोचना कर रहे हैं, वहीं वे एक छत के नीचे इकट्ठे नहीं हो पाए।

विपक्ष ने शीतकालीन सत्र के पहले कुछ दिन संयुक्त रूप से संसद की कार्रवाई को अवरुद्ध किया मगर धीरे-धीरे उसमें दरारें उभरनी शुरू हो गईं। जहां कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, वामदल, बसपा, राजद तथा आम आदमी पार्टी (आप) ने नोटबंदी का विरोध किया, वहीं जनता दल यूनाइटिड (जद यू) तथा बीजद सहित कुछ दलों ने सतर्कता बरतते हुए विमुद्रीकरण का समर्थन किया, मगर सरकार की इससे निपटने की तैयारी न होने की आलोचना की।
 

संसद में कार्रवाई बाधित करने में कांग्रेस तथा तृणमूल कांग्रेस सबसे आगे थीं। शरद पवार, नीतीश कुमार तथा नवीन पटनायक जैसे कुछ परिपक्व तथा जमीनी स्तर के नेताओं ने इसे मोदी के खेल के तौर पर देखा। ऐसा ही ममता बनर्जी, अरविन्द केजरीवाल तथा करुणानिधि ने भी किया। उन्हें एहसास था कि यदि गरीबों को लुभाने की योजना सफल हो जाती है तो मोदी का 2019 अथवा उसके बाद भी सत्ता में लौटना तय है।

कांग्रेस चाहती है कि इसके उपाध्यक्ष राहुल गांधी एक नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाएं, जो प्रधानमंत्री मोदी के सामने खड़े हो सकें, मगर विपक्ष को संगठित करने के उनके प्रयास असफल हो गए। कांग्रेस ने इस लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए मंगलवार को एक बैठक बुलाई थी, मगर विपक्ष की प्रतिक्रिया कुछ ठंडी ही रही।

बैठक में तृणमूल कांग्रेस, राजद, जद (एस), झारखंड मुक्ति मोर्चा, ए.आई.यू.डी.एफ. तथा द्रमुक शामिल हुए। राकांपा, जद (यू), भाकपा, माकपा, बसपा तथा सपा चाय पार्टी से अनुपस्थित रहे। बैठक में राहुल गांधी के अतिरिक्त पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एक प्रमुख राजनीतिक हस्ती थीं। कम उपस्थिति को अधिक महत्व न देते हुए ममता बनर्जी ने दावा किया कि विपक्षी दल एक साथ हैं, बेशक वे बैठक में शामिल नहीं हुए।

उन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों तथा विमुद्रीकरण को लेकर एक सांझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार किया  है। संयुक्त प्रैस कांफ्रैंस में उन्होंने दहाड़ लगाई, ‘‘आप द्वारा मांगी गई 50 दिनों की समय सीमा में 3 दिन बाकी बचे हैं, जिनमें आपने लोगों से कष्ट सहने को कहा था। मैं पूछती हूं, प्रधानमंत्री जी, यदि इसका समाधान 50 दिन में नहीं हुआ, जैसा आपने वायदा किया था, क्या आप देश के प्रधानमंत्री के तौर पर इस्तीफा देंगे? कोई ऐसा जादू नहीं है, जिससे आप दर्द दूर कर दें।’’

विपक्ष का नेतृत्व करने का सारा श्रेय कांग्रेस को जाता है, मगर फिर भी वह विपक्षी एकता कायम करने में असफल क्यों रही? निश्चित तौर पर इसका कारण अन्य दलों तक पहुंच बनाने के लिए प्रबंधन कौशल का अभाव तथा उसका हेकड़ीपूर्ण रवैया रहा। यह एहसास शुरू में भी था, जब कांग्रेस ने राष्ट्रपति को ज्ञापन सौंपने के लिए राष्ट्रपति भवन तक एक मार्च का आयोजन किया और वे उसमें शामिल नहीं हुए।

विपक्षी एकता को और चोट तब पहुंची जब राहुल गांधी इस माह के शुरू में एक शिष्टमंडल लेकर प्रधानमंत्री के पास पहुंचे, उन्हें सूचित किए बिना। संक्षेप में, उन्हें दिख रहा था कि कांग्रेस खुद को अन्य पार्टियों से ऊपर दिखाकर तथा यह भी दिखाकर  कि राहुल विपक्ष का नेतृत्व कर रहे हैं, विपक्षी एकता को तोड़ रही है।

दरअसल विपक्ष में प्रधानमंत्री पद के बहुत से उम्मीदवार हैं, जिनमें नीतीश कुमार (जद यू), ममता बनर्जी (तृणमूल कांग्रेस), मायावती (बसपा) तथा मुलायम सिंह (सपा) जैसे कुछ नाम शामिल हैं।

दूसरे, ये पाॢटयां महसूस करती हैं कि उनसे कोई व्यापक सलाह-मशविरा नहीं किया जाता क्योंकि कांग्रेस अपने तौर पर सारे निर्णय लेती है। जद (यू) नेता के.सी. त्यागी ने यह भी कहा है  कि कोई न्यूनतम सांझा कार्यक्रम तैयार नहीं किया गया। वामदल कांग्रेस के आर्थिक  एजैंडे पर प्रश्न उठा रहे हैं।

तीसरे, जद (यू) तथा बीजद जैसे  कुछ दल इसके प्रभाव का आकलन कर रहे हैं, क्योंकि वे महसूस करते हैं कि मोदी की इस कार्रवाई को अभी भी समर्थन मिल रहा है क्योंकि गरीब महसूस करते हैं कि प्रधानमंत्री अमीरों तथा भ्रष्ट लोगों पर कार्रवाई कर रहे हैं।

चौथे, वाम तथा तृणमूल जैसे दलों को एक ही मंच पर लाने के लिए अत्यंत युक्ति तथा सटीकता की जरूरत है क्योंकि अपनी स्थानीय राजनीति के कारण वे एक ही पक्ष में दिखाई देना नहीं चाहते। इसमें कुछ निहित विरोधाभास हैं। सपा तथा बसपा के लिए भी ठीक ऐसा ही है, जो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं अथवा  द्रमुक और अन्नाद्रमुक जो दशकों से एक-दूसरे की विरोधी हैं।

कांग्रेस के पास उन सबको एक छत के नीचे लाने के लिए एक ऊंचे कद के नेता का अभाव है क्योंकि सोनिया गांधी पृष्ठभूमि में चली गई हैं और अधिकांश क्षेत्रीय क्षत्रप राहुल गांधी को एक जूनियर के तौर पर देखते हैं। इस कहानी से यह सीख मिलती है कि बेशक हमारे पास पर्याप्त मसाले हों, बढिय़ा व्यंजन बनाने के लिए एक अच्छे रसोइए की जरूरत होती है। इस वक्त विपक्ष को एकजुट करने के लिए एक मजबूत नेता की कमी है।     

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