पी.एन.बी. घोटाले से सरकारी बैंकिंग क्षेत्र पर फिर उठे सवाल

Edited By Punjab Kesari,Updated: 20 Feb, 2018 03:43 AM

pnb scam again questions on government banking sector

पंजाब नैशनल बैंक-नीरव मोदी घोटाले ने एक बार फिर भारत में सरकारी बैंकिंग क्षेत्र पर सवाल उठा दिए हैं। बैंकिंग कारोबार को सरकारी कामकाज के साथ गडमड करना कई कठिनाइयों से भरा हुआ है। बैंकों की सरकारी मालिकी के चलते जोखिम का प्रबंधन करने की कुंजीवत...

पंजाब नैशनल बैंक-नीरव मोदी घोटाले ने एक बार फिर भारत में सरकारी बैंकिंग क्षेत्र पर सवाल उठा दिए हैं। बैंकिंग कारोबार को सरकारी कामकाज के साथ गडमड करना कई कठिनाइयों से भरा हुआ है। 

बैंकों की सरकारी मालिकी के चलते जोखिम का प्रबंधन करने की कुंजीवत भूमिका अदा करने में विफल रहने वाले बैंक प्रबंधकों और बोर्डों को दंडित करने की आर.बी.आई. की शक्तियां प्रभावी रूप में कम हो जाती हैं। भर्ती और वेतन के नियमों, राजनीतिक दबावों और जवाबदारी की कमी तथा सरकारी बैंकों के मामले में सत्ता तंत्र की ओर से स्वत: मिलने वाली गारंटी से बहुत गलत संदेश जाता है। 

नीरव मोदी प्रकरण में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला बेशक चल रहा है लेकिन इसके बीच ही भारत को बैंकों के स्वामित्व तथा इससे पैदा होने वाली दुश्वारियों के मुद्दे का समाधान तलाशना होगा। सार्वजनिक संस्थानों की सरकारी मालिकी का तात्पर्य यह माना जाता है कि अपने आप ही सरकारी गारंटी मिल जाती है। उदाहरण के तौर पर हाल ही में प्रस्तुत किए गए एफ.आर.डी.आई. विधेयक के मामले में जमाकत्र्ताओं का गुस्सा ही मुख्य तौर पर इस बात को लेकर था कि हर प्रकार के जमा खातों पर सरकारी बैंकों में भी गारंटी नहीं होती है। 

अधिकतर खाताधारक इस तथ्य से अवगत नहीं कि उनके जमा खातों पर केवल एक लाख रुपए तक ही बीमा सुविधा होती है। जैसे ही खाताधारकों को यह पता चला कि बैंक विफल होने पर उन्हें अपने जमा पैसे पर केवल एक लाख तक की क्षतिपूर्ति मिलेगी, चाहे बैंक सरकारी क्षेत्र का ही क्यों न हो, उनमें बहुत अधिक बेचैनी फैल गई। कोई बैंक खुद धोखाधड़ी में शामिल है (जैसा कि  कथित रूप में पी.एन.बी. के मामले में हुआ है) या इसमें कारोबारी ऋण देने के मामले में दूरदृष्टि से काम नहीं लिया, खाताधारक हर हालत में बैंकों की प्रतिस्पर्धात्मकता और बैंक प्रबंधन की उनके पैसे को सुरक्षित रखने की काबिलियत की बजाय सरकारी स्वामित्व को ही निर्णायक मानते हैं। 

चूंकि देश में सुरक्षित वित्तीय बचत के विकल्प बहुत सीमित हैं इसलिए खाताधारकों का बैंकों के सरकारी स्वामित्व का पक्षधर होना प्रत्याशित ही है। एक ओर तो भारत सरकार बैंकों को संवैधानिक तरलता अनुपात (एस.एल.आर.) के माध्यम से सरकारी हुंडियों का कारोबार करने के लिए मजबूर करती है और दूसरी ओर परिवारों को पी.पी.एफ. एवं राष्ट्रीय बचत स्कीम जैसी छोटी बचत योजनाओं के लिए आयकर सीमा से आगे बढ़कर कर्ज देने की अनुमति नहीं दे रही, न ही परिवारों को स्टॉक मार्कीट के माध्यम से जोखिम मुक्त बांड (हुंडियां) खरीदने की अनुमति है। जो परिवार कम से कम जोखिम उठाना चाहते हैं वे अपनी वित्तीय बचतों के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली में ही विकल्प तलाश करते हैं। इसी कारण बैंकों का सरकारी स्वामित्व बनाए रखने के लिए सरकार पर दबाव बनता रहता है। 

पी.एन.बी.-नीरव मोदी धोखाधड़ी बैंकों की लेखा प्रणालियों तथा जोखिम प्रबंधन कामकाज की विफलता को रेखांकित करती है। यह प्रकरण चाहे धोखाधड़ी हो या कार्यकुशलता की कमी, दोनों ही हालतों में सवाल पैदा होता है कि बैंक प्रबंधन एवं बैंक के बोर्ड की जवाबदारी कहां गई? यदि पी.एन.बी. निजी मालिकी वाला बैंक होता तो भला इतने बड़े घोटाले के मद्देनजर केवल 2 अधिकारी ही सीधे तौर पर इसमें संलिप्त पाए जाते? ऐसी रिपोर्टें प्रकाशित हुई हैं कि आर.बी.आई. ने पी.एन.बी. को कहा है कि वह उन सभी बैंकों को अदायगी करे जिन्होंने इसकी गारंटी पर पैसा उधार दिया था। यदि पी.एन.बी. अदायगी करता है और इसके फलस्वरूप नुक्सान उठाता है तो क्या करदाताओं का पैसा ही इस घाटे की क्षतिपूर्ति और बैंकों के पुन: पूंजीकरण के लिए प्रयुक्त नहीं होगा? 

अतीत में कितनी बार करदाताओं ने पी.एन.बी. और सरकारी क्षेत्र के अन्य बैंकों को डूबने से बचाने के लिए पैसा दिया है? ‘केन्द्र सरकार के सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पुन: पूंजीकरण का परफार्मैंस ऑडिट’ नाम से ‘कैग’ की 2017 की रिपोर्ट नं. 28 में कहा गया है कि बैंकों के बहुमत हिस्सेदार के रूप में भारत सरकार ने 2008-2009 से लेकर 2016-2017 के बीच इन बैंकों की कुंजीवत जरूरतें पूरी करने के लिए इनमें 1,18,724 करोड़ रुपया झोंका है। सरकार ने घोषणा की है कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों में वह 2.11 लाख रुपया और भी झोंकेगी। इसी बीच बैंकिंग क्षेत्र में बट्टे खाते वाले ऋणों की संख्या कुल ऋण खातों के 10 प्रतिशत से भी ऊपर चली गई है। आर.बी.आई. की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार जहां सरकारी और प्राइवेट दोनों ही क्षेत्रों के बैंकों में गैर-निष्पादित खातों (एन.पी.ए.) की संख्या बढ़ रही है वहीं पब्लिक सैक्टर बैंकों में मार्च, 2018 तक इनका अनुपात 14.6 प्रतिशत तक पहुंच सकता है। 

इस स्थिति में से कैसे उबरा जाए? इसका उत्तर शायद पब्लिक सैक्टर बैंकों द्वारा प्रस्तुत अति सीधे से समाधान में से नहीं तलाशा जा सकता। बैंकों द्वारा सुझाया गया समाधान भी जरूरी है लेकिन अन्य सुधार भी आवश्यक हैं। सबसे पहले नम्बर पर तो बड़े और मझोले निवेशकों की बढ़ती संख्या  का संज्ञान लेना होगा जिन्हें सरकार को उधार देने वाले तंत्रों तक अधिक पहुंच हासिल होनी चाहिए। इसका अर्थ जरूरी नहीं यही हो कि अपने निवेश पर उनकी कमाई घट जाएगी। यदि इस तथ्य को मद्देनजर रखा जाए कि वर्तमान में सरकार के 10 वर्षीय बांड 7 प्रतिशत या इससे अधिक लाभ देते हैं जो कि अधिकतर बैंकों द्वारा सावधि जमाखातों पर दिए जा रहे ब्याज से अधिक है तो कुछ लोग सीधे स्टॉक मार्कीट के माध्यम से सरकारी बांड्स में निवेश करने को तरजीह देंगे। लेकिन ऐसा करने के लिए हुंडी बाजार में सुधार की जरूरत है। दूसरे नम्बर पर लघु बचत स्कीमों में सुधार होना चाहिए। कुछ लघु बचत स्कीमों को सीधा ऋण लेने की प्रक्रिया को टैक्स रिबेट सीमाओं से काफी आगे तक विस्तार दिया जा सकता है। 

ब्याज दरों को सरकारी हुंडियों पर होने वाली कमाई से जोड़ा जा सकता है। तीसरे नम्बर पर प्राइवेट बैंकों की चिंताओं का निवारण करने के लिए डिपॉजिट इंश्योरैंस की अधिकतम सीमा को ऊंचा उठाया जाना चाहिए। यदि इसे 5 लाख रुपए तक कर दिया जाए तो 98 प्रतिशत जमा खातों को बीमा सुरक्षा उपलब्ध हो जाएगी। चौथे नम्बर पर यदि सरकार यह फैसला करती है कि पब्लिक सैक्टर बैंकों को डिपॉजिट इंश्योरैंस की अधिकतम सीमा से ऊपर भी जोखिम रहित जमा सुविधा देनी चाहिए तो इन्हें केवल सरकारी हुंडियों में ही निवेश करने की अनुमति होनी चाहिए। 

ऋण देने, निर्णय लेने, जोखिम प्रबंधन प्रणालियों को लागू करने, सक्षम स्टाफ को काम पर रखने, बट्टे खाते के ऋणों के लिए प्रावधान करने, प्रबंधन विफलता तथा दंड के मामले में जवाबदारी तंत्र सृजित करने का काम प्राइवेट बैंकों पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। आज जब सरकारी क्षेत्र के बैंक विफल होते हैं तो उनकी सभी गतिविधियां सुचारू रूप से चलाने के लिए करदाताओं की कमाई दाव पर लगाई जाती है। यदि पब्लिक सैक्टर बैंकों को कुछ सीमित क्षेत्रों में भी काम करने या फिर केवल हुंडी बाजार तक ही सीमित कर दिया जाए तो करदाताओं की कमाई पर बोझ पडऩा बंद हो जाएगा। 1991 के सुधारों ने भारत में कारोबार के काम करने का तरीका ही बदल दिया था।-इला पटनायक

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