देश में महिलाओं की राजनीतिक हिस्सेदारी आज भी नाममात्र

Edited By Punjab Kesari,Updated: 15 Feb, 2018 02:03 AM

political share of women in the country is still nominal

‘लैंगिक समानता एवं समस्त महिलाओं एवं लड़कियों के सशक्तिकरण’ और अंततोगत्वा सर्वसमावेशी, लोकतांत्रिक एवं शांतिपूर्ण संसार का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र द्वारा 17 सतत् विकास लक्ष्यों (एस.डी.जी.) में से पांचवें नम्बर पर आता है। ‘यू.एन. वूमैन’ के अनुसार...

‘लैंगिक समानता एवं समस्त महिलाओं एवं लड़कियों के सशक्तिकरण’ और अंततोगत्वा सर्वसमावेशी, लोकतांत्रिक एवं शांतिपूर्ण संसार का उद्देश्य संयुक्त राष्ट्र द्वारा 17 सतत् विकास लक्ष्यों (एस.डी.जी.) में से पांचवें नम्बर पर आता है। 

‘यू.एन. वूमैन’ के अनुसार 2030 तक एस.डी.जी. को महिलाओं के लिए वास्तविकता बनाने हेतु यह जरूरी है कि 5 मुख्य क्षेत्रों पर प्रयास तेज किए जाएं-यानी कि महिलाओं का नेतृत्व तथा भागीदारी बढ़ाना, महिलाओं के विरुद्ध हिंसा समाप्त करना, अमन और सुरक्षा की सभी प्रक्रियाओं में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना, महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण में बढ़ौतरी करना तथा लैंगिक समानता को राष्ट्रीय विकास योजनाबंदी एवं बजटीयकरण प्रक्रियाओं की धुरी बनाना। 

किसी भी जवाबदार और सच्चे अर्थों में गुंजायमान लोकतंत्र के लिए पुरुषों के बराबर महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी एक आधारभूत शर्त है। फिर भी हाल ही में हुए हिमाचल प्रदेश व गुजरात विधानसभा चुनावों के नतीजों ने दिखा दिया है कि लैंगिक विषमता के कारण महिलाओं का शक्ति अपवंचन भारत में एक राजनीतिक यथार्थ बना हुआ है। ‘बराबरी के अधिकार’ को अन्य मूलभूत अधिकारों की तुलना में भारत का संविधान सबसे अधिक वरीयता देता है लेकिन भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय यानी महिला वर्ग की राजनीतिक प्रतिनिधित्व की दयनीय स्थिति इस अधिकार का मुंह चिढ़ाती है। इसी प्रकार विश्व आॢथक फोरम की ग्लोबल जैंडर गैप रिपोर्ट 2017 में देश को 144 देशों की सूची में से 108वां दर्जा प्रदान करती है। यह दर्जाबंदी आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य एवं राजनीतिक दृष्टि से महिलाओं के प्रतिनिधित्व के आधार पर की गई है। 

वास्तव में ‘राजनीतिक भागीदारी’ का न केवल ‘वोट के अधिकार’ से परस्पर संबंध है बल्कि इसी के समानांतर इसका निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी, राजनीतिक एक्टिविज्म तथा राजनीतिक चेतना इत्यादि से भी गहरा संबंध है। घर से लेकर नीति निर्धारण के शीर्ष पदों तक महिलाओं को लगातार निर्णय प्रक्रिया से बाधित किया जाता है। भारतीय नारियों ने 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया था लेकिन स्वतंत्रता के बाद ऐतिहासिक दृष्टि से महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी नाममात्र की ही रह गई है। संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व हमें यह तस्वीर दिखाता है कि राजनीतिक निर्णय प्रक्रिया का अंग बनने के मामले में महिलाओं को पुरुषों के बराबर सुविधाएं उपलब्ध करवाने की दृष्टि से देश कितना पीछे रह गया है। वर्तमान में राज्यसभा के कुल 244 सांसदों में से केवल 31 महिलाएं हैं यानी कि कुल 12.7 प्रतिशत। 

दूसरी ओर लोकसभा की कुल 543 सदस्य संख्या में से भी केवल 66 महिलाएं हैं जोकि मात्र 12.2 प्रतिशत बनती है। भारत के संविधान का 73वां व 74वां संशोधन 1993 में किया गया था जिसमें सरकारी निर्णय प्रक्रिया में महिलाओं को शामिल करने की दृष्टि से पंचायती राज संस्थाओं में उनके लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई थीं लेकिन इसके बावजूद आज भी महिलाएं स्वतंत्र निर्णय लेने को सशक्त नहीं हैं। यहां तक कि 1996 में यह कानून लागू होने के 22 वर्ष बाद भी अभी तक लोकसभा तथा विधानसभाओं में इस कानून को जानबूझ कर लटकाए रखा गया है।

विडंबना की बात यह है कि हिमालय क्षेत्र के पर्वतीय राज्यों में जगह-जगह पर देवियों के मंदिर मौजूद हैं, इसके बावजूद हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी हिस्सेदारी बिल्कुल भी पर्याप्त नहीं थी। चुनाव में उतरे 337 उम्मीदवारों में से केवल 19 महिला उम्मीदवार थीं यानी कि मात्र 5.6 प्रतिशत। इनमें से केवल 4 महिलाएं ही चुनाव में जीत पाईं,जबकि हिमाचल प्रदेश के मंत्रिमंडल में एक महिला को ही स्थान मिला है। चुनाव लडऩे वाली मुख्य पार्टियां कांग्रेस और भाजपा ने राज्य की सभी 68 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। 

भाजपा ने 2017 में 3 महिला उम्मीदवारों सहित 44 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस ने एक महिला उम्मीदवार सहित 21 सीटों पर जीत हासिल की। सबसे अधिक 6 महिला उम्मीदवार भाजपा द्वारा उतारी गई थीं, कांग्रेस ने 3, बसपा ने 3, स्वाभिमान पार्टी तथा राष्ट्रीय आजाद मंच ने 2-2 महिला उम्मीदवार उतारी थीं। केवल तीन महिलाओं ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडऩे की हिम्मत दिखाई थी। ये आंकड़े सिद्ध करते हैं कि इस पर्वतीय राज्य में पंचायती राज संस्थानों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण  होने  के बावजूद पुरुषवादी राजनीति कितनी गहरी पैठ बनाए हुए है। 

हिमाचल में कुल 50.2 लाख मतदाताओं में से 25.6 लाख पुरुष और 24.5 लाख महिला मतदाता थे, जिनके लिए प्रदेश भर में 7525 मतदान केन्द्र स्थापित किए गए थे। फिर भी अब की बार पुरुषों की तुलना में महिलाओं के मतदान का प्रतिशत ऊंचा था। जहां 71.53 प्रतिशत यानी 18,11,061 पुरुष मतदाताओं ने मतदान किया, वहीं 77.76 प्रतिशत यानी 19,10,582 महिलाओं ने मतदान किया। सकल मतदान का प्रतिशत 71.61 रहा। जब 1967 में पहली बार विधानसभा चुनाव हुए तो विधानसभा के लिए 267 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, जिनमें से दो महिलाएं थीं और दोनों में से कोई भी जीत नहीं पाई थी।

महिलाओं की इतनी कम राजनीतिक भागीदारी केवल हिमाचल अकेले में समस्या नहीं है। अभी-अभी हुए 182 सदस्यीय गुजरात विधानसभा के चुनाव के परिणाम भी कोई बेहतर नहीं हैं। पिछली बार की तुलना में गुजरात चुनाव में महिला विधायकों की संख्या 16 से घट कर 13 रह गई है। ऐसे में 33 प्रतिशत प्रतिनिधित्व की हेंकड़ी बहुत दूर की कौड़ी मालूम पड़ती है। गुजरात विधानसभा में कभी भी महिला विधायकों की संख्या 16 से अधिक नहीं रही। 2017 के विधानसभा चुनाव में कुल 1815 में से 7 प्रतिशत यानी कि 122 महिला उम्मीदवार थीं। महिला उम्मीदवारों की संख्या ही इतनी कम होती है कि मतदाताओं के सामने महिला उम्मीदवार के पक्ष में मतदान का विकल्प कभी-कभार ही उपलब्ध होता है। 

2017 में जिन अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए वहां भी महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी का आंकड़ा बहुत नीचे है। यू.पी., गोवा, मणिपुर, पंजाब एवं उत्तराखंड पांचों में ही 2017 में विधानसभा चुनाव हुए थे और इनमें कुल 2979 उम्मीदवारों में से केवल 234 महिलाएं थीं। इन 234 में से केवल 53 महिलाएं विधायक चुनी गईं। उत्तराखंड की 70 सदस्यीय विधानसभा में मात्र 5 महिला विधायक पहुंच पाईं जबकि उत्तर प्रदेश में 403 में से 38 महिला विधायक हैं। पंजाब में 117 सदस्यीय विधानसभा में केवल 6 महिलाएं पहुंच पाई हैं जबकि मणिपुर और गोवा दोनों में केवल 2-2 महिलाएं ही विधायक बन पाईं।-अर्चना कटोच

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