एक ‘व्यक्तिवादी राष्ट्रपति’ थे प्रणव मुखर्जी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 25 Jul, 2017 11:37 PM

pranab mukherjee was a individualist president

5 वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद पद छोडऩे वाले प्रणव मुखर्जी के दौर का ....

5 वर्ष का अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद पद छोडऩे वाले प्रणव मुखर्जी के दौर का मूल्यांकन करना कठिन नहीं है। वह एक गलत चयन थे और अव्वल तो उन्हें गद्दी की शोभा नहीं बढ़ानी चाहिए थी। 

प्रणव मुखर्जी आपातकाल के दौरान संविधान से बाहर के सत्ताधारी के रूप में देश पर शासन करने वाले संजय गांधी के वफादार सहयोगी थे। यह मौलिक अधिकार तक को स्थगित करनेे वाली उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का तानाशाही का शासन था। प्रणव मुखर्जी उस समय वाणिज्य मंत्री थे, जो संजय गांधी के आदेश पर लाइसैंस देते या रोकते थे। यह शासन ही देश के लिए अपमान था। जब सोनिया गांधी ने उन्हें इस पद पर बिठाया तो उनकी आलोचना की गई। लेकिन यह उनका उस वफादार व्यक्ति के लिए एक उपहार था जिसने रात को भी दिन कहा। मैंने उस अवधि पर नजर डाली, जिसमें वह राष्ट्रपति भवन में थे और यह देखकर डर गया कि यह एक ऐसा शासन था, जिसका नकारात्मक असर हुआ है। 

अगर वह संवेदनशील व्यक्ति होते तो उन्होंने आपातकाल के 17 महीनों में हुए गलत कार्यों के बारे में महसूस किया होता और कुछ नहीं करते तो कम से कम आपातकाल को लेकर खेद प्रकट करते, जब 1 लाख लोगों को बिना सुनवाई के जेल में डाल दिया गया, प्रैस को ‘अनुशासित’ कर दिया गया और प्रशासनिक अधिकारी गलत और सही का भेद भूल गए। सोनिया गांधी ने उन्हें इसलिए नियुक्त किया कि उन्होंने खानदान की सेवा वफादारी के साथ की। जब चुनाव हुए तो मुखर्जी और इंदिरा गांधी को हरा कर लोगों ने ठीक ही किया। आपातकाल में ढील देने के बाद हुए चुनावों में लोगों ने कांग्रेस को पूरी तरह बाहर कर दिया। इस तरह लोगों ने बदला लिया। 

प्रणव मुखर्जी की नियुक्ति राष्ट्र को एक तमाचा है। लोगों ने कभी भी एक तानाशाह का समर्थन नहीं किया है और न ही आजादी के मूल्यों, लोकतंत्र और सैकुलरिज्म का उल्लंघन करने वाले का सम्मान किया है। इस मामले में तो संविधान का भी उल्लंघन किया गया है। मुझे उम्मीद है कि कुछ वर्ष बाद प्रणव मुखर्जी उस अवधि को याद करेंगे, जब वह राष्ट्रपति थे। वह महसूस करेंगे कि वह बेहतर कर सकते थे। उन्हें कम से कम एक उदाहरण बताने में सक्षम होना चाहिए, जिसमें उन्होंने अनेकतावाद और लोकतंत्र को बचाने का काम किया। शायद ही कभी लोगों ने इतना निराश महसूस किया, जितना प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति पद पर रहते समय किया। अगर एक लोकपाल होता तो उसने बताया होता कि प्रणव मुखर्जी कहां विफल हुए। दुख की बात है कि ऐसी कोई संस्था नहीं है। भारतीय जनता पार्टी, जो बिना देरी किए मूल्यों की बात करती है, को एक संस्था का गठन करना चाहिए, जो राजनीति से ऊपर हो और बताए कि क्या गलत है, क्या सही और क्या नैतिक, क्या अनैतिक।

आमतौर पर संस्थाओं के प्रमुखों पर हमले नहीं किए जाते। इसके पीछे यह सोच है कि आलोचना से संस्थाओं, जो लोकतंत्र को टिकाए रखने के लिए आवश्यक है, को नुक्सान पहुंच सकता है। इसलिए राष्ट्रपति को उस समय भी बख्श दिया जाता है जब उन्होंने पद की ओर से खींची गई लक्ष्मण रेखा पार कर ली हो। इस सोच के कारण प्रणव मुखर्जी निंदा से बच गए, जबकि उन्हीं के बराबर के पद पर बैठे व्यक्ति को सूली पर चढ़ा दिया गया लेकिन यह उन्हें कोई लाइसैंस नहीं देता। स्वीडिश रेडियो ने इस खबर को पहले प्रसारित किया। इस खबर का स्रोत सरकार के भीतर से गुप्त जानकारी देने वाला व्यक्ति था जिसका नाम आज तक बताया नहीं गया है। उसने यह जानकारी पत्रकार चित्रा सुब्रमणियम, जो उस समय इंडियन एक्सप्रैस में काम करती थीं, को दी। भेदिया अंदर का था और वह रिश्वत की बात से डर गया, जो पहले 64 करोड़ रुपए की बताई गई लेकिन बाद में 3000 करोड़ रुपए के आसपास निकली। 

मुखर्जी ने बेकार में समझ लिया कि कांग्रेस के बुरे वक्त में समस्या निपटाने वाले की जो महत्वपूर्ण भूमिका उन्होंने निभाई और लगातार खानदान की सेवा की, उसकी वजह से उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। लेकिन अपने बेटे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का सोनिया गांधी का संकल्प मुखर्जी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के रास्ते में आ गया। हालंाकि मुखर्जी हताश थे, उन्होंने जल्द ही मूड को भांप लिया और 2014 का चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा कर दी। सोनिया ने इस स्थिति को खुशी से स्वीकार कर लिया क्योंकि मुखर्जी ने खुद ही राहुल गांधी के लिए रास्ता साफ  कर दिया था। मुखर्जी को जवाब देने के लिए कुछ करना चाहिए था क्योंकि कांग्रेस, जिसका प्रतिनिधित्व उन्होंने किया है, के खिलाफ यह आरोप लम्बित है। कांग्रेस को खुद सच स्वीकार करने का रास्ता निकालना चाहिए और राष्ट्र को बताना चाहिए कि बोफोर्स तथा कॉमनवैल्थ गेम्स जैसे घोटाले क्यों और कैसे हुए?     


 

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