पत्थरबाजों पर सख्ती समय की जरूरत

Edited By ,Updated: 18 Feb, 2017 01:04 AM

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कश्मीर घाटी में पत्थरबाजों के प्रति सरकार के नरम रुख के चलते पिछले कुछ वर्षों में अलगाववाद की विचारधारा से ओत-प्रोत युवाओं का मनोबल बहुत बढ़ा है...

कश्मीर घाटी में पत्थरबाजों के प्रति सरकार के नरम रुख के चलते पिछले कुछ वर्षों में अलगाववाद की विचारधारा से ओत-प्रोत युवाओं का मनोबल बहुत बढ़ा है। विशेषतौर पर हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर आतंकी बुरहान वानी की सुरक्षा बलों के साथ संघर्ष में हुई मौत के बाद घाटी विशेषकर दक्षिण कश्मीर में ‘देशद्रोही’ भीड़ द्वारा सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी का जो नंगा नाच देखने को मिला, उससे स्पष्ट हो गया कि सुरक्षा बलों को भी बचाव की मुद्रा छोड़कर आक्रामक रुख अपनाने की जरूरत है।

विशेषकर तब जबकि हिजबुल मुजाहिदीन और लश्कर-ए-तोएबा जैसे दुर्दांत आतंकी संगठन आपस में मिल गए हैं तथा सोशल मीडिया पर भड़काऊ वीडियो वायरल करके मासूम कश्मीरी युवाओं में भारत के प्रति नफरत और कट्टरवाद का जहर फैलाकर उन्हें ङ्क्षहसा के लिए उकसा रहे हैं।

खुफिया एजैंसियों ने मार्च-अप्रैल में व्यापक ङ्क्षहसा की आशंका जताई है। विभिन्न स्तरों पर मिल रही रिपोर्टों के अनुसार राज्यभर में 300 से अधिक आतंकवादी सक्रिय हैं। इनका ताजा मिशन राज्य में प्रस्तावित पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में बाधा पहुंचाना और आगामी श्री अमरनाथ यात्रा से घाटी का माहौल खराब करना है।

यह ङ्क्षहसा आतंकवादियों और अलगाववादियों के संयुक्त प्रयास का परिणाम होगी। चूंकि अलगाववादी विचारधारा के लोग भी ङ्क्षहसा का सहारा लेकर सुरक्षा बलों पर हमले कर रहे हैं, इस प्रकार घाटी में आतंकवाद और अलगाववाद के बीच की दीवार ढह गई प्रतीत होती है।

सरकार एवं सुरक्षा बलों को भी इससे निपटने के लिए ठोस नीति बनानी चाहिए। नि:संदेह, सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत ने सेना पर पत्थर फैंकने वालों को ‘देशद्रोही’ मानते हुए उन पर कड़ी कार्रवाई की चेतावनी दी है लेकिन पत्थरबाजों के बढ़ते हौसलों को चकनाचूर करने के लिए सिर्फ चेतावनी काफी नहीं है, बल्कि इस पर अमल की भी जरूरत है।

कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी का यह दौर नया नहीं है। वर्ष 2008 और 2010 में भी देश ने घाटी में पत्थरबाजी का भयावह दौर देखा है। देश के किसी भी हिस्से की तरह कश्मीर घाटी में भी सरकार विरोधी प्रदर्शनों को तब तक न्यायोचित ठहराया जा सकता है, जब तक प्रदर्शनकारियों की मांग भारतीय संविधान के दायरे में हो। नि:संदेह, ऐसी मांग को देश के कोने-कोने से व्यापक समर्थन भी मिलेगा लेकिन यदि देश के किसी हिस्से में कुछ मु_ीभर शरारती तत्वों के बहकावे में आई भीड़ द्वारा देश की एकता एवं अखंडता पर चोट करने वाली मांग की जा रही हो तो इसे कतई न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।

इससे भी विस्फोटक स्थिति यह कि आम जनता की आड़ लेकर छिपे राष्ट्रविरोधी तत्व पड़ोसी मुल्क में शस्त्र प्रशिक्षण लेकर आए आतंकवादियों को पनाह देने के अलावा सुरक्षा बलों से मुठभेड़ के दौरान उन्हें फरार होने में भी खुलेआम मदद करते हैं। पाम्पोर और कुलगाम समेत कई मुठभेड़ों में देखने को मिला कि किस प्रकार भीड़ की आड़ लेकर राष्ट्रविरोधी तत्वों ने आतंकवादियों का मुकाबला कर रहे सुरक्षा बलों पर पथराव किया और लश्कर-ए-तोएबा सरीखे खूंखार आतंकी संगठन के डिवीजनल कमांडर अबु दुजाना को भगाने में मदद की।

वर्ष 2008 हो, 2010 हो या 2016, पत्थरबाजी की प्रमुख घटनाओं के बाद कश्मीर में विश्वास बहाली का बहाना लेकर राज्य सरकार के सुरक्षा बलों पर पत्थर फैंकने के आरोपी युवाओं के प्रति सहानुभूति और राज्य में गठबंधन सहयोगी पार्टी की सरकार होने के कारण केंद्र सरकार की पत्थरबाजों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई न होने पर चुप्पी ही दरअसल पत्थरबाजों के हौसलों को बुलंद करने का सबब बनी है। तीनों ही घटनाओं में पत्थरबाजी के ज्यादातर लोगों को छोड़ दिया गया है। किसी को कम उम्र का फायदा मिला तो कोई आम माफी का लाभ लेकर बच निकला।

ताजा ङ्क्षहसा में सैंकड़ों जवानों के घायल होने के बावजूद 4506 किशोरों को कम उम्र का लाभ देकर आरोपमुक्त करने की प्रक्रिया शुरू हुई है। ङ्क्षहसा के दौरान गिरफ्तार 8587 में से 8473 युवाओं को न केवल रिहा कर दिया गया है, बल्कि ङ्क्षहसा के दौरान मारे गए युवाओं के परिवारों को 5-5 लाख रुपए का मुआवजा भी दिया जा रहा है। नि:संदेह, पत्थरबाजों के प्रति सरकार की यह सहानुभूति न केवल ऐसे युवाओं को बढ़ावा दे रही है बल्कि मासूम कश्मीरी युवाओं को भी पत्थरबाजी एवं ङ्क्षहसा के इस दौर से जुडऩे के प्रति उकसाती है।

अलगाववादियों की सुरक्षा पर फूंक डाले अरबों रुपए: हुॢरयत कांफ्रैंस जैसे अलगाववादी संगठनों के जो नेता भारत के खिलाफ आग उगलने और कश्मीरी युवाओं को राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के लिए उकसाने का कोई मौका नहीं छोड़ते, भारत सरकार द्वारा उन्हीं अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा पर अरबों रुपए खर्च कर दिए गए हैं। 

दिलचस्प पहलू यह है कि जो भाजपा पूर्ववर्ती कांग्रेस नीत यू.पी.ए. के शासनकाल में सरकार पर आतंकवादियों एवं अलगाववादियों के प्रति नरमी बरतने का आरोप लगाती थी, बहुमत के साथ सत्ता में आने के लगभग पौने 3 वर्ष बाद तक उस भाजपा ने भी अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा को बरकरार रखा है। मजे की बात है कि अलगाववादी नेता खुद सुरक्षा छोडऩे की बात करते हैं और सरकार द्वारा तर्क दिया जाता है कि यदि अलगाववादी नेताओं की सुरक्षा हटा दी गई तो कोई आतंकवादी ही उन पर हमला कर देगा तथा आरोप भारत सरकार पर मढ़ दिया जाएगा। सवाल उठता है कि जब खुद अलगाववादी नेताओं को अपनी सुरक्षा की ङ्क्षचता नहीं है तो सरकार क्यों इतना फिक्र कर रही है?

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