अपना बौद्धिक व राजनीतिक स्तर ऊंचा उठाना विपक्ष की अपनी जिम्मेदारी

Edited By ,Updated: 25 Mar, 2017 11:19 PM

raising the political level is the responsibility of the opposition

तीन वर्षों में दूसरी बार स्वयंभू सैकुलर व उदारवादी विलाप की मुद्रा में ..

तीन वर्षों में दूसरी बार स्वयंभू सैकुलर व उदारवादी विलाप की मुद्रा में हैं। मई 2014 में मोदी का उत्थान क्या हुआ, ये सैकुलर बेचारे लावारिस होकर रह गए। उन्होंने ऐसा व्यवहार करना शुरू कर दिया जैसे दुनिया का अंत होने वाला हो। उन्होंने बहुत ही भयावह और निराशाजनक तस्वीर प्रस्तुत करनी शुरू कर दी ताकि आपको यह विश्वास दिला सकें कि राष्ट्रीय स्तर पर भी मोदी वही काम करेंगे जो उन्होंने गुजरात में किए थे। बेशक अपने भरसक प्रयासों के बावजूद वे 2002 से दंगों में दूर-दूर तक भी मोदी की संलिप्तता सिद्ध नहीं कर पाए। इन दंगों में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही मारे गए थे लेकिन सैकुलर और उदारवादियों ने मोदी को एक ऐसे शैतान के रूप में प्रस्तुत करना जारी रखा। 

जैसा कि होना ही था, ये लोग गलत सिद्ध हो गए। संघ परिवार के हाशिए पर विचर रहे कुछ गैर प्रभावी तत्वों द्वारा यदा-कदा मचाए जा रहे शोर के अलावा मई 2014 के बाद भी पूर्व कांग्रेस सरकारों की सरपरस्ती पर पलने वाले इन पाखंडी उदारपंथियों द्वारा मोदी के विरुद्ध कोई भी सनसनीखेज मसाला नहीं ढूंढा जा सका। हालांकि अपने ड्राइंग रूम की सुख सुविधाओं में बैठकर प्रधानमंत्री के विरुद्ध नफरत का प्रचार करने वाले इन लोगों को सबसे बड़ा ठेंगा खुद आम लोगों ने दिखाया है। बेशक ये उदारपंथी इस भ्रम में हैं कि राजनीतिक समझदारी पर उन्हीं का एकाधिकार है लेकिन दुनिया भर के लोकतंत्र में निर्णय की अंतिम शक्ति लोगों के पास ही होती है। अपने स्वार्थों में अंधे इन लोगों को सबसे करारा जवाब तो 2014 से लेकर अब तक भाजपा की बार-बार की सफलताओं ने दे ही दिया है। 

अब हम उत्तर प्रदेश और मार्च 2017 की बात करते हैं। अपने लाडले अखिलेश और राहुल की सम्भावित जीत पर इतराने वाले सैकुलर व उदारपंथियों को भाजपा की भारी-भरकम जीत से लगे सदमे से उबरने में तो बहुत देर लगनी ही है लेकिन इससे पहले ही उन्हें एक नया सदमा तब लगा जब मोदी-शाह की जोड़ी ने मुख्यमंत्री पद के लिए योगी आदित्यनाथ का चयन किया। ये लोग तो मन ही मन सोचते होंगे कि कितने दुख की बात है कि यू.पी. का मुख्यमंत्री चुनने के लिए उनसे परामर्श नहीं किया गया। 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गोरखपुर के इस योगी ने अतीत में बहुत सारी भयावह बातें कही हैं। आप उन पर अनेक पापों का आरोप लगा सकते हैं लेकिन पाखंड इन पापों में कहीं भी शामिल नहीं। कई अवसरों पर और खासतौर पर चुनाव के समय वह ऐसी बातें कहते रहे हैं जो उनकी दृष्टि के अनुसार गोरखपुर तथा पूर्वांचल क्षेत्र के गरीब मतदाताओं को अपील करने वाली थीं। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि उनके प्रतिद्वंद्वियों ने अत्यंत भड़काऊ और पोंगापंथी किस्म की बातें करने में कोई कोर-कसर छोड़ी हो लेकिन सदा ही भगवा धारी योगी के अधिक प्रभावी प्रचार से पटखनी खाते रहे हैं। योगी अपने प्रचार में हिंदू मिथिहास के साथ-साथ राजनीतिक व्यावहारिकता की चाशनी बहुत आसानी से तैयार कर लेते हैं। 

क्या आपने यह नोट नहीं किया कि कई वर्षों से मुलायम सिंह यादव खुद को ‘मौलाना मुलायम’ और ‘यादव हृदय सम्राट’ के रूप में प्रस्तुत करके कितना इतराते रहे हैं। ऐसा करके वह किस उदारवाद और सैकुलरवाद को बढ़ावा देते थे? कुछ भी हो, अब समय आ गया है कि सैकुलरवादी यह समझ लें कि विचारधारा के प्रति दीवानगी का दौर  पीछे छूट चुका है और स्वतंत्र राजनीतिक आदान-प्रदान अब एक प्रकार से जीवन का नियम बन गया है। इस बात को बहुत अधिक देर नहीं हुई जब कट्टर शिवसैनिक संजय निरुपम कांग्रेस में शामिल हुए थे। उनसे कुछ ही समय पूर्व शंकर सिंह वाघेला कांग्रेस में शामिल हुए थे जिनका गुजरात में जनसंघ भाजपा को खड़ा करने में महत्वपूर्ण योगदान था। 

इन दोनों ही महानुभावों को कांग्रेस पार्टी में बहुत तत्परता से गरिमापूर्ण स्थान दिया गया था और सैकुलर बिरादरी ने उन्हें देखते ही देखते सिर आंखों पर बिठा लिया था। लेकिन हाल ही में जब कांग्रेस के एक अन्य दिग्गज एस.एम. कृष्णा ने राजनीतिक मुख्यधारा की सबसे सशक्त पार्टी का दामन थामा तो सैकुलरवादियों की नजर में यह जघन्य अपराध बन गया। स्पष्ट तौर पर यह इस बात का संकेत है कि मोदी के प्रति नफरत में आकंठ डूबे कथित सैकुलरवादियों की विवेक शक्ति जवाब दे चुकी है। 

यू.पी. के चुनावों के बाद मोदी के निदकों के लिए रोने-धोने का एक अन्य बड़ा कारण यह है कि उत्तर प्रदेश में प्रभावी विपक्ष नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई। आखिर विपक्ष उपलब्ध करवाना तो सत्तारूढ़ पार्टी का काम नहीं होता लेकिन यदि राहुल कोई जलवा दिखा ही नहीं पा रहे और उनके अन्य साथी दल अपने-अपने प्राइवेट एजैंडे को आगे बढ़ाने में व्यस्त हैं तो सैकुलरवादी किस मुंह से दूसरों को दोष दे सकते हैं? 

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि विपक्ष के बिना सत्तारूढ़ दल के अहंकारी होने और इसके हाथों अनेक गलतियां होने की सम्भावना बढ़ जाती है। विपक्ष ही लोकतंत्र रूपी गाड़ी का दूसरा और अनिवार्य पहिया है और इसके बिना विफलताओं की सम्भावना बढ़ जाती है लेकिन अपने बौद्धिक एवं राजनीतिक स्तर को ऊंचा उठाना तो आखिर विपक्ष की अपनी ही जिम्मेदारी है।  

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