मुकद्दमों का शीघ्र निपटारा अभी भी ‘दूर का सपना’

Edited By ,Updated: 22 May, 2017 11:43 PM

soon settlement of lawsuits is still distant dream

शीघ्र निर्णय के अनेकों प्रवचन हमारे देश की अदालतों के भिन्न-भिन्न....

शीघ्र निर्णय के अनेकों प्रवचन हमारे देश की अदालतों के भिन्न-भिन्न निर्णयों के द्वारा सुनाए गए हैं परन्तु मुकद्दमों का शीघ्र निपटारा आज भी एक दिवा स्वप्न की तरह दिखाई देता है। 

वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आदर्श कुमार गोयल तथा श्री उदय उमेश ललित की खण्डपीठ के समक्ष एक अपीलार्थी यह निवेदन करता है कि वह नशे के मामले में 4 अगस्त, 2013 से जेल में है। उसके मुकद्दमे का ट्रायल चल रहा है परन्तु उसकी जमानत याचिका रद्द कर दी गई है। दूसरा अपीलार्थी 11 जनवरी, 2009 से जेल में है, उसे ट्रायल अदालत ने कत्ल के केस में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। उच्च न्यायालय में अपील विचाराधीन है परन्तु उसकी जमानत याचिका स्वीकार नहीं की जा रही। याचिकाकत्र्ताओं का कहना था कि शीघ्र निपटारा उनका मूल अधिकार है। यदि मुकद्दमे का निपटारा शीघ्र नहीं होना तो उन्हें जमानत पर छोड़ा जाए। 

सर्वोच्च न्यायालय ने केवल इस प्रश्न को एक कानूनी प्रश्न के रूप में स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार को नोटिस जारी किया कि यदि मुकद्दमे के निपटारे में देरी हो रही हो और आरोपी जेल में हो तो क्या उसे जमानत दी जा सकती है। इस मुकद्दमे की सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-436ए का अवलोकन किया जिसमें स्पष्ट किया गया है कि यदि व्यक्ति अधिकतम सजा की आधे से अधिक अवधि जेल में काट चुका हो तो उसे जमानत दी जानी चाहिए। इस प्रावधान के विरुद्ध तर्क यह दिया गया कि यह प्रावधान केवल ट्रायल में देरी होने वाले मुकद्दमों पर ही लागू होता है, अपील पर नहीं। अपील के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का एक अन्य निर्णय प्रस्तुत किया गया जिसमें यह स्पष्ट कहा गया है कि यदि अपील का निपटारा 5 वर्ष के भीतर न हो सके तो आरोपी को जमानत दे देनी चाहिए। 

सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में यह कहा है कि शीघ्र निपटारा अनुच्छेद-21 के अन्तर्गत एक मूल अधिकार समझा जाना चाहिए। यदि किसी मुकद्दमे का निपटारा आवश्यकता से अधिक समय लेता है तो उच्च अदालतें उसके लिए समय अवधि निश्चित कर सकती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि धन के अभाव में अदालतों की प्रक्रिया यदि लम्बा समय लेती है तो भी लोगों को मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय नई अदालतों के गठन, न्यायाधीशों की भर्ती तथा  अन्य सभी साधनों को उपलब्ध कराने के निर्देश भी जारी कर सकती है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर राज्यों के उच्च न्यायालयों को सभी लम्बित मुकद्दमों पर आंकड़े एकत्रित करने और जल्दी निपटारे के लिए कई बार निर्देश दिए हैं। शीघ्र निपटारा न होने के कारण ही जनता का विश्वास न्यायिक प्रक्रिया से उठ जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में न्यायाधीशों को निरर्थक तिथियां बढ़ाने के प्रति भी सचेत किया है। गवाहों के वक्तव्य लिखने में भी लापरवाही नहीं की जानी चाहिए। मुकद्दमे में आवश्यकता से अधिक विलम्ब अपने आप में कानून का उल्लंघन बन जाता है। केन्द्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ मिलकर विचार-विमर्श करने तथा ठोस उपाय करने के लिए कई बार आदेश जारी किए गए हैं। 

जेलों में बन्द कैदियों में से आधे से अधिक कैदी वे हैं जिनके मुकद्दमे अदालतों में विचाराधीन हैं। धारा-436ए जैसे प्रावधानों के बावजूद अनेकों लोग जेलों में ही बन्द हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार स्थानीय मैजिस्ट्रेटों तथा सत्र न्यायाधीशों को ये निर्देश दिए हैं कि वे प्रत्येक जेल में सप्ताह में एक बार अवश्य बैठक करें जिससे धारा-436ए को प्रभावशाली ढंग से लागू किया जा सके। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इस सम्बन्ध में सभी राज्यों को निर्देश जारी किए थे। 

भारतीय विधि आयोग की 245वीं रिपोर्ट तथा 14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में भी अतिरिक्त धन उपलब्ध करवाकर न्याय व्यवस्था को चुस्त बनाने की बात कही गई है। प्रतिवर्ष मुख्यमंत्रियों और मुख्य न्यायाधीशों की बैठक में भी यही विषय चर्चा का विषय बना रहता है। प्रतिवर्ष इन बैठकों में नित नई समितियां बनती रहती हैं परन्तु फिर भी शीघ्र न्याय को क्रियात्मक रूप से लागू नहीं किया जा सका। सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों को वीडियो कांफ्रैंस के द्वारा विशेषज्ञों की गवाही लिखने की व्यवस्था बनाने का भी निर्देश दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने आए दिन वकीलों द्वारा घोषित हड़तालों को भी शीघ्र न्याय में एक बहुत बड़ी बाधा माना है। 

इस सारी चर्चा के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर देश की सभी अदालतों को यह निर्देश जारी किया है कि जमानत याचिकाओं का निर्णय एक सप्ताह के भीतर किया जाना चाहिए। जिन आपराधिक मामलों में आरोपी जेल में बन्द हैं उनका निपटारा सामान्यत: मैजिस्ट्रेट अदालतें 6 माह के अन्दर करें और सत्र अदालतें अधिकतम 2 वर्ष का समय लें। 5 वर्ष से अधिक अवधि वाले मुकद्दमों का निर्णय इस वर्ष के अन्त तक किया जाए। 

यदि कोई कैदी अधिकतम सजा की आधी से अधिक अवधि जेल में बिता चुका है तो उसे तुरन्त व्यक्तिगत जमानत पर ही रिहा किया जाए। सर्वोच्च न्यायालय ने इस आदेश में पहली बार यह कहा है कि इन निर्देशों का पालन करना प्रत्येक न्यायाधीश की व्यक्तिगत वाॢषक रिपोर्ट में अभिव्यक्त किया जाए। प्रत्येक उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ सभी न्यायालयों में चलने वाले मुकद्दमों के आंकड़े एकत्र करे और अनुकूल कार्रवाई करे। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने 9 मार्च, 2017 के इस आदेश की प्रति देश की सभी अदालतों को भी भेजी है।  
 

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