‘तीस्ता जल संधि’ एक मानवीय समस्या

Edited By ,Updated: 26 Apr, 2017 10:53 PM

teesta water treaty is a human problem

बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना 7 से 10 अप्रैल तक 4 दिन की दिल्ली यात्रा पर आई हुई .....

बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना 7 से 10 अप्रैल तक 4 दिन की दिल्ली यात्रा पर आई हुई थीं। इस यात्रा के दौरान कम से कम 22 समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए। रक्षा सहयोग पर भी एक समझौता हुआ और एक अन्य समझौता नागरिक परमाणु सहयोग पर। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बंगलादेश के लिए रियायती दरों पर 4.5 अरब डालर ऋण की घोषणा की जिसमें से 50 करोड़ डालर रक्षा पूर्ति के लिए होंगे। 

लेकिन हसीना और मोदी दोनों के ही मनों पर जो अघोषित, अलिखित मुद्दा छाया रहा वह था तीस्ता जल संधि। यह मुद्दा हल ही नहीं हो पाया। गतिरोध नहीं टूट पाया और इसका हसीना को अत्यंत मलाल था। उन्हें खाली हाथ ही ढाका लौटना पड़ा। बंगलादेश में तीस्ता जल संधि एक ज्वलंत राजनीतिक मुद्दा बन चुकी है। डेढ़ वर्ष बाद बंगलादेश के आम चुनाव में इसके एक प्रमुख मुद्दा बनने की संभावना है। 

तीस्ता जल समझौते पर न पहुंच पाने के बंगलादेश और भारत दोनों के लिए ही व्यापक परिणाम होंगे। बंगलादेशी विपक्ष-जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया की बंगलादेश नैशनलिस्ट पार्टी (बी.एन.पी.), जमात-ए-इस्लामी तथा हिफाजत-ए-इस्लामी जैसे मूलवादी समूह शामिल हैं जिन्होंने हसीना पर भारत का हथठोंका होने का आरोप लगाया है। बंगलादेश के लिए तीस्ता जल संधि अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन भारत को इस पर राजी करने की उनकी विफलता ही उनके विरुद्ध  जाएगी और बंगलादेशी विपक्ष इसका भरपूर लाभ उठाएगा। 

यदि अगले वर्ष होने वाले चुनावों  में अवामी लीग पराजित हो जाती है और बी.एन.पी. सत्तासीन हो जाती है तो इसका भारत के लिए क्या अर्थ होगा? बी.एन.पी. की मुख्य शक्ति  जमात-ए-इस्लामी ही होगी जैसे कि भारत में भाजपा की मुख्य शक्ति आर.एस.एस. है। पाकिस्तान और आई.एस.आई.एस. के प्रति वफादारी रखने वाले अन्य मूलवादी गुट भी आज की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली बन जाएंगे क्योंकि उन्हें खालिदा जिया सरकार की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सरपरस्ती हासिल होगी। ऐसा घटनाक्रम न केवल सैकुलर, लोकतांत्रिक एवं उदारवादी समाज बने रहने की आकांक्षा रखने वाले बंगलादेशी संगठनों के लिए बल्कि भारत के लिए भी बहुत बड़ा खतरा होगा क्योंकि तब भारत दो दुश्मनों के बीच घिरा होगा—पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में बंगलादेश से।

ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को यह एहसास ही नहीं हो रहा कि ऐसा होने के कितने भयावह परिणाम होंगे और उनके खुद के प्रदेश को भी इससे कितना खतरा खड़ा हो जाएगा। वह तो इस समस्या को बहुत ही संकीर्ण दृष्टि से तथा केवल अपने प्रदेश के हित के नजरिए से ही देखती हैं और इस तथ्य के प्रति पूरी तरह उदासीन हैं कि बंगलादेश में मूलवादी शक्तियों के सत्तासीन होने का न केवल भारत-बंगलादेश के परस्पर संबंधों पर असर पड़ेगा बल्कि बंगलादेश की आंतरिक राजनीति के लिए भी इसके बहुत नकारात्मक परिणाम होंगे। लगभग तीन दशक पूर्व फरक्का बांध और बंगलादेश पर इसके प्रभाव को लेकर भारत और बंगलादेश के बीच कुछ विवाद भड़क उठा था। बंगलादेश ने शिकायत की थी कि फरक्का बांध बनने के बाद बंगलादेश में आने वाला गंगा का जल प्रवाह काफी कम हो गया है, जिससे उसके किसान बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। 

मुझे आज तक याद है कि जब मैंने बंगाल के ग्रामीण इलाकों में लम्बे समय तक सक्रिय रहे प्रसिद्ध क्रांतिकारी पन्नालाल दासगुप्ता से भारत-बंगलादेश जल विवाद के बारे में चर्चा की तो उन्होंने हंसते हुए कहा था : ‘‘बस आंखें मूंदो और यह सोचो कि 15 अगस्त 1947 को भारत का विभाजन नहीं हुआ था। भारत अविभाजित है और आज का बंगलादेश भी भारत का  हिस्सा है। तब आपको यह लगेगा कि बंगलादेश का आज का किसान भी पश्चिम बंगाल के किसानों जितना ही भारतीय है। तो उस स्थिति में भारत सरकार एक ही देश के किसानों  के किस वर्ग की उम्मीदें पूरी करेगी और किसको वंचित करेगी? आज  ‘वे’ बंगलादेशी हैं और ‘हम’ भारतीय हैं। लेकिन यदि हम अविभाजित भारत की परिकल्पना करेंगे तो कोई भी बंगलादेशी नहीं होगा बल्कि सभी भारतीय होंगे। तब एक ही देश के अलग-अलग भागों में रह रहे किसानों में पानी का आबंटन किस प्रकार किया जाएगा? यह एक मानवीय समस्या है। देश के कृत्रिम व अप्राकृतिक विभाजन ने ही ये समस्याएं पैदा की हैं।’’ 

पूरी समस्या का सार तत्व यही है। एशिया फाऊंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार तीस्ता की बाढ़ की बदौलत बना हुआ उपजाऊ भूखंड बंगलादेश के कुल फसली क्षेत्र का 14 प्रतिशत बनता है। बंगलादेश में तीस्ता रंगपुर मंडल के 5 उत्तरी जिलों में से गुजरती है। ये जिले हैं कुड़ीग्राम, लाल मुनीर  हाट, नील्फामाड़ी, गायबंधा और रंगपुर। लगभग 2 करोड़ 10 लाख बंगलादेशी  तीस्ता की तलहटी में रहते हैं जबकि पश्चिम बंगाल के केवल 80 लाख और सिक्किम के 5 लाख लोग ही तीस्ता जल क्षेत्र के वासी हैं। रिपोर्टों के अनुसार दोनों देश 2011 में इस बात पर सहमत हो गए थे कि भारत तीस्ता के जल का 42.5 प्रतिशत हासिल करेगा जबकि बंगलादेश 37.5 प्रतिशत लेकिन बंगलादेश भारत के बराबर ही हिस्सेदारी चाहता था। 

अब की बार शेख हसीना की दिल्ली यात्रा दौरान ममता बनर्जी ने सुझाव दिया था कि तीस्ता की बजाय बंगलादेश को तोरसा तथा उत्तरी बंगाल की अन्य छोटी नदियों का पानी सप्लाई किया जाए लेकिन शेख हसीना इस पर सहमत नहीं हुईं और गतिरोध अभी भी बना हुआ है। समस्या तो मुख्य तौर पर मानवीय थी लेकिन विभाजन के बाद दोनों देशों के बीच एक ऐसा राजनीतिक पंगा बन गया है जिसका कोई हल नहीं निकल रहा।  आज तीस्ता जल मुद्दा अतीत के किसी भी दौर की तुलना में अधिक विकराल रूप धारण कर चुका है। 

अक्तूबर 2018 के बंगलादेश के आम चुनाव तथा इनके फलस्वरूप कौन-सी पार्टी सत्तासीन होगी और क्या वह भारत के साथ दोस्ताना व सहयोगपूर्ण संबंध बनाने में रुचि लेगी या नहीं...ये सब बातें तीस्ता जल समस्या के समाधान पर ही निर्भर करती हैं। ऐसी स्थिति में अगले वर्ष ढाका में बनने वाली सरकार के साथ दोस्ताना संबंध का आधार तैयार करने हेतु बराबर मात्रा में जल बंटवारा भारत के लिए एक बहुत बढिय़ा ‘राजनीतिक निवेश’ सिद्ध होगा। भारत को बेशक इस मामले में कुछ कुर्बानी करनी होगी लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से जो राजनीतिक लाभ होंगे वे भारत के परित्याग की भरपाई कर देंगे। मोदी से लेकर ममता तक भारत के सभी संबंधित नेताओं को यह बात भली-भांति समझ लेनी चाहिए तथा इसे राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए।     

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