गिरता जा रहा है शिक्षा का स्तर

Edited By ,Updated: 21 Jun, 2016 01:59 AM

the deteriorating standards of education

अबुल कलाम आजाद भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री थे। वह गंभीर बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ पूरी दुनिया की राजनीति में सबसे अधिक पढ़े-लिखे व्यक्तियों में से एक थे।

(आकार पटेल): अबुल कलाम आजाद भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री थे। वह गंभीर बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ पूरी दुनिया की राजनीति में सबसे अधिक पढ़े-लिखे व्यक्तियों में से एक थे। धर्म के बारे में उनके विशाल ज्ञान के कारण उन्हें मौलाना कहा जाता था। सरल शब्दों में उनके द्वारा किया गया कुरान का अनुवाद ही आज भारत और पाकिस्तान के मौलवियों के लिए मानक ग्रंथ बन चुका है। इतिहास और साहित्य के ज्ञान के मामले में कोई भी कांग्रेसी नेता उनकी बराबरी नहीं कर सकता था। 

 
1931 में जब नेहरू ने बंदी जीवन के दौरान 900 पृष्ठों की ‘ग्लिम्पसज ऑफ द वल्र्ड हिस्टरी’ लिखी तो उनके पास तारीखों व तथ्यों की जांच करने के लिए कोई संदर्भ पुस्तकें नहीं थीं। लेकिन उनके साथ आजाद थे जिन्हें प्राचीन मिस्र से लेकर यूनान तथा रोम से लेकर चीन की चाय तक हर बार का इतिहास याद था। स्वतंत्र भारत के शिक्षा मंत्री के रूप में आजाद ने साहित्य अकादमी की संस्थापना की। ये बातें कहने का मेरा अभिप्राय यह प्रदर्शित करना है कि केंद्रीय शिक्षा मंत्री के पद पर कितने-कितने महान विद्वान व प्रबुद्ध व्यक्ति रह चुके हैं। आज शिक्षा मंत्रालय को अलग नाम से जाना जाता है। अब इसे मानव संसाधन मंत्रालय कहा जाता है और इसकी बागडोर अभिनेत्री स्मृति ईरानी के हाथों में है। उनका विश्वास है कि वह मंत्री के रूप में अपना काम बहुत बढिय़ा ढंग से कर रही हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी के कुछ समर्थकों तक का यह मानना है कि स्मृति ईरानी का काम संतोषजनक नहीं क्योंकि उनके पास शिक्षा और अनुभव की कमी है।
 
कुछ दिन पूर्व ईरानी ने अपनी कुछ उपलब्धियों की सूची गिनाई थी जिसमें उन्होंने निम्रलिखित बातों को शामिल किया था: एक वर्ष के अंदर 4 लाख से अधिक स्कूलों में शौचालयों का निर्माण, गणित व विज्ञान का स्तर सुधारने के लिए सरकारी हस्तक्षेप पर फोकस एवं पठन व लेखन स्तरों पर ध्यान केंद्रित करते हुए सरकारी पेशकदमियां। उन्होंने यह भी दावा किया कि इनमें से बहुत सी पेशकदमियां पहली बार की गई हैं।
 
इस सूची में उन्होंने और भी  कई बातें शामिल कीं, यथा प्रतिमाओं की प्रस्थापना करना एवं उपस्थिति दर्ज करने के मामले में नए-नए तरीके अपनाना। लेकिन इन दावों की वास्तविकता जांचने के लिए हमें इन पर दृष्टिपात करना होगा। भारत में शिक्षा की समस्या आखिर क्या है? सबसे बड़ी समस्या तो प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता की है। इस मामले में तो सब गुड़-गोबर हो रहा है। उचित सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं और अध्यापक भी अक्सर स्कूल में उपस्थित नहीं होते। मुफ्त भोजन भी इतना घटिया तरीके से पकाया जाता है कि बच्चे खाद्य विषाक्तता के कारण मौत के शिकार हो जाते हैं। सरकार इस महत्वपूर्ण काम को सलीके से अंजाम देने में विफल रही है। जिसके चलते गरीब लोगों को भी अपने बच्चे प्राइवेट स्कूलों में भेजने के लिए मजबूर होना पड़ता है। 2006 में कुल छात्रों की संख्या का 20 प्रतिशत से भी कम प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते थे लेकिन 10 वर्ष बाद आज यह संख्या 30 प्रतिशत से भी ऊपर चली गई है। प्राइवेट स्कूलों में भी शिक्षा की गुणवत्ता एक जैसी नहीं है। कई प्राइवेट स्कूलों का हाल तो सरकारी स्कूलों से भी बदतर है।
 
नतीजा यह हुआ है कि हमारे स्कूलों से पढ़ कर निकलने वाले अधिकतर छात्र शिक्षित हैं ही नहीं। भारत में सबसे उत्कृष्ट वाॢषक सर्वेक्षण ‘प्रथम’ नाम संस्था द्वारा किया जाता है। गुजरात के संबंध में ‘प्रथम’ के सवेक्षण पर दृष्टिपात करना बहुत लाभदायक होगा। 2014 में ग्रामीण गुजरात के स्कूूलों की 7वीं कक्षा के केवल 22 प्रतिशत छात्र ही अंग्रेजी में लिखे हुए वाक्य को पढ़ सकते थे जबकि 2007 में यह आंकड़ा 37 प्रतिशत था। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि एक ऐसा राज्य जिसे अधिकतर लोग बेहतर गवर्नैंस की उदाहरण मानते हैं, में भी वास्तव में शिक्षा का स्तर नीचे गिर रहा है। 
 
पांचवीं कक्षा के जिन छात्रों का परीक्षण किया गया उनमें से केवल 6 प्रतिशत ही अंग्रेजी का वाक्य पढ़ पाए थे यानी कि 10 वर्ष आयु के 94 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी का एक भी वाक्य नहीं पढ़ सकते। मैं यहां यह बताना चाहूंगा कि यह सवेक्षण 20 हजार बच्चों पर किया गया था इसलिए इसे छोटा-मोटा नहीं कहा जा सकता।
 
6वीं कक्षा के 44 प्रतिशत बच्चे गुजराती भाषा में वास्तविक रूप में तीसरी कक्षा के स्तर की पठन योग्यता रखते हैं। गत कुछ वर्षों दौरान इस आंकड़े में और भी गिरावट आ चुकी है। 2007 में तीसरी कक्षा के केवल 35 प्रतिशत छात्र ही गुजराती में पहली कक्षा की पुस्तक पढऩे की योग्यता रखते थे। तब से अब तक इस आंकड़े में सरकारी स्कूलों के साथ-साथ प्राइवेट स्कूलों में भी गिरावट आई है। सरकारी स्कूलों की पांचवीं कक्षा के केवल 13 प्रतिशत छात्रों को विभाजन करना आता था जबकि प्राइवेट स्कूलों के मामले में यह आंकड़ा 16 प्रतिशत था। देश भर के लोगों का मानना है कि गुजरात के लोग तो जन्मजात कारोबारी होते हैं लेकिन यदि इनमें से 80 प्रतिशत से भी अधिक को गुणा और विभाजन तथा जमा और घटाव जैसे आधारभूत  गणितीय सूत्रों की भी समझ नहीं तो भारत के साथ-साथ गुजरात का भी भविष्य अंधकारमय है।
 
इस स्थिति के लिए कुछ दोष तो संसाधनों की कमी को दिया जा सकता है। अमरीका की सरकार  6 से 15 वर्ष की आयु के प्रत्येक अमरीकी बच्चे की शिक्षा पर 1 लाख 15 हजार डालर खर्च करती है, यानी कि प्रत्येक अमरीकी बच्चे पर प्रति वर्ष 7 लाख रुपया खर्च किया जाता है। भारत में तो इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। हमें  अमरीका वाले स्तर तक पहुंचने के लिए 100 वर्ष लगेंगे। लेकिन हमें यह अवश्य ही स्वीकार करना पड़ेगा कि  हमसे भी गरीब कई ऐसे देश हैं जो भारत जैसी समस्या से मुक्त हैं। उदाहरण के तौर पर जिम्बाब्वे की प्रति व्यक्ति आय भारत से कम है लेकिन उसकी शिक्षा भारत से कई गुणा बेहतर है। यानी कि घटिया शिक्षा के लिए केवल पैसे की कमी जिम्मेदार नहीं।
 
मैं अक्सर लिखता हूं कि भारत की समस्याओं के लिए सरकार केवल आंशिक रूप में ही जिम्मेदार है। विकराल मुद्दे समाज से संबंधित हैं और इन्हें कोई मंत्री नहीं बदल सकता चाहे वह कितना भी होनहार और प्रतिभावान क्यों न हो या खुद को ऐसा मानता हो। भारत ऐसे नागरिक पैदा कर रहा है जो मुश्किल से ही पढऩा-लिखना जानते हैं और रोजगार हासिल करने की योग्यता नहीं रखते। वे किसी भी तरह उपजाऊ सिद्ध नहीं हो सकते तथा एक आधुनिक अर्थव्यवस्था में काम पर लगने के योग्य नहीं होंगे लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं। 
 
हम अपने मानव संसाधनों का विकास करने में विफल सिद्ध हो रहे हैं। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे हमारी मानव संसाधन मंत्री को बहुत विम्रता से स्वीकार करना चाहिए क्योंकि इसमें उनका अपना कोई दोष नहीं है। बेशक वह ऐसा मानती हैं कि नई बातें उनके तत्वावधान में पहली बार हो रही हैं लेकिन सच्चाई यह है कि बहुत से महान लोगों ने यह काम पहले भी किया है और सभी के  सभी विफल हुए हैं। 

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