ब्रिटेन में फिर उठने लगीं दूसरे ‘रैफरैंडम’ की आवाजें

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Jan, 2018 03:56 AM

the sound of the second rheerandam started to rise again in the uk

डेढ़ वर्ष पूर्व 23 जून 2016 को हुए रैफरैंडम द्वारा ब्रिटेन ने यूरोपियन यूनियन छोडऩे का जब फैसला किया तब यूरोप से संबंध-विच्छेद करने की प्रक्रिया को सम्पूर्ण करने के लिए उसने पौने 3 वर्ष- 9 मार्च 2019 तक  का समय मांगा था। समय की वह अवधि समाप्त होने...

डेढ़ वर्ष पूर्व 23 जून 2016 को हुए रैफरैंडम द्वारा ब्रिटेन ने यूरोपियन यूनियन छोडऩे का जब फैसला किया तब यूरोप से संबंध-विच्छेद करने की प्रक्रिया को सम्पूर्ण करने के लिए उसने पौने 3 वर्ष- 9 मार्च 2019 तक का समय मांगा था। समय की वह अवधि समाप्त होने में अब लगभग केवल 14 महीने ही बाकी रह गए हैं लेकिन इस दिशा की ओर बढऩे में कोई विशेष प्रगति हुई हो ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा। गाड़ी अभी प्लेटफार्म पर ही खड़ी है। 

ब्रिटेन ने यह समय मांगा था बदली हुई परिस्थितियों के दृष्टिगत अपने लिए- यूरोपियन यूनियन के अन्दर और यूरोप से बाहर के देशों के साथ व्यापार के नए संयोग स्थापित करने के लिए। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए भरसक प्रयत्नों के बावजूद उसे उतनी सफलता नहीं मिल सकी जितनी कि उसे आवश्यकता है या जितनी आशा लेकर स्वयं प्रधानमंत्री थेरेसा मे तथा उनके कई मंत्री कितने ही देशों के चक्कर-पे-चक्कर लगा चुके हैं। इसके लिए ब्रिटेन को सबसे ज्यादा आशा थी भारत के साथ व्यापार की मात्रा बढऩे की। 

यद्यपि इन दोनों देशों के व्यापारिक संबंध बड़े गहरे हैं और दोनों में आपसी आयात-निर्यात की मात्रा बाकी किसी और देश के मुकाबले में सबसे ज्यादा है, फिर भी यूरोप के व्यापार द्वार बंद होने के बाद ब्रिटेन को घाटा होने की जो आशंका थी उसकी पूर्ति के लिए उसे जरूरत थी नए साधन जुटाने की। उसे आशा की किरण दिखाई दी भारत में। यही कारण था कि थेरेसा मे ने सबसे पहले भारत का रुख किया। परन्तु नवम्बर 2016 का उनका यह दौरा उतना सफल न रहा जितनी उम्मीदें लेकर वह वहां गई थीं क्योंकि भारतीय व्यापारियों और छात्रों को इमीग्रेशन वीजा देने के मामले में ब्रिटेन के रवैये से भारत खुश नहीं था। 

अन्य देशों के साथ भी व्यापारिक संबंध बढ़ाने के ब्रिटेन के प्रयासों को कोई विशेष संतोषजनक सफलता न मिल सकने के कारण उदासीनता और निराशा का सा वातावरण है, इसका सार्वजनिक प्रकटीकरण भी किया जा रहा है। रैफरैंडम द्वारा किया गया निर्णय सही था या गलत यह निरंतर बहस और विवाद का विषय बना हुआ है। राजनीतिक क्षेत्रों और मीडिया में एक ही मुद्दा छाया हुआ है-ब्रेग्जिट अर्थात ब्रिटेन का यूरोप से निकास। यह कैसे और किस रूप में संभव हो, सारा मामला इसी दुविधा में उलझा हुआ है। यूरोपियन यूनियन के नेताओं के साथ ब्रिटिश प्रधानमंत्री की वार्तालाप कई मीटिंगों के बावजूद किसी किनारे नहीं लग सकी। कुछ यूरोपीय नेता अप्रसन्न हैं और साफ कह चुके हैं कि ब्रिटेन से जितनी जल्दी छुटकारा मिले उतना अच्छा। इसके विपरीत गंभीर विचारधारा वाले यूरोपीय नेताओं का परामर्श है कि  टूटते संबंधों को किसी तरह बचा सकने की संभावनाएं तलाश करने की दिशा में पूरे प्रयत्न किए जाने चाहिएं। 

ब्रेग्जिट वार्तालाप क्यों सिरे नहीं चढ़ पा रही यह आश्चर्य का विषय है। स्पष्ट है कि ब्रिटेन जो कुछ प्राप्त करना चाहता है वह उसे यूरोपियन यूनियन से मिल नहीं रहा, लेकिन वह चाहता क्या है? यह भी किसी को कुछ पता नहीं। कभी कुछ कहा जाता है कभी कुछ व्याख्या की जाती है। हर नेता के अपने-अपने विचार हैं। सहमति है नहीं, न सत्ताधारी टोरी पार्टी में और न विरोधी दल लेबर पार्टी में, न स्वयं थेरेसा मे के मंत्रिमंडल के उन सदस्यों की आपस में जिन्हें ब्रेग्जिट प्रक्रिया को पूर्ण करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। वैसे उसकी कोशिश है कि अब जबकि यूरोप से निकलना पड़ ही रहा है तो कोई न कोई ऐसा रास्ता निकल आए जिससे कि यूरोपियन यूनियन के साथ और उसके माध्यम से अन्य देशों के साथ व्यापार उसी तरह किया जा सके जैसे कि इस वक्त हो रहा है। दूसरे, यूरोप से तलाक की सूरत में उसे 450 बिलियन डॉलर का जो भारी हर्जाना अदा करना पड़ रहा है उससे किसी तरह छुटकारा मिल जाए या उस रकम में भारी कटौती की जाए। यह बात सिरे नहीं चढ़ रही। 

दोबारा रैफरैंडम करवा कर यह निश्चित किया जाए कि ब्रिटेन को पहले की तरह यूरोपियन यूनियन का सदस्य बना रहना चाहिए या नहीं, इस प्रस्ताव के पक्ष में कई प्रभावशाली ब्रिटिश और यूरोपियन नेता अपना मत बड़े जोरदार शब्दों में प्रकट कर चुके हैं। उनका कहना है कि ब्रिटेन का हित इसी में है कि वह यूरोप के साथ रहे। ऐसा करने की राह में ब्रिटेन के सामने बड़ी पेचीदा उलझनें और रुकावटें हैं। यूरोप छोडऩे का फैसला एक रैफरैंडम द्वारा हुआ था अर्थात वह जनता का फैसला था जिसे स्वीकार करना सरकार के लिए तब अनिवार्य हो गया जब पाॢलयामैंट ने भी इसकी पुष्टि कर दी। अब अगर इसे उलटाया जा सकता है तो उसी प्रक्रिया द्वारा जिसके जरिए यह फैसला किया गया था- यानी कि दोबारा रैफरैंडम हो, फिर से पार्लियामैंट उस रैफरैंडम के परिणाम की मंजूरी दे। मामला यहीं खत्म नहीं होता। पता नहीं दूसरे रैफरैंडम का नतीजा क्या निकले। यदि पक्ष में रहा तो उसके लिए यूरोपियन यूनियन की मंजूरी दरकार होगी। 

यूरोपियन यूनियन के कुछ सदस्य देश और नेता ब्रिटेन की सदस्यता जारी रखने का समर्थन कर चुके हैं, कुछ कड़े विरोधी भी हैं। ब्रिटेन के 3 पूर्व प्रधानमंत्रियों जॉन मेजर, टोनी ब्लेयर, गॉर्डोन ब्राऊन का स्पष्ट मत है कि दोबारा रैफरैंडम करवा कर यह उलझन हल की जानी चाहिए। यहां तक कि जिस पार्टी ने यूरोप से अलग होने का सबसे ज्यादा बखेड़ा खड़ा किया था उस राजनीतिक दल- यूनाइटिड किंगडम इंडिपैंडैंट पार्टी के पूर्व नेता नाइजिल फराज ने भी अपने स्वभावानुसार खिझे-खिझे से अंदाज में कह दिया है कि वापसी के अलावा कोई चारा नहीं। यूरोपियन पाॢलयामैंट की विदेशी मामलों की समिति के प्रधान ने कहा है कि ब्रिटेन के निकल जाने से यूरोप और ब्रिटेन दोनों का नुक्सान होगा। ब्रिटेन के यूरोप का अंग बने रहने के पक्ष में इन सबसे ज्यादा भावुक बात जिसने कही है वह स्वयं यूरोपियन यूनियन के अध्यक्ष डोनल्ड टस्क हैं जिन्होंने कहा है: ब्रिटेन के लिए हमारे दिलों के दरवाजे अब भी खुले हैं।-कृष्ण भाटिया

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