तीन तलाक का मुद्दा: आस्था के नाम पर मुस्लिम औरतों का उत्पीड़न कब तक

Edited By ,Updated: 19 May, 2017 11:50 PM

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आखिर तीन तलाक का मुद्दा विपक्षी दलों के लिए औरतों का मुद्दा क्यों नहीं....

आखिर तीन तलाक का मुद्दा विपक्षी दलों के लिए औरतों का मुद्दा क्यों नहीं है? क्या मुसलमान औरतें औरतें नहीं? उनके सुख-दुख वे नहीं जो अन्य धर्मों की औरतों के हैं। कम से कम अन्य धर्मों की औरतों पर किसी मामूली बात पर तीन बार तलाक कहकर घर से बाहर खदेड़े जाने की तलवार तो नहीं लटकी रहती। वे लोग जो कल तक औरतों के हितैषी बनते रहे हैं वे अचानक मुसलमान औरतों के मामूली से जीने के अधिकार का संरक्षण भी क्यों नहीं करना चाहते? वे क्यों दाएं-बाएं हो रहे हैं। 

कांग्रेस ने तो लगता है यह मान रखा है और अपने आस-पास एक बोर्ड लगा रखा है कि हम अतीत से कभी कोई सबक नहीं लेंगे और न ही सुधरेंगे। यह तब है जबकि कांग्रेस की अध्यक्ष एक महिला हैं। और कुछ नहीं तो एंटनी कमेटी की रिपोर्ट पर ही गौर कर लिया होता। आप अल्पसंख्यकों के हित रक्षक हैं, बहुत अच्छी बात है। लेकिन अल्पसंख्यकों के नाम पर क्या आप केवल अल्पसंख्यक पुरुषों के हित रक्षक हैं? वहां औरतें हाशिए पर हैं और आपको दिखाई नहीं देतीं। क्या सिर्फ अल्पसंख्यक पुरुष ही वोट देते हैं, औरतें नहीं? और यह तब है जबकि न्यायालय से न्याय की गुहार मुसलमान औरतों ने ही लगाई है। 

कपिल सिब्बल को पढ़ा-लिखा माना जाता है। वह मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की तरफ  से एक वकील की तरह तर्क देते हुए यह भूल गए कि वह कांग्रेस के एक बड़े नेता भी हैं। उनकी कही बात को कांग्रेस का विचार भी माना जा सकता है। सिब्बल ने तीन तलाकके समर्थन में कहा कि यह चौदह सौ साल पुरानी परम्परा है। इसे खत्म नहीं किया जाना चाहिए और तीन तलाक आस्था का मामला है। आस्था के नाम पर औरतों को कब तक पीटा जा सकता है? और यदि आस्था की ही मान लें तो फिर तो कभी किसी समाज और समुदाय में कोई बदलाव हो ही नहीं सकता। 

1987 में दिवराला में जब रूप कंवर सती हो गई थी, तब यह लेखिका वहां गई थी। तब भी वहां तलवार लहराते लोगों ने कहा था कि यह उनकी आस्था का मामला है। तो क्या हम कहें कि सती होना बहुत अच्छी बात है। उसी प्रकार बाल विवाह और लड़कियों को न पढ़ाना भी बहुत से लोगों की आस्था का विषय हो सकता है। तो क्या फिर से तथाकथित आस्थाओं के नाम पर समाज को पहली सदी में धकेल दिया जाए। 

कांग्रेस के पास एक सुनहरा मौका था कि शाहबानो के मसले पर उसकी सरकार ने जो गलती की थी, उसे सुधार लेती। मगर सुधारना तो दूर, ऐसा लगता है कि कांग्रेस तथा अन्य बहुत से विपक्षी दल, खासतौर से वाम दल भी सिर्फ  मुसलमान पुरुषों के प्रवक्ता हैं। वे पर्सनल लॉ और उसके अधिकार के नाम पर सिर्फ  और सिर्फ पुरुषवाद और पुरुषों के अधिकारों को बचाना चाहते हैं। वर्ना रोती-बिसूरती, परेशान, अपने पतियों द्वारा सताई गईं इन अभागी औरतों के आंसू इन दलों को क्यों नहीं दिखते? 

आस्था के नाम पर कपिल सिब्बल का औरतों की दोयम दर्जे की नागरिकता बनाए रखने की वकालत करना बेहद निंदनीय है। परम्परा मनुष्य ही गढ़ता, बनाता और पालन करता है। इसीलिए समय-समय पर जब इन परम्पराओं में सुधार की जरूरत होती है, तो सुधार भी किए जाते हैं। परिवर्तन किसी भी समाज के विकास की अनिवार्य शर्त होती है। अगर परिवर्तन न होता तो आज भी मनुष्य कच्चा मांस खाता फिरता। जंगल में रह रहा होता और पत्थर से पत्थर रगड़कर आग जला रहा होता। कांग्रेस खुद को परिवर्तन की वाहक पार्टी कहती रही है लेकिन मुसलमान औरतों के लिए, उनकी सहानुभूति में उसके पास एक आंसू भी नहीं। 

ऐसा क्यों? और अगर सब कुछ, कोई भी मानवीय अधिकार सिर्फ वोट के गणित से तय होता हो तो शर्म की बात है। हालांकि हिन्दू औरतों को सम्पत्ति के अधिकार दिए जाने का बहुत से नेताओं ने विरोध किया ही था। मगर उन्हें वे अधिकार दिए गए और समाज ने उसे स्वीकार भी किया। सती प्रथा के विरोध में जब राजा राम मोहन राय और उनके साथी आंदोलन चला रहे थे, तब भी कट्टर लोग उनका विरोध कर रहे थे मगर अंत में सफलता राम मोहन राय और उनके अनुयायियों को ही मिली। 

काश! कि विपक्षी दलों ने वोटों की खातिर मुसलमान औरतों के हितों से मुंह न फेरा होता। या कि बात सिर्फ इतनी है कि मुसलमान औरतों के तीन तलाक जैसे गम्भीर और उन्हें सताए जाने वाले मसले के खिलाफ इस सरकार ने खासी दिलचस्पी दिखाई है, इसलिए विपक्षी इसका हर हालत में विरोध करेंगे। अच्छा काम तो कोई भी करे हमें उसका समर्थन करना चाहिए, लेकिन राजनीतिक दल जब विचारों के मुकाबले वोट का गणित भिड़ाने लगें तो क्या कहा जा सकता है? अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए लाखों मुसलमान महिलाओं की तरफ  से आंखें फेर लेना न केवल दुखद है बल्कि शर्मनाक भी है। (लेखिका के विचार निजी हैं)  


 

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