Edited By Punjab Kesari,Updated: 19 Feb, 2018 04:31 AM
तिब्बत में हमें कश्मीरी कहा जाता था और कश्मीर में तिब्बती कहते हैं। जैसे हमारी पहचान ही खत्म हो गई है। हम अमन पसंद लोग हैं और चैन की जिंदगी जीने में यकीन रखते हैं। कुछ इस तरह से तौसीफ ने अपना परिचय दिया। श्रीनगर में पर्यटन कारोबार से जुड़े इस...
तिब्बत में हमें कश्मीरी कहा जाता था और कश्मीर में तिब्बती कहते हैं। जैसे हमारी पहचान ही खत्म हो गई है। हम अमन पसंद लोग हैं और चैन की जिंदगी जीने में यकीन रखते हैं।
कुछ इस तरह से तौसीफ ने अपना परिचय दिया। श्रीनगर में पर्यटन कारोबार से जुड़े इस मुस्लिम नौजवान से मेरी मुलाकात विश्व प्रसिद्ध केसर दे ढाबे पर हुई। जहां वह अपनी 2 युवा बहनों के साथ शाकाहारी पंजाबी खाने का आनंद लेने आया था। तौसीफ ने बताया कि करीब 400 साल पहले उनके दादा-परदादा रोजी-रोटी के जुगाड़ में कश्मीर से तिब्बत गए थे। तब के दलाईलामा ने उन्हें तिब्बत की राजधानी ल्हासा में जमीनें दीं। समय बीतने के साथ उन्होंने तिब्बती जुबान सीख ली। तिब्बती खान-पान व पहरावे को अपना लिया और वहां की महिलाओं से शादियां कर लीं। लेकिन वहां उन्हें कभी भी तिब्बती के तौर पर देखा नहीं गया बल्कि ‘खाचे’ कहा गया जिसका अर्थ होता है कश्मीरी।
गौरतलब है कि 1959 में चीन के कम्युनिस्ट शासन के खिलाफ नाकाम बगावत के बाद दलाईलामा और बौद्ध धर्म के हजारों अनुयायियों को मजबूरी में तिब्बत छोड़ कर भारत की शरण में आना पड़ा था। तिब्बती मुसलमानों को कश्मीर में पहुंचने पर शरणार्थियों के तौर पर देखा गया हालांकि उन्होंने प्रशासन को बताया था कि असल में उनके पूर्वज कश्मीर से ही तिब्बत गए थे और वे शरणार्थी नहीं हैं बल्कि यह उनकी घर वापसी है। तौसीफ ने बताया कि पुराने श्रीनगर की सीमा के निकट बादाम के बगीचों के बीच बसी तिब्बतियन कालोनी में 2 हजार से ज्यादा तिब्बतियन मुसलमान रह रहे हैं। इनकी जड़ें कश्मीर में होने के बावजूद ये लोग न तो यहां जमीन-जायदाद खरीद सकते हैं और न ही इन्हें वैसी कोई खास सहूलियत मिलती है जो बाकी के कश्मीरियों को मिल रही है।
आज इनमें से ज्यादातर लोग छोटे-मोटे काम धंधे कर रहे हैं। कई लोग बुर्कों पर की जाने वाली कसीदाकारी का काम करते हैं। कई शालों पर कढ़ाई करते हैं, तो कई अखरोट की लकड़ी पर नक्काशी के काम वाला सामान बेचते हैं। तौसीफ के अनुसार, उनके घरों में आपको दलाईलामा की तस्वीरें लगी हुई मिलेंगी। हालांकि वे दलाईलामा को अपना धार्मिक नेता नहीं मानते लेकिन उनके शांति प्रयासों के लिए वे उनका दिल से सम्मान करते हैं। तौसीफ की बहनों आबिदा और फातिमा ने बताया कि कश्मीर की लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए भारत के बेहतरीन कालेजों और विश्वविद्यालयों में भर्ती होना चाहती हैं लेकिन उनके दिल में डर रहता है कि कहीं उनसे बुरा बर्ताव न हो। हालांकि उन्हें अमृतसर आकर घर जैसा माहौल लगा है।-शम्मी सरीन