क्या ‘रेरा’ असली खरीददारों के लिए लाभदायक होगा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Sep, 2017 12:39 AM

will rare be beneficial for real buyers

रियल एस्टेट (नियमन एवं विकास) अधिनियम (रेरा) को मई 2016 में खरीदारों के हितों को ध्यान में रखते हुए पारित किया....

रियल एस्टेट (नियमन एवं विकास) अधिनियम (रेरा) को मई 2016 में खरीदारों के हितों को ध्यान में रखते हुए पारित किया गया था और इसका उद्देश्य था कि डिवैल्परों के साथ सौदेबाजी में खरीदारों के हितों की रक्षा की जा सके। बेशक ‘रेरा’ नि:संदेह रूप में उन बिगड़ैल बिल्डरों को सीधे रास्ते पर लाने में सहायक होगा जो खपतकारों के साथ हेराफेरियां करते हैं। लेकिन अब देखना यह है कि समूचे तौर पर हाऊसिंग मार्कीट को यह कैसे प्रभावित करेगा और क्या इससे आवास आम लोगों की खरीद क्षमता के दायरे में आ सकेंगे? 

‘रेरा’ के निर्णायक प्रावधानों का लक्ष्य है डिवैल्परों की जवाबदेही बढ़ाना ताकि वे एक निश्चित आकार से बड़ी योजनाओं को अनिवार्य रूप में पंजीकृत करवाएं। नियमों का अनुपालन न करने पर उन पर भारी जुर्माने तथा दंड की भी व्यवस्था की गई है। इस कानून के अन्तर्गत प्रत्येक संबंधित राज्य में एक रियल एस्टेट नियामक प्राधिकार सृजित करने की भी गुंजाइश रखी गई है ताकि यह प्राधिकार एक पहरेदार के रूप में काम कर सके। इस कानून में एक अपीलीय पंचाट का भी प्रावधान है, जोकि विशेष रूप में रियल एस्टेट क्षेत्र के विवादों का तेज गति से निपटारा करेगा। इन प्रावधानों में से अधिकतर सही दिशा में सकारात्मक कदम हैं। 

इन कदमों से जहां हाऊसिंग सैक्टर के संबंध में बहुवांछित आंकड़े उपलब्ध करवाने और उनका तालमेल बैठाने के लिए एक राज्य स्तरीय निकाय का गठन हो सकेगा, वहीं पारदर्शिता भी बढ़ेगी और इसके फलस्वरूप खरीदारों का भरोसा भी सुदृढ़ होगा। फिर भी एक आशंका मौजूद है कि आवासीय आपूर्ति की स्थिति सुधारने के लिए यदि आधारभूत ढांचे में सुधार नहीं किए जाते तो ‘रेरा’ द्वारा लागू की गई पाबंदियां भी अंततोगत्वा खरीदारों के विरुद्ध चली जाएंगी। वर्तमान में भारतीय शहरों में आवासीय निर्माण करने के लिए केन्द्र, प्रदेश तथा स्थानीय सरकारों के स्तर पर ढेर सारी महंगी क्लीयरैंस हासिल करनी होती हैं।

ये मंजूरियां हासिल करने में 12 से 18 महीने का समय लग जाता है। कभी-कभी तो इससे भी अधिक विलंब हो जाता है क्योंकि एक विभाग या अधिकारी पूरी की पूरी फाइल रोक लेता है और इससे सम्पूर्ण परियोजना अधर में लटक जाती है। ऐसी परिस्थितियों में डिवैल्पर अधिकतर मामलों में समयसीमा के अंदर अपना काम पूरा नहीं कर पाते। इसमें उनका खुद का तो कोई कसूर नहीं होता और न ही उनका इरादा गलत होता है। बल्कि सरकार के विभिन्न विभागों का परस्पर कुशल तालमेल नहीं होता। 

इससे भी बड़ी बात यह है कि विभिन्न मंजूरियां हासिल करने के लिए कोई समयसीमा तय न होने के कारण परियोजना के वित्त पोषण की लागत बढ़ जाती है और इसके साथ ही जोखिम भी। कमाल की बात तो यह है कि जहां ‘रेरा’ में बिल्डरों पर तो यह जिम्मेदारी डाली गई है कि वे ग्राहक के साथ पूर्व निर्धारित समयसीमा के अंदर अनिवार्य रूप में अपना काम पूरा करें नहीं तो उन पर दंड और जुर्माना लगाया जाएगा, वहीं सरकारी एजैंसियों को प्रोजैक्ट क्लीयरैंस के लिए जिम्मेदार बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। ऐसी स्थिति में सरकारी मशीनरी की नालायकी या दुर्भावना के कारण बिल्डर को ही दंड और जुर्माने का वहन करना पड़ता है। इस प्रकार डिवैल्परों पर पडऩे वाले जुर्माने तथा ब्याज का बोझ अंततोगत्वा बढ़ी हुई कीमतों के रूप में उपभोक्ताओं को ही अदा करना पड़ता है।

भारत में आवासीय निर्माण करने की पूंजीगत लागत पहले ही आसमान छू रही है। इसका एक कारण यह भी है कि रिजर्व बैंक ने औपचारिक बैंकिंग क्षेत्र को भूमि खरीद के लिए ऋण देने से मना कर रखा है। इसका परिणाम यह हुआ कि बिल्डरों को प्रारम्भिक पूंजी जुटाने के लिए अनौपचारिक बैंकिंग क्षेत्र यानी साहूकारों और फाइनैंसरों इत्यादि से ऋण लेना पड़ता है। बड़े-बड़े बिल्डर तो काफी आसानी से पूंजी जुटा लेते हैं लेकिन छोटे व अपेक्षाकृत अंजाने बिल्डरों को बहुत ऊंची दरों पर ब्याज देना पड़ता है क्योंकि ‘रेरा’ नियामक अड़चनों तथा औपचारिक प्रोजैक्ट वित्त पोषण की बुनियादी अड़चनों को सम्बोधित नहीं होता इसलिए इसका एक संभावित प्रभाव यह हो सकता है कि बड़े बिल्डरों का मार्कीट में दबदबा और भी बढ़ जाएगा।

चूंकि विभिन्न राज्य अभी भी अपने-अपने यहां ‘रेरा’ नियामक प्राधिकार बनाने के लिए वांछित चौखटा तैयार करने की प्रक्रिया में हैं, ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि इस अधिनियम के प्रावधान लागू ही नहीं किए जा सकेंगे या फिर उनसे यथास्थिति में कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं आएगा। फिर भी चिंता का विषय यह है कि राज्यों द्वारा अधिकारियों को इतनी शक्तियां अवश्य ही प्रदान कर दी जाएंगी कि वे भारी-भरकम किराए वसूल कर सकें, जिसके फलस्वरूप अंततोगत्वा वैध खरीदार हाशिए पर धकेल दिए जाएंगे। ऐसा कोई पहली बार नहीं होगा जब केन्द्र सरकार द्वारा समस्याओं को घटाने के लिए नेक इरादों से तैयार किया गया कानून लाभदायक सिद्ध होने की बजाय आशा के बिल्कुल विपरीत परिणाम देगा, जिससे वास्तविक लाभार्थी पहले से भी बुरी स्थिति में फंस जाएंगे।     

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