योगी का सांसद बने रहना अवैध

Edited By ,Updated: 25 May, 2017 12:36 AM

yogi remains a lawmaker

भाजपा और आर.एस.एस. सत्ता के मुकाबलेबाजों के केन्द्र के रूप में योगी आदित्यनाथ का रहस्यमय अभ्युदय....

भाजपा और आर.एस.एस. सत्ता के मुकाबलेबाजों के केन्द्र के रूप में योगी आदित्यनाथ का रहस्यमय अभ्युदय जनता को आश्चर्यचकित करने का आभास देता है। यह कहना स्थिति का गलत आकलन होगा कि  उन्हें मोदी/अमित शाह के अनुरोध पर मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली है। वे दोनों ही राजनीतिक दृष्टि से इतने घाघ हैं कि अपने ही विरुद्ध सत्ता का एक नया केन्द्र कदापि सृजित नहीं करेंगे। 

इसमें तो कोई संदेह नहीं कि योगी एक ठाकुर हैं (जिसे बॉलीवुड की फिल्मों में गरीब लोगों के सदाबहार आततायी तथा किसी भी कीमत पर अपना लक्ष्य हासिल करने वाले के रूप में प्रस्तुत किया जाता है) लेकिन इसके साथ ही वह लम्बे समय से महंत भी चले आ रहे हैं और इस प्रकार उन्होंने बहुत आसानी से आर.एस.एस. के ब्राह्मणवादी पारिवारिक नेतृत्व की नजरों में अपनी जगह बना ली। योगी ने पदभार संभालने के तत्काल बाद हिन्दू राष्ट्र के अपने लक्ष्य की घोषणा करके इसी तथ्य को प्रमाणित किया है और मोहन भागवत तथा उनके साथियों के लिए यह घोषणा बहुत प्रसन्न करने वाली  थी (हालांकि यह हर प्रकार की यथार्थवादिता के विपरीत है और संवैधानिक दृष्टि से भी बहुत भारी गुनाह है)। 

यदि 2019 में भी मोदी दोबारा सत्तासीन हो जाते हैं तो वह किसी भी चुनौती की सीमा से आगे निकल जाएंगे तथा इसके साथ ही भाजपा पर आर.एस.एस. की पकड़ भी ढीली पड़ जाएगी। मोदी अपने बारे में ‘विकास पुरुष’ की मृगतृष्णा पैदा करने में सफल रहे हैं। ऐसा बेशक उन्होंने अपनी लाजवाब भाषण कला के बूते ही किया है लेकिन इस प्रक्रिया में उन्होंने अपनी पूरी तरह साम्प्रदायिकवादी भावभंगिमा एवं अल्पसंख्यक विरोध को छिपा लिया है। 

लेकिन दूसरी ओर योगी अपना हिन्दुत्ववादी जुनून खुलेआम प्रदर्शित करते हैं और यही कारण है कि आर.एस.एस. उन्हें एक विकल्प के रूप में बनाए रखना चाहता है। यह  भागवत और उनकी जुंडली  द्वारा मोदी को एक स्पष्ट संकेत है कि यदि वह आर.एस.एस. के कर्णधारों को आंखें दिखाएंगे तो उनका विकल्प भी तैयार किया जा रहा है। लेकिन योगी यू.पी. के मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ अभी संसद सदस्य  बने हुए हैं। यह एक बहुत गंभीर कानूनी चुनौती है। यह एक ऐसी संवैधानिक  भूलभुलैयां है जो देश के सबसे बड़े प्रांत के मुख्यमंत्री के लिए अशोभनीय है। 

संविधान की धारा 164 (4) ऐसे व्यक्ति को भी 6 माह तक मंत्री रहने की अनुमति देती है जो अभी तक निर्वाचित न हुआ हो। इस विसंगति  की ऐतिहासिक दृष्टि से जरूरत तब पड़ी जब ब्रिटेन की संसदीय पद्धति को इसके उपनिवेशों में नया-नया शुरू किया गया था। संविधान की धारा 75(5) में भी  ऐसा ही प्रावधान किया गया है कि यदि कोई गैर निर्वाचित व्यक्ति केन्द्रीय मंत्री बन जाता है तो 6 माह के अंदर-अंदर निर्वाचित सांसद न बनने की स्थिति में अपने आप ही उसका मंत्रित्वकाल समाप्त हो जाएगा। इस वास्तविकता का प्रमाण है कि विधानसभा व संसद अलग-अलग निकाय हैं और हरेक पर अलग-अलग संवैधानिक प्रावधान लागू होते हैं। 

उक्त प्रावधान योगी के मामले में लागू नहीं होता तो ऐसे में किसी व्यक्ति के लिए एक ही मौके पर संसद सदस्य एवं उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री होना कैसे संभव हो सकता है? यदि कोई इसके पक्ष में दलील देता है तो इसका स्वत: ही यह अर्थ निकलता है कि जैसे कोई व्यक्ति सांसद होने के साथ-साथ यू.पी. का मुख्यमंत्री हो सकता है, उसी तरह यू.पी. का विधायक बनकर वह भारत का प्रधानमंत्री बन सकता है क्योंकि आदित्यनाथ सांसद तो पहले ही हैं। यह जितना उपहासजनक है, उतना ही संवैधानिक दृष्टि से भी गलत है। 

यदि इस प्रकार का कोई सुझाव दिया जाता है कि धारा 75 (5) के अंतर्गत योगी मुख्यमंत्री बनने के बाद भी 6 माह तक अपनी संसद सदस्यता बनाए रख सकते हैं तो यह तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता क्योंकि कानून में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है। कानून की पोजीशन तो यह हो सकती है कि ऐसा व्यक्ति एक ही मौके पर प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री नहीं हो सकता। संविधान किसी भी व्यक्ति को केन्द्र या प्रदेशों में एक ही अवसर पर दो विधानकारी निकायों का सदस्य होने की अनुमति नहीं देता। 

योगी यह कह कर संसद सदस्यता जारी नहीं रख सकते कि 6 माह के अंदर-अंदर वह विधायक का चुनाव लड़ लेंगे। इस प्रकार की विवेकशीलता जिम्मेदार लोकतांत्रिक सरकार के उद्देश्य एवं भावना की जड़ों में तेल देने के तुल्य है। यदि योगी के इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाता है तो कोई व्यक्ति एक ही मौके पर प्रदेश का मुख्यमंत्री तथा भारत का प्रधानमंत्री हो सकता है जोकि सरासर असंभव और अतार्किक है। 

हमारी संवैधानिक प्रणाली के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति धारा 164 (4) या 75 (5) में से किसी एक  का ही लाभ ले सकता है न कि एक साथ दोनों का। ऐसे में यू.पी. का मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी की संसद सदस्यता स्वत: ही निष्प्रभावी हो जाती है। योगी को इस अशोभनीय भूमिका में केवल इसलिए रखा जा रहा है कि वह राष्ट्रपति के आगामी चुनाव में भाजपा की ओर से मतदान कर सकें। योगी के पक्ष में दलील यह दी जा रही है कि संविधान में ऐसी कोई विशिष्ट मनाही नहीं है कि वह एक ही अवसर पर राज्य विधानसभा का पद तथा लोकसभा सदस्यता नहीं रख सकते। मेरे विचार में विधानसभा का व्यवहार इस बात से नियमित होना चाहिए कि संसद देश की समस्त जनता की इच्छा को अभिव्यक्त करती है। 

मेरा विचार है कि जिस क्षण योगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे उसी समय उनकी संसद सदस्यता  स्वत: ही समाप्त हो गई थी और उनका सांसद बने रहना गैर कानूनी है। मैं महसूस करता हूं कि यदि योगी तत्काल अपनी संसदीय सदस्यता से त्यागपत्र नहीं देते तो उनका मुख्यमंत्रित्व काल भी समाप्त हो जाएगा। लेकिन यदि कानून की कुछ अनिश्चितताओं के चलते नर्म रुख अपनाया जाए तो भी योगी को कम से कम इतना तो करना होगा कि लोकसभा और राज्यसभा के समक्ष प्रस्तुत होकर इस बात के लिए क्षमा याचना करें कि यू.पी. के मुख्यमंत्री का पद्भार ग्रहण करने के बाद भी उन्होंने संसद की बैठकों में हिस्सा लिया था। 

इस पेशी दौरान लोकसभा अध्यक्ष तथा राज्यसभा के अध्यक्ष हो सकता है बहुत नरम रवैया धारण करते हुए उन्हें सांकेतिक रूप में केवल एक रुपए का जुर्माना लगाएं और इस प्रकार पूरा मामला बंद हो जाएगा लेकिन क्या योगी ऐसी शोभनीय पेशकदमी करेंगे और अपने पद तथा  देश की संसद की गरिमा को बनाए रखेंगे?    

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!