Edited By ,Updated: 05 Jul, 2015 09:09 AM
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकै:,
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणै: सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडनै:,
सद्विद्या यदि कि धनैरपयशो यद्यस्ति.....
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकै:,
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणै: सुमहिमा यद्यस्ति किं मंडनै:,
सद्विद्या यदि कि धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।
अर्थ : लोभ सबसे बड़ा अवगुण है, पर निंदा सबसे बड़ा पाप है, सत्य सबसे बड़ा तप है और मन की पवित्रता सभी तीर्थों में जाने से उत्तम है । सज्जनता सबसे बड़ा गुण है, यश सबसे उत्तम अलंकार (आभूषण) है, उत्तम विद्या सबसे श्रेष्ठ धन है और अपयश मृत्यु के समान सर्वाधिक कष्टकारक है ।।4।।
भावार्थ : आचार्य चाणक्य ने प्रस्तुत श्लोक में लोभ को दुर्गुणों की खान बताया है । यदि लोभ है तो अन्य दुर्गुण की क्या आवश्यकता? यदि चुगलखोरी का स्वभाव है तो और पातकों का क्या काम? यदि जीवन में सत्य है तो तप करने की क्या आवश्यकता? मन की शुद्धि से तीर्थ की , प्रेम है तो गुणों की, यश है तो आभूषणों की, श्रेष्ठ विद्या है तो धन की क्या आवश्यकता? इसी तरह अपयश है तो मृत्यु से क्या?