भगवान स्वयं आते हैं ऐसे प्रेमीयों का उद्धार करने

Edited By ,Updated: 27 Apr, 2016 12:41 PM

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जीव स्वयं ही अपना मित्र या शत्रु उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत। भगवान श्री कृष्ण श्री गीता जी में कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने आप को अधोगति में न डाले।

जीव स्वयं ही अपना मित्र या शत्रु

उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत।

भगवान श्री कृष्ण श्री गीता जी में कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने द्वारा अपना संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने आप को अधोगति में न डाले। जीव स्वयं ही अपना मित्र अथवा शत्रु है। सब देहाभिमानियों को मोहित करने वाला तमोगुण जो अज्ञान से उत्पन्न होता है, वह इस जीवात्मा को निद्रा, आलस्य तथा प्रमाद से बांधता है। जब तक जीव सत्वगुण की ओर आकर्षित नहीं होता और उसके अंत:करण तथा इंद्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न नहीं होती तब तक लोभ और स्वार्थबुद्धि के वशीभूत वह मनुष्य अपने इस मानव जीवन की सार्थकता के प्रति अनभिज्ञ रहता है।

 

वेदों में वर्णित यज्ञ, दान और तप इत्यादि सात्विक कर्म भाव से करना कर्तव्य है। 

गोविंद कहते हैं

‘‘त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्योभवार्जुन। 

निद्र्वन्द्वो नित्य सत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान॥’’ 

जो मनुष्य भोग और ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए वेदों में तीनों गुणों से प्रतिपादित कर्मों में आसक्त रहते हैं और वेद भी उन समस्त भोगों एवं गुणों का प्रतिपादन करते हैं तू उन भोगों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित हो जा तथा नित्यवस्तु परमात्मा के आश्रय में स्वाधीन अंत:करण वाला हो। 

 

कामना से युक्त होकर की गई उपरोक्त  क्रियाएं जन्मरूप कर्मफल प्रदान करने वाली हैं। आसक्तिपूर्वक किए गए इन कर्मों से सिद्धि, ऐश्वर्य तथा उच्च लोक तो प्राप्त होते हैं परंतु जीव कर्मफल से मुक्त नहीं होता। इसलिए हे अर्जुन! 

 

‘निर्योगक्षेम आत्मवान।’ त् योग-क्षेम की इच्छा मत कर। इसके संबंध में भगवान सरल उपाय का भी प्रतिपादन करते हैं।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: 

पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं बहाम्यहम्।

जो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्य निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योग-क्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूं। इसलिए ‘मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय। निवसिष्यसि मय्येव अत उध्र्वं न संशय:॥’

 

हे अर्जुन! मुझमें मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि का निवेश कर, इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा, इसमें कुछ भी संशय नहीं है। इस प्रकार भगवद्-अर्पण बुद्धि से किए गए कर्मों से जीव योग-क्षेम प्राप्त कर कर्मबंधन से मुक्त रहता है। कर्मों को त्यागने मात्र से मनुष्य को सांख्यनिष्ठा प्राप्त नहीं होती। कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता। यज्ञ अर्थात भगवान के निर्मित किए जाने वाले कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मनुष्य समुदाय कर्मों से बंधता है, इसलिए हे अर्जुन! ‘‘कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:। लोक संग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।’’ 

 

जनक आदि ज्ञानीजन भी आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। इसलिए तथा लोक संग्रह को देखते हुए भी तू निष्काम भाव से तथा भगवद् अर्पण बुद्धि से युक्त कर्म करने के ही योग्य है।

 

इस संबंध में भगवान कहते हैं कि परमात्मा के स्वरूप में अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम उत्पन्न न करे किन्तु स्वयं शास्त्र विहित समस्त कर्म भलिभांति करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवाए प्रकृति के गुणों से अत्यंत मोहित हुए मनुष्य गुणों, अर्थात   सत्व गुण, रजोगुण, तमोगुण में तथा कर्मों में आसक्त रहते हैं। इन पूर्णत: न समझने वाले मंदबुद्धि, अज्ञानियों को पूर्णत: जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे।

 

निष्कर्ष में भगवान कहते हैं जो मेरे परायण रहने वाले भक्तजन सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके मुझ सगुण रूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरंतर चिंतन करते हुए भजते हैं। 

तेषामहं समुद्धत्र्ता मृत्यु संसार सागरात्।

भवामि निषरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥

उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूं।

—रविशंकर शर्मा, जालंधर

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