भगवान कृष्ण क्यों बने थे अर्जुन के सारथी जानिए, महाभारत के बाद की बात

Edited By ,Updated: 23 Aug, 2016 01:01 PM

lord krishna

पीतांबरधारी चक्रधर भगवान कृष्ण महाभारत युद्ध में सारथी की भूमिका में थे। उन्होंने अपनी यह भूमिका स्वयं चयन की थी। अपने सुदर्शन चक्र से समस्त सृष्टि को क्षण भर में मुट्ठी भर राख बनाकर उड़ा देने वाले या फिर समस्त सृष्टि के पालनकर्ता भगवान कृष्ण...

पीतांबरधारी चक्रधर भगवान कृष्ण महाभारत युद्ध में सारथी की भूमिका में थे। उन्होंने अपनी यह भूमिका स्वयं चयन की थी। अपने सुदर्शन चक्र से समस्त सृष्टि को क्षण भर में मुट्ठी भर राख बनाकर उड़ा देने वाले या फिर समस्त सृष्टि के पालनकर्ता भगवान कृष्ण महाभारत में अपने प्रिय सखा धनुर्धारी अर्जुन के सारथी बने थे। इस बात से अर्जुन को बड़ा ही अटपटा लग रहा था कि उसके प्रिय सखा कृष्ण रथ को हांकेंगे। सारथी की भूमिका ही नहीं, बल्कि महाभारत रूपी महायुद्ध की पटकथा भी उन्हीं के द्वारा लिखी गई थी और युद्ध से पूर्व ही अधर्म का अंत एवं धर्म की विजय वह सुनिश्चित कर चुके थे। उसके बाद भी उनका सारथी की भूमिका को चुनना अर्जुन को असहज कर देने वाला था।  
 
भगवान कृष्ण सारथी के संपूर्ण कर्म कर रहे थे। एक सारथी की तरह वह सर्वप्रथम पांडुपुत्र अर्जुन को रथ में सम्मान के साथ चढ़ाने के साथ फिर आरूढ़ होते थे और अर्जुन के आदेश की प्रतीक्षा करते थे। हालांकि अर्जुन उन्हीं के आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन के अनुरूप चलते थे, परंतु भगवान कृष्ण अपने इस अभिनय का संपूर्ण समर्पण के साथ निर्वहन करते थे।  
 
युद्ध के अंत में वह पहले अर्जुन को उतार कर ही उतरते थे। भगवान कृष्ण अर्जुन से युद्ध के पूर्व बोले थे, ‘‘हे परंतप अर्जुन! युद्ध की विजय सुनिश्चित करने के लिए भगवती दुर्गा से आशीष लेना उपयुक्त एवं उचित रहेगा। भगवती दुर्गा के आशीर्वाद के पश्चात ही युद्ध प्रारंभ करना चाहिए।’’ 
 
सारथी के रूप में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को एक और सलाह दी थी, ‘‘हे धनुर्धारी अर्जुन! मेरे प्रिय हनुमान का आह्वान करो। वह महावीर हैं, अजेय हैं और धर्म के प्रतीक हैं। उन्हें अपने रथ की ध्वजा पर आरूढ़ होने के लिए उनका आह्वान करो।’’ 
 
अर्जुन ने यही किया था। सारथी की भूमिका में ही भगवान कृष्ण ने कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों सेनाओं ने बीच परम रहस्यमयी गीता का गान किया था।’’
  
भगवान कृष्ण ने सारथी के रूप में अर्जुन के पराक्रम को निखारा ही नहीं, कठिन से कठिनतम क्षणों में उनको सुरक्षित एवं संरक्षित कर अपनी भूमिका को सार्थक किया था। इसलिए तो भीष्म पितामह, अर्जुन को आशीर्वाद देकर बोले, ‘‘हे प्रिय अर्जुन! जिसके सारथी स्वयं भगवान कृष्ण हों, उसे कैसी चिंता! तुम्हारी विजय सुनिश्चित है। तुम ही विजयी होगे-विजयीभव।’’ 
 
सारथी भगवान कृष्ण ने अर्जुन को धर्म का पाठ तब पढ़ाया जब महादानी सूर्यपुत्र कर्ण के रथ के पहिए धरती में धंस गए थे और तब कर्ण, अर्जुन को धर्म एवं नीति का पाठ पढ़ा रहा था। उस समय भगवान कृष्ण अर्जुन से बोले, ‘‘हे पार्थ! कर्ण किस मुंह से धर्म की बात कर रहा है। द्रौपदी के चीरहरण के समय, अभिमन्यु के वध के समय, भीम को विष देते समय, लाक्षागृह को जलाने के समय उसका धर्म कहां चला गया था? यही क्षण है कर्ण को समाप्त करने का।’’  
 
भगवान कृष्ण के मार्गदर्शन से ही कर्ण का अंत संभव हो सका। सारथी के रूप में ही भगवान कृष्ण ने अर्जुन से जयद्रथ का वध करने के लिए व्यूह रचना की थी और अर्जुन जयद्रथ का वध कर सके थे। 
 
भगवान कृष्ण ने सारथी की भूमिका का इस खूबी से निर्वाह किया था कि अर्जुन को लग रहा था यदि कान्हा के हाथों में घोड़ों की लगाम न होती तो पता नहीं मेरा क्या होता? यहां भगवान के दृश्य हाथों में घोड़ों की लगाम थी और अदृश्य हाथों में महाभारत के महायुद्ध की समग्र डोर। महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। कुरुक्षेत्र में भगवान कृष्ण रथ पर बैठे थे। भगवान कृष्ण के अधरों पर एक निश्छल मुस्कान सदा की तरह बिखरी हुई थी जो आज कुछ और भी गहरी हो गई थी। आज उनके हाव-भाव एवं व्यवहार में कुछ परिवर्तन था। 
 
भगवान कृष्ण सदा की तरह रथ से अर्जुन से पहले नहीं उतरे और अर्जुन से बोले, ‘‘पार्थ! आज तुम रथ से पहले उतर जाओ। तुम उतर जाओगे तब मैं उतरता हूं।’’ यह सुनकर अर्जुन को कुछ अटपटा-सा लगा। कान्हा तो बड़े आदर से अर्जुन को रथ से उतारने के बाद उतरते थे, पर आज यह क्या हुआ?
  
भगवान कृष्ण, अर्जुन के रथ से उतरने के पश्चात कुछ देर मौन रहे, फिर वह धीरे से उतरे और अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें रथ से दूर ले गए। उसके पश्चात जो घटा वह उन सर्वज्ञ भगवान कृष्ण के लिए तो परिचित था, परंतु अर्जुन के लिए विस्मयकारी, अकल्पनीय एवं आश्चर्यजनक था। अनायास ही रथ से अग्रि की लपटें निकलने लगीं और वह एक भयंकर विस्फोट करते हुए जलकर खाक हो गया। 
 
अर्जुन देख रहे थे जो रथ इतने अजेय महारथियों के अंत की कहानी का प्रत्यक्षदर्शी था, आज वह पल भर में नष्ट हो गया। अर्जुन देख रहे थे उस रथ से जुड़े अतीत को, इसी रथ से पूज्य पितामह की देह को अस्त्रों से बींध दिया था। इसी रथ से अनगिनत महारथियों का वध किया था। इसी रथ पर बैठकर उनके प्रिय सखा ने उन्हें गीता का उपदेश दिया था। आज वह राख की ढेरी बन चुका था।  
 
इस घटना से हतप्रभ अर्जुन ने भगवान कृष्ण से कहा, ‘‘हे कान्हा! आपके उतरते ही यह रथ पल भर में भस्मीभूत हो गया। ऐसे कैसे हो गया? इसके पीछे क्या रहस्य है?’’ 
  
भगवान कृष्ण बोले, ‘‘हे पार्थ! यह रथ तो बहुत पहले ही नष्ट हो चुका था, इस रथ की आयु तभी समाप्त हो गई थी जब पितामह भीष्म ने इस पर अपने दिव्या का प्रहार किया था। इस रथ में इतनी क्षमता नहीं थी कि भीष्म पितामाह के अचूक दिव्यास्त्रों को झेल सके। इसके पश्चात इसकी आयु फिर क्षीण हुई, जब इस पर द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महारथियों के भीषण दिव्यास्त्रों का पुन:-पुन: प्रहार होता रहा। यह रथ अपनी मृत्यु का वरण तो कब का कर चुका था।’’
  
अर्जुन, आश्चर्यमिश्रित भाव से बोले, ‘‘हे कान्हा! यह रथ इतने पहले मृत्यु का वरण कर चुका था, तो फिर यह इतने समय तक चला कैसे? कैसे इतने दिनों तक आपके हाथों सकुशल कार्य करता रहा।’’  
 
भगवान कृष्ण बोले, ‘‘यह सत्य है कि इस दिव्य रथ की आयु पहले ही समाप्त हो चुकी थी, परंतु यह रथ मेरे संकल्प से चल रहा था। इसकी आयु की समाप्ति के पश्चात भी इसकी जरूरत थी, इसलिए यह चला। धर्म की स्थापना में इसका महत्ती योगदान था, अत: संकल्पबल से इसे इतने समय तक खींच लिया गया।’’ 
 
भगवान कृष्ण आगे बोले, ‘‘धनंजय! भगवान का संकल्प अटूट, अटल और अखंड होता है। यह संकल्प संपूर्ण सृष्टि में जहां कहीं भी लग जाता है, वहां अपना प्रभाव दिखाता है और यह प्रभाव संदेह से परे अवश्य ही पूर्ण परिणाम देने वाला होता है जैसे ही संकल्प पूर्ण होता है, संकल्प की शक्ति वापस भगवान के पास चली जाती है और उसका समय एवं प्रभाव समाप्त हो जाता है। ठीक इसी तरह  इस रथ पर मेरा संकल्प-बल कार्य कर रहा था और उसके समाप्त होते ही जो हुआ, वह तुमने देखा।’’ 
 
भगवान कृष्ण आगे बोले, ‘‘इसीलिए हे अर्जुन! हम सबको भगवान के हाथों यंत्र बनकर अपना कार्य करना चाहिए। यंत्र का कार्य होता है-यंत्री के हाथों में अपना सर्वस्व समर्पण कर देना और उसके आदेशों का पालन करना। इससे कर्तापन का अहंकार समाप्त हो जाता है और जीवन का विकास होता है जिसका जितना योगदान है, उतना ही करना चाहिए और शेष यंत्री के हाथों में छोड़ देना चाहिए। यही जीवन के विकास का रहस्य है। 

चलो! अपने शिविर की ओर चलें।’’ भगवान कृष्ण और अर्जुन पैदल ही शिविर की ओर बढ़ गए।  

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